अनंत कुशवाहा : बाल कहानियों के अद्भुत जादूगर।

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Anant Kushwaha Ki Bal Kahaniyan

हिन्‍दी साहित्‍य की गलियों से गुजरते हुए न जाने कब और कैसे मेरे जेहन में यह धारणा बनती चली गयी कि एक सृजनशील रचनाकार ही अच्‍छा सम्‍पादक भी हो सकता है। मेरी इस धारणा को पुष्‍ट होने और बल प्रदान करने में बाल साहित्‍य के उन तमाम संग्रहों ने भी मदद की, जो बाल साहित्‍य की प्रतिनिधि रचनाओं के नाम पर तैयार किये गये हैं। इनमें से ज्‍यादातर को देखने पर यह शीशे की तरह साफ हो जाता है कि इनका रचनाकार कितनेपानी में होगा, बशर्ते देखने वाला स्‍वयं एक समर्थ और उर्वरा शक्ति सम्‍पन्‍न रचनाकार हो।

Anant Kushwaha ki Shresht Bal Kathayen by Zakir Ali Rajnish
मुझे यह भी लगता है कि मेरी इस धारणा को पुष्पित और पल्लवित होने में 'बालहंस' का बहुत बड़ा हाथ रहा है। हिन्‍दी बाल साहित्‍य के इतिहास में दो पत्रिकाओं ने जो मानदण्‍ड स्‍थापित किये हैं, वे अद्भुत हैं। इनमें से पहला नाम 'पराग'  का है और दूसरा 'बालहंस' का। बाल कहानियों को परियों, राक्षसों और जिन्‍नातों के मायावी लोक से निकालकर वर्तमान तक लाने में नि:संदेह 'पराग' का बड़ा योगदान है। यह एक ऐतिहासिक और अतुलनीय कार्य है। 

 किन्‍तु यदि 'पराग' की रचनाओं का हम सूक्ष्‍मता से अध्‍ययन करें, तो यह पता चलता है कि बच्‍चों की बाल सुलभ मनोवृत्तियां, उनकी चंचलता, निश्‍क्षलता, उनकी कोमल आकांक्षाएं वहां पर अपनी जगह बनाने में पूरी तरह से सफल नहीं रहीं। इन कोमल बिन्‍दुओं को अगर किसी ने प्रमुखता से स्‍थान दिया, तो वह है 'बालहंस'बाल कहानी को रहस्‍य-रोमांच और कैशोर्य मानसिकता से निकाल कर बालपन की गहराइयों तक पहुंचाने में 'बालहंस' का अप्रतिम योगदान है। यह बात 'बालहंस' में प्रकाशित होने वाली अधिसंख्‍य कहानियों में साफतौर पर देखी जा सकती है। लेकिन आश्‍चर्य का विषय यह है कि हिन्‍दी बाल साहित्‍य की आलोचनात्‍मक दुनिया में इस बात की कहीं कोई चर्चा तक नहीं मिलती है। पता नहीं लोगों ने बाल कहानी के इस महत्‍वपूर्ण अवदान को समझा भी अथवा नहीं?

खैर, मैं अपने मूल बिन्‍दु पर लौटता हूं। 'बालहंस' में प्रकाशित होने वाली रचनाओं खासकर कहानियों को पढते समय उपरोक्‍त बात बराबर मेरे दिमाग में गूंजती रहती थी। लेकिन इसका ठोस प्रमाण मुझे तब मिला जब मैंने इस श्रृंखला के सम्‍पादन कार्य को अपने हाथों में लिया। जैसे-जैसे मैं अनंत कुशवाला के रचना-लोक में प्रविष्‍ठ होता गया, मेरी आंखें आश्‍चर्यमिश्रित प्रसन्‍नता से खुलती चली गयीं। 

अनन्‍त कुशवाहा की कहानियों के आस्‍वादन के पश्‍चात एक ही बात कही जा सकती है अद्भुत और अतुलनीय। उनकी रचनाओं का पाठ करते समय जो बात सबसे पहले दिमाग में क्लिक करती है, वह है उनकी मनोविज्ञान पर पकड़। अपनी रचनाओं में बाल सुलभ घटनाओं को वे ऐसे गूंथ देते हैं कि पाठक उसे छोड् ही नहीं पाता, लेकिन इसके साथ ही साथ उनकी रचनाओं की एक और विशेषता भी है। उनकी रचनाएं पूर्णत: आधुनिक युगबोध की कहानियां नहीं हैं। उनमें परीकथाओं जैसा रोमांस भी है और मनोविज्ञान की चाशनी भी। उनकी ज्‍यादातर कहानियों में वही 'पराग' वाला कैशोर्य-रोमांच है, जो बालपन की ओरखिंचा चला आ रहा है,'लाल पतंग' इसका उत्‍कृष्‍ट उदाहरण है। इस कहानी में परी कथाओं की रूमानियत और खोज कथाओं का रोमांच लेकर बाल मनोविज्ञान के साथ ऐसे गूंथ दिया गया है कि तीनों आपस में एकसार हो गये हैं। 

'पुष्‍प बाला', 'बांध के चूहे' और 'प्‍यासा पुल' अनन्‍त कुशवाहा की वे रचनाएं हैं, जो निकली तो परी कथाओं की परम्‍परा से हैं, पर इन्‍हें बड़ी खूबसूरती से आधुनिक युगबोध के साथ जोड़ दिया गया है। ये रचनाएं अपनी मौथ्‍लक विषय वस्‍तु के कारण पाठक को खींचती हैं, जबरदस्‍त पठनीयता के कारण बांधे रखती हैं और सामाजिक विद्रूपताओंपर प्रहार के कारण बेधती भी हैं। इनमें कहीं पर आदमी का स्‍वार्थ हावी है,कहीं पर औद्योगीकरण की अंधी दौड़ के दुष्‍परिणाम हैं, तो कहीं पर भ्रष्‍टाचार का एक क्रूर चेहरा देखने को मिलता है। एक तरह से देखा जाए तो ये हद दरजे के नीरस विषय हैं, पर अनंत कुशवाला ने इन पर इतनी खूबसूरती से कहानियों का ताना बाना बुना है, कि वह देखते ही बनता है। 

अनन्‍त कुशवाहा की कहानियों के अधिकांश पात्रों में गंवई पृष्‍ठभूमि से आए पात्र दृष्टिगोचर होते हैं। उनमें भी ज्‍यादातर चरित्र उस निचले तबके से ताल्‍लुक रखते हैं, जहां जीवन की न्‍यूनतम आवश्‍यकताएं भी दुर्लभ हैं, लेकिन इसके बावजूद उनमें उस जीवन को जीने की जिजीविषा है और अपने  अधिकारों के प्रति सजगता। उसके लिए वे किसी से भी टकरा सकते हैं, यहां तक कि अपनी जान की बाजी भी लगाने में पीछे नहीं रहते। इसका साक्षात उदाहरण है 'सच्‍ची का टापू'  अैर 'चौथे कुण्‍ड का पानी'। 

'सच्‍ची का टापू' यूं तो एक साधारण सी कहानी है, जो सामंती युग की पृष्‍ठभूमि पर रची गयी  हे, पर कहानी की पात्र सच्‍ची के चरित्र की बोल्‍डनेस उसे विशिष्‍ट बनाती है। अपने इस विशिष्‍ट तेवर के कारण यह आधुनिकता का एहसास कराती है। वहीं 'चौथे कुण्‍ड का पानी' एक लाजवाब कहानी है, जो आतंक और संकट की कठिन घड़ी में भी मानसिक संतुलन बनाए रखने की दास्‍तान को रोचक ढंग से बयां करती है। 

अनंत कुशवाहा उस परम्‍परा के रचनाकार हैं, जो भावना के स्‍तर पर कहानी की बेलौस उड़ान प्रदान करते हैं। ऐसा करते हुए वे अक्‍सर उस सीमा रेखा के पार निकल जाते हैं, जो तथाकथित विद्वतजनों ने अपनी छुद्र सोच के हिसाब से खींच रखी है। यहां उन पर यह आरोप भी मढ़ा जा सकता है कि 'यह बाल कहानी कहां से' ? मानवीय विकृतियों को केन्‍द्र में रखकर लिखी गयी उनकी ज्‍यादातर कहानियां बार-बार इस तथाकथित सीमा-रेखा का अतिक्रमण करती हें। बाल कहानियों में 'बच्‍चों' और 'उपदेश' को अपरिहार्य मानने  वाले तमाम आलोचक भी यहां निराश हो सकते हैं, बावजूद इसके ऐसी कहानियों की रचनात्‍मकता और उसमें गुंथी हुई मानवीय जिजीविषा उसे एक उत्‍कृष्‍ट कहानी का खिताब दिलाती है।

'उसके आगे क्‍या है कजरी' एक ऐसी ही कहानी है, जो अपनी अद्भुत बनावट और जबरदस्‍त बुनावट के कारण एक प्रतिवाद के रूप में हमारे सामने आती है। भले ही आलोचकगण इसे बाल कहानी की श्रेणी में रखने पर कितने ही प्रश्‍न क्‍यों न उठाएं मैं यह बात पूरे जोर-शोर से कहना चाहूंगा कि ऐसी कहानियां लिखी नहीं जातीं, अपने आप लिख जाती हैं। 

अनंत कुशवाहा के व्‍यक्तित्‍व में जितनी विविधत है, उतनी ही विविधता उनके रचना संसार में भी देखी जा सकती है। एक तर फ वे मानव रूपी दानवों की पड़ताल (दानव से भेंट) करते चलते हैं, तो दूसरी तरफ 'पहाड़ परी घाटी परी' की खोज में व्‍यस्‍त दिखते हैं। कभी वे 'निरंजन' के बहाने मंदबुद्धिबच्‍चों की स्थितियों पर अपनी लेखनी को केन्द्रित करते हैं, तो कभी 'पीपल वाला बंदर' के कारनामों का लुत्‍फ लेने लगते हैं। किसी लेखक के रचना संसार में इतनी जबरदस्‍त विविधता कम ही देखने को मिलती है। यह विविधता तब आश्‍चर्यमिश्रित प्रसन्‍नता से सराबोर कर देती है, जब 'भीगी आंखों का ब्रेक' आगे बढ़ने से रोक लेता है। पूरी तरह से आधुनिक भाव-भूमि पर रची गयी इस कहानी को पढ़ने के बाद किसी के मन में यह सवाल उठना लाजिमी है कि 'प्‍यासा पुल', 'लाल पतंग' और 'उसके आगे क्‍या है कजरी' जैसी कहानियां लिखने वाला व्‍यक्ति क्‍या ऐसी कहानी भी रच सकता है?

अनंत कुशवाहा की सार्वजनिक छवि एक चित्रकार, व्‍यंगकार और कुशल सम्‍पादक के रूप में है, पर मेरी समझ से वे ऐसे रचनाकार हैं, जो अपने आसपास की चीजों को गहराई से महसूस करते हैं। आसपास घटित होने वाली छोटी से छोटी बातों को शब्‍दों में ढ़ालकर कहानी की शक्‍ल में पिरो देना उनके बाएं हाथ का खेल है। जिस कुशलता से वे चित्रों को बनाते हैं, उसी तन्‍मयता  से कहानी को भी गढते हैं। जिस प्रकार उनके कार्टून पाठकों को बेधते हैं, उसी प्रकार उनकी कहानियां भी सीधे दिल में उतर जाती हैं। 

वे हिन्‍दी बाल साहित्‍य के इकलौते ऐसे रचनाकार हैं, जो गंवई अस्मिता के साथ पूरी ईमानदारी से खड़े नजर आते हैं। वे न सिर्फ उस अस्मिता का सम्‍मान करते हैं, बल्कि उसे पूरी शिद्दत के साथ अपनी रचनाओं में स्‍थान भी प्रदान करते हैं। 'बाजरे की रोटी' इसी सोच की कहानी है। यह कहानी दर्शाती है कि किसी के लिए अनुपयोगी मोटा बाजरा कितने लोगों के लिए जीने का सहारा है और वे उसे कितना सम्‍मान देते हैं। इस कहानी में एक अजीब सा सोंधापन है, जो बारिश के बाद मिट्टी से उठने वाली गंध का एहसास कराता है। यह कहानी अपने विशिष्‍ट परिवेश और बेलौस संरचना के कारण हिन्‍दी साहित्‍य जगत में एक सुखद झोंके के समान है, जिसकी प्रशंसा जरूर की जानी चाहिए। 

अगर हम गहराई से 'बाजरे की रोटी' का विश्‍लेषण करें, तो पता चलता है कि उसके उत्‍स के पीछे वह सहज बालवृत्ति है, जो किसी भी नयी चीज को देखकर उसे पाने के लिए मचल उठती है। यह मनोवृत्ति यूं तो सभी वय के लोगों में पायी जाती है, पर बच्‍चों की बात निराली है। वे निश्‍छल होते हैं, वे तर्कों से परे होते हैं और वे नये-नये अनुभवों को धीरे-धीरे सीखते हैं। यही कारण है कि अक्‍सर वे अपनी इस प्रक्रिया में कई बार बहुत कुछ ऐसा कर जाते हैं, जो उन्‍हें नहीं करना चाहिए। इसी मंतव्‍य, इसी सोच को अलग-अलग स्‍वरूपों में व्‍याख्‍यायित होते हुए 'एक दोपहर', 'मिट्टी के खिलौने' और 'ग्‍यारह अ‍ठन्नियां' में भी देखा जा सकता है। 

कोई भी बच्‍चा जब इस दुनिया में कदम रखता है, तो उसे यह दुनिया एक अजूबा जैसी लगती है। रेडियो, टीवी, कार ही नहीं उसके लिए पाउडर का डिब्‍बा और तेल की शीशी भी जादू की पुडिया से कम नहीं होती और अगर किसी बच्‍चे को इस बात की आजादी मिल जाए कि वह इन नन्‍हें-नन्‍हें अजूबों को अपनी मर्जी से परख सके, तो फिर बातही क्‍या है। आप सोच सकते हैं कि वह कितना मनोरंजक दृयय होगा। इस सुखद कल्‍पना का साक्षात उदाहरण है 'एक दोपहर'। मजा तो तब आता है, जब अपनी मनमर्जी से सब कुछ उलट-पुलट देने के बाद नन्‍हें नवाब फिसल कर गिर पड़ते हैं और जोर-जोर से रोने लगते हैं। जैसे उन्‍हें किसी ने बहुत जोर से डांटा या मारा हो। मेरी समझ से बाल सुलभ मनोवृत्तियों के इससे सफल अंकन की उम्‍मीद करना भी बेईमानी होगी। 

चाहे कोई छोटा बच्‍चा हो या फिर कोई समझदार व्‍यक्ति, हर एक ही इच्‍छा होती है कि वह सबसे श्रेष्‍ठ बने, लोग उसकी इज्‍जत करें और उसके हुक्‍म को मानें। यह भावना प्राय: हर किसी में पाई जाती है। यह अलगबात है कि कुछ लोग उसे दबा लेते हैं, कुछ उसकी वजह से ऊल-जलूल हरकत करके मजाक का पात्र बन जाते हैं। लेकिन जब व्‍यक्ति की यह भावना बिगड़ैल सांड की तरह अनियंत्रित हो जाती है, तो उसके दुष्‍परिणाम सामने आते हैं और तब पछतावा के अलावा और कुछ हाथ नहीं लगता। इसी दर्शन को अपने ढंग से बयां करती है कहानी 'मिट्टी के खिलौने'। 

अनंत कुशवाला की रचनाओं में फैंटेसी बहुलता में पायी जाती है। वे अपनी सोच और कल्‍पना के द्वारा ऐसा संसार रच देते हैं, जो सच न होते हुए भी सच जैसा लगने लगता है। उनकी रचनाएं एक जादुई यथार्थ की रचना करती हैं, जिसके आकर्षण से बच पाना मुश्किल होती है। 'मिट्टी के खिलौने' का भी अपना एक जादुई यथार्थ है, जो सहज रूप से पाठकों को आकर्षित करता है और अपने भीतर छिपी नन्‍हीं सीख को पाठकों के हृदय में चुपके से उतार देता है। 

हिन्‍दी बाल साहित्‍य में थोडी बहुत रूचि रखने वाला व्‍यक्ति भी यह  जानता है कि यहां पर ऐसी रचनाओं का बाहुल्‍य है, जो सायास लिखी जाती हैं। ऐसी रचनाओं के अंत में दी गयी सीख/उपदेश इनकी अनिवार्य पहचान होती है। इन रचनाओं की बनावट ऐसी होती है कि पढ़ते ही उसकी कैटेगरी का पता चल जाता है। किन्‍हीं अर्थों में 'ग्‍यारह अठन्नियां' भी उसी श्रेणी की रचना प्रतीत होती है, लेकिन यदि रचनाकार की कलम में रवानगी हो और शब्‍दों पर अधिकार, तो ऐसी रचनाएं भी यादगार बन जाती हैं। 'ग्‍यारह अठन्नियां' में यह बात साफ तौर पर देखी जा सकती है। 

अनंत कुशवाहा की रचनाओं की बात हो और उसमें हास्‍य का जिक्र न हो, ऐसा कैसे हो सकता है?  आमतौर से हास्‍य लेखन एक दुष्‍कर कार्य माना जाता है। उस परभी जब वह बच्‍चों के लिए लिखा जाना हो, तो चुनौतियां और ज्‍यादा प्रबल हो जाती हैं। मेरी समझ से यह दुधारी तलवार पर चलने के समान है। इसमें एक ओर कुआं और दूसरी ओर खाई की हालत होती है। जरा सा चूके नहीं कि सीधे नीचे। शायद यही कारणहै कि बाल साहित्‍य में हास्‍य कहानियों की जबरदस्‍त किल्‍लत दिखाई देती है। 

हास्‍य लेखन की भी दो श्रेणियां हैं। पहला व्‍यंग्‍य प्रधान और दूसराविशुद्ध हास्‍य। व्‍यंग्‍य प्रधान हास्‍य संकेतों के माध्‍यम से चलता है। यह तीखा होता है। यह गुदगुदाता कम, पिंच ज्‍यादा करता है। इसीलिए यह बच्‍चों के बीच उतना लोकप्रिय नहीं होता है। बच्‍चे मन के सच्‍चे होते हैं, इसलिए वे सीधे-सादे घटना प्रदान हास्‍य को वरीयता देते हैं। 

अनंत कुशवाहा दोनों ही श्रेणियों के मंझे हुए रचनाकार हैं। उनकी ज्‍यादातर कार्टून स्ट्रिप व्‍यंग्‍य प्रधान हैं। 'कवि आहत' और 'ठोलाराम' इसका साक्षात प्रमाण हैं। जबकि 'कूं-कूं' की घटनाएं सीधे दिल में उतर जाती हैं और वे देर तक गुदगुदाती रहती हैं। यही चीज उनकी हास्‍य कथाओं में भी देखी जा सकती है।

यूं तो अनंत कुशवाहा ने बड़ी तादात में हास्‍य बाल कहानियों का सृजन किया है, पर यदि उनमें से प्रतिनिधि रचनाओं का चयन किया जाए, तो शायद 'मुर्गी चोर', 'नन्‍हें नवाब', 'वसूल लूंगा', 'बर्राक गुल्‍लम असलिल्‍लाह' और 'सर्दी- दस डिग्री ऊपर दस डिग्री नीचे' के नाम सामने आएंगे। 

'मुर्गी चोर' और 'वसूल लूंगा' सामान्‍य जीवन से उपजी हुई कहानियां हैं। ये रचनाएं मानवीय कमजोरियों को केन्‍द्र में रखकर रची गयी हैं। किस प्रकार कोई भी व्‍यक्ति अपनी छोटी-छोटी आदतों के कारण हास्‍य का पात्र बन जाता है, यह इनमें देखा जा सकता है। जबकि 'नन्‍हें नवाब' और 'बर्राक गुल्‍ल्‍म असलिल्‍लाह' फैंटेसी प्रधान कहानियां हैं। सामान्‍य रचनाओं की तरह यहां भी एक जादुई यथार्थ है, जो पाठक को चमत्‍कृत करता है। ऐसे में हास्‍य उसके भीतर से ऐसे फूटता है, जैसे नमी पाकर बीज के भीतर से अंकुर। 

जबकि 'सर्दी- दस डिग्री ऊपर दस डिग्री नीचे' एक अलग तरह की कहानी है। नतो इसमें हास्‍य उत्‍पन्‍न करने वाली घटनाएं हैं, न ही ऐसे पात्र, फिर भी यह एक जबरदस्‍त हास्‍य कहानी है। कारण अनंत कुशवाहा ने सामाजिक परिस्थितियों में जकडे हुए आदमी की रग पर कुछ इस तरह कसे उंगली रखी है कि हास्‍य पानी के श्रोत की तरह फूट पड़ा है। यह अपनी तरह की एक अद्भुत रचना है, जो रचनाकार की लेखनी की गहराई को खुद ब खुद बयां कर देती है। 

बहुत से लोगों का यह कथन है कि कहानी के लिए उसका विषय ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण होता है लेकिन मैं समझता हूं कि विषय से ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है उसका प्रस्‍तुतिकरण। यदि रचनाकारकी कलम में सामर्थ्‍य है, तो वह अपने भाषाई कौशन से रचना में ऐसी रवानगी ला देगा कि पाठक बिना उसे खत्‍म किये रह ही न सके। लेकिन यह वही कर सकता है, जिसके पास शब्‍दों का संसार, विचारों का सागर और अनुभूति का खजाना हो। इस दृष्टि से भी अनंत कुशवाहा एक लाजवाब रचनाकार हैं। उनकी कहानी 'लाल पतंग' को देखें। एक सामान्‍य सा विवरण है, पर  उन्‍होंने जिस खूबसूरती से उसे बयां किया है, उससे वह विवरण भी महत्‍वपूर्ण बन गया है- 

''सुमना का ध्‍यान चिलबिल के ऊंचे पेड़ पर अटकी लाल पतंग पर लगा था। पहले तो उसने पेड़ पर चढ़ने की कोशिश किया था, पर दस साल की उम्र में उसके हाथों में उतनी ताकत और लचीलापन नहीं आ पाया था कि आठ हाथ ऊंचे तने पर चढ़ सें'' (लाल पतंग)

कहावत है कि बात महत्‍वपूर्ण हो न हो, लेकिन अगर बात कहने का सलीका हो, तो महत्‍वहीन बात भी अक्‍सर बड़े मार्के की बन जाती है। यही बात उनकी तमाम कहानियों में साफ तौर पर देखी जा सकती है। विशेषतौर पर 'पुष्‍प बाला' और 'उसके आगे क्‍या है कजरी' के निम्‍न उद्धरण दर्शनीय हैं-
''नदी के किनारे दूर तक फैले जंगली फूलों की चादर में जैसे इन्‍द्रधनुष उतर आता था। हवा के झोंकों ने सुगंध के कितने ही गीत यहां सीखे थे। लेकिन जल्‍दी ही फूलों के पौधों को ऊब होने लगी। उन्‍हें लगता था जैसे उनका जीवन व्‍यर्थ जा रहा है। जन्‍मना, खिलना और चुपचाप झर जाना, यह भी कोई जिन्‍दगी है? उनकी देखभाल करने वाला भी कोई नहीं। कोई ऐसा नहीं, जो उन्‍हें प्‍यार से दुलराए, सहलाए, उनके सौन्‍दर्य की प्रशंसा करे, उनके मादक सुगंध का आनंद उठाए'' (पुष्‍प बाला)

''इतनी तेजी से भाग कर जाने की कौन सी आवश्‍यकता आ पड़ी, यह भी मेरी समझ में नहीं आया। उसकी कासनी जामुनी आंखें, भरा-भरा शरी, तांबे का रंग जैसे मंजा-धुला चमकता कलशा। पसीने से माथे पर चिपकी, बिखरी भूरी लटें मुझे याद आती रहीं। किसी मेल में खरीदी हुई विन्‍ध्‍याचली चुनरी, जो धूप में चमक रही थी। अल्‍हड़ता से मुझे देख कर जब वह घास छीलते-छीलते रूक गयी और मेरी ओर प्रश्‍नसूचक दृष्टि से देखा, तो राह पूछने का लोभ मैं संवरण न कर सका।'' (उसके आगे क्‍या है कजरी)

अनंत कुशवाला के पास कल्‍पना के ऐसे धरातल हैं, जो पाठक को मंत्र-मुग्‍ध किये बिना नहीं रहते। उनकी रचनाओं को पढ़ते वक्‍त ऐसा लगता है कि जैसे वे शब्‍दों के साथ खेल रहे हों। इस खिलंदड़ी प्रवृत्ति के उदाहरण उनकी हास्‍य रचनाओं में भरे हुए हैं। एक छोटा सा उदाहरण देखें- 

''आपने लिखा है वहां गुलाबी जाड़ा पड़ता है। इस तरह के रंगीन जाड़े यहां नहीं पड़ते। यहां तो बर्फ की मोटी-मोटी सिल्लियां गिरती हैं। अगर उनके नीचे कोई आ जाए, तो दब जाए। बस दस डिग्री ऊपर से एकदम दस डिग्री नीचे तापक्रम हो जाता है। अगर मौका मिला, तो आपके यहां का गुलाबी जाड़ा देखने आएंगे। मेरे लिए थोड़ा बचाकर रचना।'' (सर्दी- दस डिग्री ऊपर दस डिग्री नीचे)

इस तरह से देखा जाए, तो अनंत कुशवाला एक वर्सेटाइल कहानीकार के रूप में हमारे सामने आते हैं। लेकिन बावजूद इसके उनकी पहचान आमतौर से चित्रकार/कार्टूनिस्‍ट के रूप मेंरही है। शायद इसके पीछे कारण यह है कि उनकी ज्‍यादातर रचनाएं 'बालहंस' में ही प्रकाशित हुई हैं और वह भी 'गंगा प्रसाद' और 'अकु' के नाम से। नामों की इस बाजीगरी के पीछे कारण क्‍या रहे हैं, ये तो वे ही जानें, पर इससे न तो उनकी रचनात्‍मक प्रतिभा की चमक फीकी पडती है और न ही उनका साहित्यिक अवदान कम होता है। आने वाला समय उन्‍हें कुशल चित्रकार, गंभीर कवि के साथ-साथ सशक्‍त बाल कहानीकार के रूप में भी याद रखेगा, ऐसा मुझे विश्‍वास है।


पुस्तक: अनन्‍त कुशवाहा की श्रेष्ठ बाल कथाएं
सम्पादक: डॉ. जाकिर अली रजनीश
संग्रहीत कहानियां: लाल पतंग, पुष्‍प बाला, बांध के चूहे, प्‍यासा पुल, सच्‍ची का टापू, चौथे कुण्‍ड का पानी, उसके आगे क्‍या है गजरी, पहाड़ परी घाटी परी, निरंजन, भीगी आंखों का ब्रेक, बाजरे की रोटी, एक दोहर, मिट्टी के खिलौने, ग्‍यारह अठन्नियां, मुर्गी चोर, नन्‍हें नवाब, वसूल लूंगा, बर्राक गुलुम असलिल्‍लाह, सर्दी: दस डिग्री ऊपर दस डिग्री नीचे
प्रकाशक: लहर प्रकाशन, 778, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद, मोबाइल-094152 14878 (ऑनलाइन खरीद के लिए यहां पर क्लिक करें)
मूल्य: 150.00

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जाकिर अली 'रजनीश' द्वारा संपादित अन्य पुस्तकें

* इक्कीसवीं सदी की बाल कहानियां (2 खण्‍ड, 107 कहानियां, वर्ष-1998)
प्रकाशक-मदनलाल कानोडिया एंड कंपनी (साहित्‍य भंडार), 50, चाहचंद, जीरो रोड, इलाहाबाद-211003)

* एक सौ इक्यावन बाल कविताएं (वर्ष-2003)
प्रकाशक-मदनलाल कानोडिया एंड कंपनी (साहित्‍य भंडार), 50, चाहचंद, जीरो रोड, इलाहाबाद-211003

* तीस बाल नाटक (वर्ष-2003)
प्रकाशक-यश पब्लिकेशंस (साहित्‍य भंडार), 50, चाहचंद, जीरो रोड, इलाहाबाद-211003

* प्रतिनिधि बाल विज्ञान कथाएं (वर्ष-2003)
प्रकाशक-विद्यार्थी प्रकाशन, मुरारीलाल ट्रस्‍ट पाठशाला बिल्डिंग, अमीनाबाद, लखनऊ-226018

* ग्यारह बाल उपन्यास (वर्ष-2006)
प्रकाशक-वर्षा प्रकाशन (साहित्‍य भंडार), 50, चाहचंद, जीरो रोड, इलाहाबाद-211003

* यादराम रसेन्‍द्र की श्रेष्‍ठ बाल कथाएँ (वर्ष-2008)
प्रकाशक-लहर प्रकाशन (साहित्‍य भंडार), 50, चाहचंद, जीरो रोड, इलाहाबाद-211003

* उषा यादव की श्रेष्‍ठ बाल कथाएँ (वर्ष-2012)
प्रकाशक- लहर प्रकाशन (साहित्‍य भंडार), 50, चाहचंद, जीरो रोड, इलाहाबाद-211003

* मो. अरशद खान की श्रेष्‍ठ बाल कथाएँ (वर्ष-2012)
प्रकाशक-लहर प्रकाशन (साहित्‍य भंडार), 50, चाहचंद, जीरो रोड, इलाहाबाद-211003

COMMENTS

BLOGGER: 11
  1. बेनामी7/22/2014 5:05 pm

    Anat kushwaha ke bare me janke achchha laga. danyavad. -Neelesh Verma

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  2. sangeeta balwant7/30/2014 7:06 pm

    wow anant kushwaha ji ke bare me etna kuch jankar accha laga enki ptrika balhansh ne muche bhi lekhikha bna diya ye mere priy aor prernadae lekhakh aor smpadak hai

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  3. आपने बहुत ही सुंदर ढंग से कहािनयो के बारे में बताया है।पुस्तक अवश्य ही अच्छी होगी। बधाई।

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  4. 'बालहंस' बचपन का इश्क़ रही है। अनन्त जी से किस प्रकार सम्पर्क किया जा सकता है?

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    1. उनका काफी समय पहले देहांत हो चुका है।

      हटाएं
  5. अनन्त कुशवाहा जी से किस प्रकार सम्पर्क किया जा सकता है?

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    उत्तर
    1. उनका काफी समय पहले देहांत हो चुका है।

      हटाएं
  6. अनन्त कुशवाहा जो एक उत्कृष्ट कोटि के बाल साहित्य सृजनकार हैं।मैंने बचपन मे बालहंस पत्रिका में आपकी असंख्य बाल कहानियां पढ़ कर आनन्द लिया है ।

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  7. I have grown up reading Balhans and eagerly waiting for the next one as soon as I finished one in hand. It inspired me to be an artist, writer and now a travel photographer. I remember writing stories and sending it to him for publication and in the begining many of them were rejected and returned to me. Being very disappointed, I once wrote a letter to him questioning his judgment. I didn't get a reply but soon after I got my first drawing and story published at the age of 12, many more after that. The best thing abt Balhans was that the content was mostly contributed by children which was extremely inspiring. I still have those old copies from 90s with me. Just Yesterday I shared one of my published drawing from it on my IG page which also reminded me of good old days curated by Mr.Anant Kushwha which prompted me to look for him on internet and I ended up here. I thoughroly enjoyed reading the review of his stories here and could finally relate to the language which I learnt from Balhans which is almost lost in this casual world.I was abt to comment to ask about his contacts when I read your comment about his demise and I felt an inexplicable sadness. May his soul rest in peace. He will always be remembered by all those children whose life was touched by him. I am sorry for the long comment but I'll also take a moment to thank all the beautiful illustrators of 90s Balhans - Anjula, Pratima, Dharampal who made our reading experience even more beautiful, vibrant and at times surreal. Pratima was my favorite and I was lucky to have her illustration on my published stories.
    Thank you Mr Editor for this piece on Mr. Kushwaha. Appreciate it a lot. Wish your book a huge success!
    Nishat @NRtistStudio

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  8. बालहंस मेरी प्रिय पत्रिका रही है।जान कर बहुत दुख हुआ कि अनंत कुशवाहा अब नही रहे । उनकी कहानियों के संकलन के लिए बहुत बहुत आभार।

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आपके अल्‍फ़ाज़ देंगे हर क़दम पर हौसला।
ज़र्रानवाज़ी के लिए शुक्रिया! जी शुक्रिया।।

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हिंदी वर्ल्ड - Hindi World: अनंत कुशवाहा : बाल कहानियों के अद्भुत जादूगर।
अनंत कुशवाहा : बाल कहानियों के अद्भुत जादूगर।
Anant Kushwaha Ki Bal Kahaniyan
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