Dr. Mohammad Arshad Khan Stories in Hindi
मोहम्मद अरशद ख़ान: नई पीढ़ी का सजग प्रहरी!
बाल कहानी की विकास-यात्रा में बीसवीं शताब्दी का अंतिम दशक एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस दौरान बाल कहानियों में जितनी विविधता देखने को मिलती है, वह पहले कभी नहीं रही। इस दौर में जहाँ एक ओर ‘सुमन सौरभ’, ‘नन्हे सम्राट’ की अगुवाई में जासूसी, रहस्य-रोमांच और सामाजिक स्तर पर भंडाफोड़ शैली में कहानियों का प्रकाशन होता है, वहीं ‘नंदन’ विशुद्ध रूप में लोक कथाओं को समर्पित नज़र आता है।
इन दो धुर विपरीत ध्रुवों के अलग ‘बालहंस’ ने एक सर्वथा नए क्षेत्र मनोविज्ञान का अनुसंधान किया।
अपने कुशल संपादन के दौरान यशस्वी संपादक अनंत कुशवाहा ने रचनाकारों की ऐसी जमात तैयार की, जिसने बाल मनोविज्ञान को गहराई से समझा और अपनी रचनाओं में उतारा। ऐसे रचनाकारों में समीरा स्वर्णकार, मोहम्मद अरशद ख़ान, ज़ाकिर अली ‘रजनीश’, अनुकृति संजय, कमलेश पाण्डे ‘पुष्प’, निर्मला लोहार, मोहम्मद साजिद ख़ान, रमाशंकर आदि के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं।
इनमें से कुछ तो ऐसे हैं, जो क़दम-दो क़दम चलकर समय के ग़ुबार में गुम हो गए, पर बहुतेरे ऐसे क़लमकार भी हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी के द्वारा न सिर्फ एक अलख जगाई, वरन साहित्य जगत में एक प्रतिष्ठित स्थान स्थान भी हासिल किया।
इन रचनाकारों में कुछ लेखक ऐसे भी हैं जिन्होंने जितने समर्पण भाव से लेखन कार्य किया, उतनी ही शिद्दत से प्रकाशन आदि में भी रुचि दिखाई। पर ज़्यादातर रचनाकार ऐसे हैं जो आज भी सेवा-भाव से अपनी लेखनी के द्वारा सृजन-कर्म में लीन हैं। न इन्हें लेखकीय शोशेबाज़ियों से कोई मतलब होता है, न साहित्यिक गहमागहमी में रुचि। इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह होता है कि ऐसे रचनाकारों को उचित प्लेटफार्म नहीं मिल पाता है और न ही उनकी साहित्यिक प्रतिभा का समुचित दोहन ही हो पाता है। दुर्योग से मोहम्मद अरशद ख़ान इसी श्रेणी रचनाकार हैं।
बात चाहे कविताओं की हो या फिर कहानियों की, अरशद ख़ान वे रचनाकार हैं, जिन्होंने पूरी शिद्दत से भारतीय जनमानस के बदलते हुए परिवेश को अपनी रचनाओं में उतारा है। जहाँ तमाम रचनाकार आज भी ‘हमको प्यारा लगता गाँव’ की धुन पर नाच रहे हैं, वहीं अरशद ख़ान ने धारा के विपरीत जाते हुए साहस के साथ कहा-
‘‘सूना-सूना-सा लगता है, अब नानी का गाँव।’’
वे इस बात को कहकर कोई शिगूफा नहीं छोड़ते हैं। नानी का गाँव उन्हें सूना-सूना क्यों लगता है, उनके पास इसके जायज़ कारण भी हैं। उन कारणों को गिनाते हुए वे लिखते हैं-
‘‘दूर-दूर तक हरा-भरा जो, फैला था मैदान,
बनवा ली हैं लाला जी ने, वहाँ कई दूकान।
बनकर ठूँठ खड़ा है पीपल, जो देता था छाँव।’’
इन पंक्तियों को यदि गहराई के साथ देखें, तो आज के गाँव की बदली हुई तस्वीर सामने आ जाती है। जो हरा-भरा मैदान कभी बच्चों के खेलने के काम आता था, उस पर लाला जी ने जबरन क़ब्ज़ा करके दूकानें खड़ी कर दी हैं। ज़ाहिर-सी बात है कि ये क़ब्ज़ा यूँ ही नहीं हो गया होगा। इसके पीछे भी एक कहानी रही होगी, जिसमें विरोध, गाली-गलौज, पुलिस-थाना सब कुछ शामिल रहा होगा। यह स्थिति बदले हुए समाज ही नहीं, आदमी की बदली हुई सोच को भी उद्घाटित करती है।
गाँवों में भी हमारी संस्कृति का क्षरण किस तरह हो रहा है और स्वार्थ किस तरह मनुष्यता पर हावी हो गया है, उपरोक्त पंक्तियाँ इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। यही कारण है कि गाँवों में जो पीपल भगवान की तरह पूजा जाता था, लोगों ने उसकी डालें तक काट डाली हैं। आज की तारीख़ में वह ठूँठ भर बचा है। और जब गाँव के पूज्य पीपल का यह हाल है, तो बाक़ी पेड़ों की दशा क्या होगी, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। फिर कैसी पुरवाई, कैसी अमराई? ऐसे में गाँव का सूना-सूना लगना लाज़िमी है।
श्रेष्ठ साहित्य जहाँ एक ओर समाज के दर्पण की भाँति काम करता है, वहीं मानवीय संवेदनाओं को बचाए रखने, उन्हें अभिसिंचित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हालाँकि एक लेखक की क़लम में यह तेवर अनुभव के तवे पर ख़ूब तपने के बाद ही दृष्टिगोचर होते हैं, पर अरशद ख़ान ने बहुत अल्प काल में वह परिपक्वता हासिल कर ली है। यह गांभीर्य उनकी तमाम कहानियों में देखा जा सकता है।
अरशद ख़ान ने बाल मनोविज्ञान के स्तर पर अनेकानेक प्रयोग किए हैं। ये प्रयोग बाल मन की परतों को बड़े सहज रूप में पाठकों के समक्ष रखते हैं और एक नई दुनिया का दीदार कराते हैं। ‘किराए का मकान’ एक ऐसा ही प्रयास है। मानवीय संवेदनाओं और बाल मनोविज्ञान के सम्मिलन से निर्मित यह एक उत्कृष्ट रचना है। एक अनुभवजन्य सोच किसी साधारण से विषय को भी किस प्रकार उरूज पर ले जाती है, यह इस कहानी को पढ़कर जाना जा सकता है।
बच्चे वास्तव में क्या हैं, यह आज तक कोई भी पूरी तरह नहीं समझ सका है। उनकी अपनी अलग एक दुनिया है, अपनी समझ है और अपनी सोच है। यह सोच कब किस ओर मुड़ जाए, कौन-सा रूप अख़्तियार कर ले, यह तय रूप में नहीं कहा जा सकता है। पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि जब वे हवा को पकड़ने को लालायित होते हैं, तो ‘हवा का रंग’ दिखता है, जब वे छोटी-सी समझ के द्वारा बड़ा काम करने का बीड़ा उठाते हैं, तो ‘भूल गई शन्नो’ का प्रश्न उठता है और जब वे अपने नाम की गहराई में उतर जाते हैं, तो ‘मेरा नाम अब्दुल’ का सृजन होता है।
बच्चे समझदार होते हैं, बच्चे बुद्धिमान होते हैं, बच्चे आज्ञाकारी भी होते हैं, पर वे धैर्य के मासमले में हमेशा पीछे रह जाते हैं। चाहे कहीं जाने की बात हो या फिर कुछ खाने की, उनसे धीरज नहीं धरा जाता। सब कुछ उन्हें फटाफट चाहिए होता है। लेकिन जब न चाहते हुए भी उन्हें किसी चीज़ का इंतज़ार करना पड़ जाए, तो उनके दिल का क्या आलम होगा? वह प्रतीक्षा उसके अम्मा-बापू की हो तब? पर प्रतीक्षा तो प्रतीक्षा ही होती है, वह तो करनी ही पड़ती है। लेकिन वह किसी बच्चे पर कितना भारी पड़ती है, ‘प्रतीक्षा’ में इसकी झलक स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।
यह अधीरता ही है जो पाठक को कहानी के साथ बाँधे रखती है। ‘आगे क्या होगा’ की जिज्ञासा जितनी प्रबल होती है, कहानी की सफलता की संभावना उतनी ही अधिक होती है, बशर्ते कि वह आगे चलकर फुस्स न हो जाए। फैंटेसी का टच देती कहानी ‘सच होते-होते’ और बाल कल्पना की ज़बरदस्त उड़ान ‘नाना का घर’ इसके सफल उदाहरण हैं।
‘सच होते-होते’ एक हास्य कहानी है, जो छोटे-से वहम के कारण बिन बुलाए बादलों की तरह हास्य रस बरसाती है। कहानी की बुनावट ऐसी है कि उसके ख़त्म होने पर ख़ुद-ब-ख़ुद एक छोटी-सी मुस्कान होठों पर तैर जाती है। जबकि ‘नाना का घर’ एक बच्चे की कल्पना की बेतरतीब उड़ान से सजाई गई है, जिसका आनंद तभी आ सकता है, जब पाठक स्वयं बच्चा बन जसए।
सामान्यतः यह देखा जाता है कि जो रचनाएँ किसी विचार को केंद्र में रखकर रची जाती हैं, उनका कलापक्ष उतना सशक्त नहीं होता, जितना कि अन्य स्वतः स्फूर्त कहानियों का। लेकिन अरशद ख़ान इसके अपवाद के रूप में सामने आते हैं। जब भी कोई पाठक ‘लौट आया गिरधर’, ‘और वह गूँगा हो गया’, ‘हज़ार हाथोंवाला’, ‘ईंटों का जंगल’, ‘जंग जारी है’, ‘बवंडर’ और ‘पानी-पानी रे’ से होकर गुज़रता है, एक आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता उसकी प्रतीक्षा में रत मिलती है। यह एक विलक्षण संयोग है, जो कम घटित होता है। इसलिए इसकी जितनी प्रशंसा की जाए, वह कम है।
मानवीय संबंधों के बीच की ऊष्णता को पहचानना और उसे बचाए रखना साहित्य का एक घोषित लक्ष्य है। हालाँकि बदलते वक़्त की मार अगर किसी चीज़ पर सबसे ज़्यादा पड़ी है, तो वे मानवीय संबंध ही हैं। काल का प्रभाव आज कुछ ऐसा है कि व्यक्ति अपने क्षुद्र से क्षुद्र स्वार्थ के लिए भी रिश्तों का गला घोटने में संकोच नहीं करता है। लेकिन इस कठिन समय में भी ऐसे लोग हैं जो न सिर्फ पूरी शिद्दत के साथ इन संबंधों के साथ जी रहे हैं, बल्कि उसके लिए अपनी जान की बाज़ी लगा देने में भी नहीं हिचकते। इसी जोश, इसी अपनत्व से सराबोर है, ‘लौट आया गिरधर’, जिसमें मानवीय संबंधों की ऊष्णता, साहस और और रोमांच के दर्शन एक साथ होते हैं।
अरशद ख़ान उन रचनाकारों में हैं, जो ज़मीर से जुड़े हुए मुद्दों की बात करते हैं। वे सामाजिक स्थितियों पर पैनी नज़र रखते हैं, विद्रूपताओं पर प्रहार करते हैं, पर दुर्बल के पेट की आग की तपिश के आगे बेबस हो जाते हैं और वह सब कर जाते हैं, जो उनकी सोच के खिलाफ़ है। ‘और वह गूँगा हो गया’ एक ऐसे मदारी की कहानी है, जो जादू दिखाकर अपने परिवार को जिलाता है। कहानी का पात्र ऐसे ढोंगियों से बहुत नफ़रत करता है। वह मदारी के जादू की पोल खोलने की ग़रज़ से उसे चुनौती देता है। लेकिन जब मदारी की आँखों में उपजे याचना के भावों को पढ़ता है तो, अपनी हार क़ुबूल कर लेता है। इस हार में भी जीत का एहसास है, जो पाठक को अंदर तक भिगो जाती है। निस्संदेह हिंदी में ऐसी कहानियाँ कम देखने को मिलती हैं।
समय के साथ चलना और उसके परिवर्तनों को अपनी पारखी दृष्टि से परखते रहना एक चुनौतीपूर्ण और अपरिहार्य लेखकीय दायित्व है। अरशद ख़ान इस दायित्व से भली-भाँति परिचित रहनेवाले रचनाकार हैं। वे जब समाज में फैलती उपभोक्तावादी संस्कृति और सुविधाभोगी हाने की ललक को देखते हैं, तो स्वाभाविक रूप से चिंतित हो बैठते हैं और इस दुष्चक्र से समाज को आगाह करने के लिए क़लम का सहारा लेते हैं। ‘ईंटों का जंगल’ उनकी इसी सजगता का प्रमाण है।
परिवर्तन कोई भी हो, वह बेवजह नहीं होता। उसके पीछे कुछ ऐसे महत्वपूर्ण कारक छिपे होते हैं, जिनकी मनुष्य उपेक्षा करता चलता है। और जब ये कारक अपनी हद पार कर जाते हैं, तो उसके बाद तूफ़ान का आना लाज़मी हो जाता है। ये तूफ़ान मानवीय और प्राकृतिक दोनों तरह का हो सकता है। लेकिन इसका परिणाम है सिर्फ और सिर्फ बरबादी। अरशद ख़ान ने इस बरबादी का प्रभावपूर्ण आकलन ‘जंग जारी है’ और ‘बवंडर’ के माध्यम से प्रस्तुत किया है। वे तूफ़ान की स्थितियों का बयान तो करते ही हैं, उसके गुज़रने के बाद फिर से पुनर्निमाणा की प्रेरणा भी देते हैं। यही इन रचनाओं की सार्थकता है और यही इनका मकसद।
अरशद ख़ान उन रचनाकारों में हैं, जिनकी रचनाओं में धरती की सोंधी महक रची-बसी हुई है। वे इस धरती को माँ की तरह प्यार करते हैं। यही कारण है कि उस पर आनेवाली विपदाएँ-समस्याएँ गाहे-बगाहे उनकी रचनाओं का विषय बनती रहती हैं।
यदि इस सदी की सबसे बड़ी समस्या का आकलन किया जाए, तो निस्संदेह इस खोज का ताज ‘पानी’ के सिर ही रखा जाएगा। धरती से वृक्षों का सफाया और ‘ग्रीन हाउस’ प्रभाव के कारण जिस तरह से सम्पूर्ण धरती से जल-स्रोत विलुप्त होते जा रहे हैं, उससे लगता है कि आनेवाले दिनों में पानी सम्पूर्ण विश्व की ज्वलंत समस्या बनने जा रहा है।
एक ज़िम्मेदार लेखक होने के नाते अरशद ख़ान उस संभावित ख़तरे से पूरी तरह बाख़बर हैं। और इसी ख़बरदार रहने की प्रवृत्ति का सुफल है ‘पानी-पानी रे’। अपनी कलात्मकता और तारतम्य के कारण यह एक सार्थक रचना बन पड़ी है। ‘जल ही जीवन है’ वाली परिभाषा संभवतः ऐसी ही किसी कहानी को पढ़ने के बाद गढ़ी गई होगी।
बड़े रचनाकार की सिर्फ़ यह पहचान नहीं होती कि वह महत्वपूर्ण विषयों पर अपनी क़लम चलाए, बल्कि बड़ा रचनाकार वह होता है, जो अति सामान्य विषय का भी स्पर्श करे, तो वह महत्वपूर्ण बन जाए। अरशद ख़ान एक ऐसे ही रचनाकार हैं। एक ओर वे बाल मनोविज्ञान के उत्स पर होते हैं, दूसरी ओर जंग और पानी जैसे गंभीर मसलों के साथ पूरी प्रतिबद्धता से खड़े नज़र आते हैं। लेकिन इन सबके बीच सामाजिक जकड़न उनके मस्तिष्क में बराबर कौंधती रहती है। इसलिए वे क़स्बाई समाज के बेहद जाने-पहचाने चरित्रों की बात करते हैं। ये किरदार जब उनकी लेखनी का स्पर्श पाते हैं, तो वे ‘सुल्तान’ के रूप में हमारे सामने आते हैं और जब ऐसे कई चरित्र एक साथ जमा हो जाते हैं, तो ‘जन्नत’ का निर्माण होता है।
‘सुल्तान’ और ‘जन्नत’ दो ऐसी कहानियाँ हैं, जो अरशद ख़ान के लेखन की गहराई और सामाजिक समझ को बहुत अच्छे ढंग से बयां करती हैं। निःसंदेह इन दोनों कसौटियों पर वे खरे उतरते हैं।
अंत में दो महत्वपूर्ण और ख़ूबसूरत कहानियों की चर्चा। ये कहानियाँ हमारे समाज का आईना हैं। हमारे समाज की संरचना कैसी है, क्या वह समय के साथ बदल रहा है? और अगर वह बदल रहा है, तो कितना? यह जानने के लिए ‘गुल्लक’ और ‘धुँधला आसमान’ को पढ़ना ज़रूरी है।
दोनों ही कहानियों में मुख्य पात्र लड़कियाँ हैं, जिन्होंने हाल ही में किशोरावस्था की दहलीज पर क़दम रखा है। इनमें से एक रूढ़िवादी मुस्लिम परिवार से संबंध रखती है, तो दूसरी किसी निम्न हिंदू जाति से। एक लड़की किसी क़स्बे की रहनेवाली है तो दूसरी किसी बज्जर देहात की। दोनों में समानता यह है कि उनके परिवार की आर्थिक स्थितियाँ बेहद ख़राब हैं। बावजूद इसके दोनों लड़कियाँ सपने देखती हैं। फ़र्क़ सिर्फ इतना है कि एक लड़की पढ़-लिखकर अपना नाम कमाना चाहती है, तो अपने परिवार के लिए कुछ करना चाहती है। एक लड़की सीमित साधनों के बावजूद जी-तोड़ मेहनत करके इंटर की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण करती है, तो दूसरी माँ-बाप की झिड़कियाँ सुनने के बाद भी खेतों में काम करती है और उससे मिलनेवाले पैसों से अपनी मन-मर्जी की चीज़ों के साथ-साथ बापू के लिए एक अच्छा-सा कुर्ता, माँ के लिए एक सुंदर-सी धोती लेना चाहती है। पर आश्चर्यजनक रूप से दोनों लड़कियों को जबरन उनके ससुराल भेज दिया जाता है।
ये दोनों कहानियाँ हृदय को छूती ही नहीं अंदर तक बेध देती हैं। दोनों कहानियों के कथ्य एक हैं, पीड़ा एक है। ये कहानियाँ बताती हैं कि हर धर्म हर जाति में लड़कियों की स्थिति एक-सी है। ये कहानियाँ हमारे सामने बहुत सारे सवाल खड़े करती है। ये सवाल किसी व्यक्ति विशेष से ताल्लुक नहीं रखते, बल्कि संपूर्ण समाज को कटघरे में खड़ा करते हैं।
लेखक ने ‘गुल्लक’ के चरित्र निलमिया के बहाने जिन सवालों को उठाया है, वे हमारे समाज के ज्वलंत मुद्दे हैं, और गंभीर विमर्श की मांग करते हैं। इनसे जूझे बिना स्वस्थ समाज का निर्माण करना नामुमकिन है।
बालकथा के सौंदर्यशास्त्र की दृष्टि से भी ‘गुल्लक’ एक उत्कृष्ट रचना है। लेखक ने निलमिया का जो चरित्र गढ़ा है, वह अद्भुत है। भले ही निम्न श्रेणी के परिवार में जन्म के कारण उसका लालन-पालन ठीक ढंग से न हो पाया हो, भले ही उसने शिक्षा-दीक्षा का नाम तक न सुना हो, पर उसके बावजूद उसका व्यक्तित्व एक ग़ज़ब की आभा से सुशोभित है। उसके भीतर एक ऐसा चुंबकीय आकर्षण है, जो किसी भी पाठक को बाँध लेता है।
हिंदी बाल कथा साहित्य में ज़मीन से जुड़े पात्र कम देखने को मिलते हैं। निस्संदेह अरशद ख़ान जैसे रचनाकार की क़लम से ही ऐसे प्रभावशाली चरित्र की सर्जना संभव थी। निलमिया के चरित्र और लेखकीय प्रतिभा दोनों को एक साथ समझने में यह पैरा काफी मदद करता है-
‘‘लात-मुक्के खाकर भी निलमिया के मुँह से उफ तक न निकली। उसका शरीर ज़रूर पीड़ित था, पर मन हिलोरें ले रहा था। उसका मन टपकते छप्पर, सीलन भरी दीवारों और किचकिच हो गई ज़मीनवाले घर से दूर किसी सुख के संसार में टहल रहा था। उसे पीटकर माँ-बापू भले ही आत्मग्लानि में बैठे थे, पर वह बिल्कुल भी उदास न थी। उसके मन में लाल रंगवाली सैंडिल, फूलोंवाली हरी ओढ़नी, नाखून रँगनेवाली पालिश और रामभरोसे की चाट के दोने घूम रहे थे। उसे लग रहा था अब उसका क़द बढ़ता जा रहा है और वह बढ़कर पारिजात के उस फूल को छू लेनेवाली है, जिसे देखने मात्र से मनोकामनाएँ पूरी हो जाती हैं।’’ (गुल्लक)
अरशद ख़ान उन रचनाकारों में से एक हैं, जो सामाजिक जुड़ाव के साथ बाल मन की गहराइयों के कुशल पारखी हैं। वे अपनी रचनाओं में बाल मनोविज्ञान की अतल गहराइयों से ऐसे-ऐसे मनके चुनकर लाते हैं कि पढ़नेवाला चमत्कृत हुए बिना नहीं रह पाता। ऐसे ही दो उदाहरण दृष्टव्य हैं-
‘‘सूरज सिर पर आ गया था। पेड़ों से छन-छनकर चितकबरी धूप ज़मीन पर आलेखन सजा रही थी। मिूट्टी का घरौंदा चमक उठा था। काँच की हर गोलियों पर जैसे सूरज आ बैठा था। मेरे हृदय में टीस-सी उठी। मैं सोचने लगा, ‘कल मैं भी इस मकान को छोड़कर कहीं दूर चला जाऊँगा। फिर कोई नया किराएदार आएगा। शायद सौरभ जैसा भोला-भाला, स्नेहा जैसी मासूम बच्ची या फिर मेरे जैसा ही कोई। यहाँ की दीवारें, यहाँ के पेड़, यहाँ के महकते फूल, शायद हमारी याद दिला सकें।’’ (किराए का मकान)
‘‘अब्दुल अपना शरीर झाड़कर उठ खड़ा हुआ और चौकन्नी निगाहों से इधर-उधर देखने लगा। तभी हवा सरसराती हुई उसके कानों के पास से गुज़री। उसके बालों में फँसे दो-एक पत्ते लहराकर दूर जा गिरे। अचानक हवा उसकी कमीज़ में घुस गई। कमीज़ एक पल को फूलकर गुब्बारा हो गई। अब्दुल को लगा अब हवा पकड़ में आ गई। पर अगले ही पल हवा कमीज़ से निकल भागी और कमीज़ फिर से फुस्स हो गई।’’ (हवा का रंग)
कल्पना का धनी होना अच्छी बात है, बालमन की समझ लेखकीय आवश्यकता है, भाषा पर पकड़ होना रचनाकार की ज़रूरत है और सामाजिक उत्तरदायित्वों की समझ होना आवश्यक बात है। और इन सबको एक में गूँथकर एक परिपक्व रचना तैयार करना क़ाबिले तारीफ बात है। ऐसे रचनाकार कम होते हैं अरशद ख़ान संयोग से ऐसे ही रचनाकार हैं।
वे उम्र से भले ही युवा हों, पर अपने कर्म से बड़े रचनाकार हैं। एक तरह से कहा जाए तो वे नई पीढ़ी के सजग प्रहरी के समान है। जिसे बाल साहित्य की ध्वजा लेकर आगे-आगे चलना है।
अपनी बात समाप्त करने से पहले मैं उनकी कहानी 'बवंडर' की अंतिम पंक्तियाँ सामने रखना चाहूँगा जो निम्नवत हैं-
‘‘सब अपनी-अपनी राय रख रहे थे, पर सकनू दादा ख़ामोश थे। उनकी आँखें लगभग ढह चुके अपने घर पर जमी थीं। थोड़ी देर देखने के बाद वह लंबी साँस खींचकर बोले, ‘यह बवंडर नहीं था। हमारे साहस और धैर्य का परीक्षक था। हम इस परीक्षा में हारेंगे नहीं। हम फिर उठ खड़े होंगे। हम फिर घर बनाएँगे, उसे फिर से सजाएँगे।' यह कहकर उन्होंने हुक्के के अंगारों पर राख हटाई और दम भरा तो अंगारे लहक उठे और उसकी चमक से चेहरा दमक उठा।’’
मोहम्मद अरशद ख़ान बाल साहित्य जगत में इन्हीं लहकते हुए अंगारों के समान हैं। वे सिर्फ सामाजिक विसंगतियों पर वार ही नहीं करते आशा की नई किरण भी दिखाते हैं। उनकी क़लम का यह तेज अधिक से अधिक पाठकों के मन को आलोकित करे मेरी यही कामना है।
(पुस्तक 'मो. अरशद खान की श्रेष्ठ बाल कथाएं' की भूमिका)
पुस्तक: मोहम्मद अरशद खान की श्रेष्ठ बाल कथाएं
सम्पादक: डॉ. जाकिर अली रजनीश
संग्रहीत कहानियां: किराए का मकान, हवा का रंग, भूल गई शन्नो, मेरा नाम अब्दुल, प्रतीक्षा, सच होते-होते, नाना का घर जादू-मंतर, लौट आया गिरधर, और वह गूंगा हो गया, ईंटों का जंगल, हजार हाथों वाला, जंग जारी है, बवंडर, दादी की बीमारी, पानी-पानी रे, सुल्तान, जन्नत, धुंधला आसमान, गुल्लक
प्रकाशक: लहर प्रकाशन (साहित्य भंडार), 778, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद, मोबाइल-094152 14878
मूल्य: 250.00
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* एक सौ इक्यावन बाल कविताएं (वर्ष-2003)
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सबसे पहले तो उत्कृष्ट लेखन व पुस्तक प्रकाशन के लिये अरशद जी को बहुत बहुत बधाई । और इन रचनाओं को प्रकाश में लाने व इतनी बढिया समीक्षा कि कोई भी पढने के लिये उत्सुक होजाए, के लिये आपको भी ...।
जवाब देंहटाएंबाल साहित्य में जितना लिखा जाये प्रशंसायोग्य है, मेरी ओर से ढेरों शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंएक अछि सोच… plz do read radheylalmodi.blogspot.in
जवाब देंहटाएंकालक्रमिक हेाता तेा अैार अच्छा हेाता
जवाब देंहटाएंapne es sundar raste par aap nirantar calte rahe
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