'धर्म का संबंध इससे नहीं है कि आप उसमें विश्वास करते हैं या नहीं करते। वह आपका विश्वास नहीं, आपका श्वास-प्रश्वास हो, तो ही सार्थक ह...
'धर्म का संबंध इससे नहीं है कि आप उसमें विश्वास करते हैं या नहीं करते। वह आपका विश्वास नहीं, आपका श्वास-प्रश्वास हो, तो ही सार्थक है। वह तो कुछ है- जो आप करते हैं या नहीं करते हैं- जो आप होते हैं, या नहीं होते हैं। धर्म कर्म है वक्तव्य नहीं।'-ओशो
मनु ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं:
धृति क्षमा दमोस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो , दसकं धर्म लक्षणम ॥
( धैर्य , क्षमा , संयम , चोरी न करना , शौच (स्वच्छता), इन्द्रियों को वश मे रखना , धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो , दसकं धर्म लक्षणम ॥
बुद्धि , विद्या , सत्य और क्रोध न करना ; ये दस धर्म के लक्षण हैं।)
जो अपने अनुकूल न हो वैसा व्यवहार दूसरे के साथ न करना चाहिये - यह धर्म की कसौटी है।
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रूत्वा चैव अनुवर्त्यताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि , परेषाम् न समाचरेत् ॥
आत्मनः प्रतिकूलानि , परेषाम् न समाचरेत् ॥
पर आज धर्म का रूप कितना विकृत हो गया है, यह हमें पग-पग पर देखने को मिल जाता है। अभी एक सप्ताह पहले की बात है। इस दीपावली में मुझे अपनी ससुराल गोरखपुर जाना पड़ा। वहाँ पर घण्टाघर के पास मेरे एक साहित्यिक मित्र भी रहते हैं। उनसे मिलने के लिए जब मैं रविवार को दोपहर को उनके घर पहुंचा, तो पाया कि उनके पड़ोस में कोई सज्जन लक्ष्मी माँ का पांडाल लगा कर देवी का आवाहन कर रहे थे। दीपावली के अवसर पर देवी माँ का इस तरह से आवाहन करना गोरखपुर की एक जानी-मानी परम्परा है, जिसमें सड़क पर तम्बू-कनात लगाकर देवी को प्रतिष्ठित किया जाता है और उसमें हजार-हजार वाट के साउंड बॉक्स लगाकर 24 घण्टे सारे मोहल्ले को एक सप्ताह गुंजाया जाता है। (जाहिर सी बात है कि भला मुस्लिम कहां इस मामले में चूकने वाले हैं, इसलिए वे मोहर्रम में पूरे दस दिन धमाल मचा कर इसका “बदला” ले लेते हैं।)
चूंकि यह आयोजन मित्र के घर के ठीक बगल में हो रहा था, इसलिए जैसे ही इस प्रसंग पर बात चली, वे फट पड़े। बोले- इन सालों को हजार बार समझाया, मगर मूढ़ों को धर्म का मतलब कैसे समझ में आए? दूसरों को परेशान करना ही अपना सबसे बड़ा धर्म समझते हैं। मेरे मित्र अम्बेडकरवादी विचारधारा को मानते हैं। उन्होंने बात को आगे बढ़ाते हुए जोड़ा- इन सबका एक ही उपाय है कि अम्बेडकर जयन्ती के दिन इनके दरवाजे पर आठ-आठ ऐसे साउंड बॉक्स लगाओ और चार दिन बजाओ। तब सालों की अक्ल ठिकाने आएगी।
मित्रवर का अन्तिम वाक्य सुनकर मैं सोच में पड़ गया। क्या इस प्रवृत्ति को बढ़ाने के पीछे यही “बदले” की भावना नहीं काम कर रही है? शायद यही कारण है कि वहाँ पर चाहे हिन्दू धर्म का कोई त्यौहार हो अथवा मुस्लिम धर्म का, इस तरह के आयोजन साल दर साल बढ़ते ही जा रहे हैं। और आश्चर्य का विषय यह है कि इसका अंजाम भी उन्हें ही भोगना पड़ता है, मानसिक तनाव, चिड़चिड़ाहट, हृदय और श्रवण सम्बंधी समस्याओं के रूप में। लेकिन उन्हें समझ में आए तब तो?
इस प्रवृत्ति का एक दूसरा रूप है सड़कों पर निकलने वाले धार्मिक जुलूस। (योगी जी की कृपा से पूरा पूर्वांचल इनकी चपेट में है।) अगर आप इस तरह के किसी जूलूस के रास्ते में आप गल्ती से आ गये, तो भलाई इसी में होती है कि आप अपना रास्ता बदल लें, फिर चाहे अस्पताल पहुंचने से पहले आपका दम निकल जाए, अथवा आपकी कोई इम्पार्टेन्ट ट्रेन ही क्यों न छूट जाए।
धर्म के इस विकृत होते रूप को देखकर कभी-कभी मेरे मन में मेरे एक नास्तिक मित्र (वैसे धर्म की इन विकृतियों को देखकर अपने आपको नास्तिक कहना मुझे भी अच्छा लगने लगा है) का कथन अक्सर दिमाग में गूंज उठता है। उसका सवाल था- विकृत धर्म और बिगड़ैल साँड़ में कौन ज्यादा खतरनाक होता है?
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Both are equally danger.
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Shayad kaii mamalon men vikrit dharm jyada khatarnak hai.
Bigrail sand ko to chaho to golii se uda do. Vikrit dharm ko goli kaise maren?????
परेशानी होती तो है लेकिन क्या करें , बस सब एक दूसरे को पिछाड़ने में लगे हुए हैं और बीच में हमारे आप जैसे लोग फंस जाते हैं । इन्हे सुधारने का कोई उपाय हो तो बताइयेगा ।
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