पिछली पोस्ट ' क्या आप शुद्ध शाकाहारी हैं' पर आई हुई टिप्पणियों के क्रम में। किसी पाश्चात्य विचारक ने कहा है कि हर व्य...
पिछली पोस्ट 'क्या आप शुद्ध शाकाहारी हैं' पर आई हुई टिप्पणियों के क्रम में।
किसी पाश्चात्य विचारक ने कहा है कि हर व्यक्ति का अपना एक 'कम्फर्ट जोन' होता है। प्रत्येक व्यक्ति उस 'कम्फर्ट जोन' के भीतर रहकर ही सारे क्रिया कलाप करता है। न तो उससे ऊपर की चीजें और न ही उससे नीचे की चीजें उससे बर्दाश्त हो पाती हैं। इसीलिए या तो वह उनकी कटु आलोचना करने लगता है या फिर उन्हें (अपने कम्फर्ट जोन से इतर चीजों को) बकवास, गूढ़मगज, पागलपन (उसकी डिक्शनरी में जो भी शब्द उपलब्ध हो) करार देता है।
इसे समझने के लिए मांसाहार से इतर का एक उदाहरण देखें। यदि आप सरकारी कार्यालयों में जाते हों, तो आपको अंदाजा होगा कि वहॉं के अधिकारी का पद जितना बढ़ता जाता है, उसकी मेज का आकार उतना बढ़ता जाता है। अर्थात वह व्यक्ति स्वयं से मिलने आने वाले व्यक्तियों से अपनी दूरी पोस्ट के अनुपात में बढ़ाता जाता है। उस दूरी से बात करना उसे बेहद सुरक्षित और सहज लगता है। लेकिन जैसे ही कोई व्यक्ति उस घेरे को तोड कर उसके नजदीक पहुंच जाता है, वह असामान्य हो जाता है और असहज व्यवहार करने लगता है।
अब आते हैं मांसाहार पर।
मांसाहार क्या है, इसपर कोई एक राय नहीं है। जो व्यक्ति जिस वातावरण और परिवेश में रहता है, वह उसके अनुसार मांसाहार के सम्बंध में अपनी धारणा बना लेता है। जैसे मांसाहार के सम्बंध में सब्जियॉं और अण्डा मेरा कम्फर्ट जोन हैं। इसमें रहकर मैं अपने आप को सहज महसूस करता हूँ। अण्डा से मुझे दिक्कत नहीं होती। जबकि मुझसे ऊपर की श्रेणी के लोग अण्डे को मांसाहार की श्रेणी में मानते हैं। वे अण्डे का छिलका छू जाने पर भी पाप हो जाने जैसे प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं और केक आदि से भी परहेज करते हैं। इसके विपरीत मुझसे नीचे (सिर्फ कहने के लिए, नीचे से आशय निम्न कत्तई नहीं है) की श्रेणी के लोग भी हैं, जैसे जैन आदि, जो भोजन में आ गये जीवाणुओं को जीवित जानवर की तरह ही मानते हैं और जिस भोजन में जीवाणु पनप जाते हैं, उसे मांसाहार की श्रेणी में गिनते हैं। (जबकि रचना जी ने अपनी टिप्पणी में बताया है कि जापान में मछली को और बैंकॉक में गाय के मांस को भी शाकाहार माना जाता है)। मेरी पिछली पोस्ट को प्रकाशित भी उद्देश्य यही था, अर्थात भोजन के कम्फर्ट जोन को बताना।
अब सवाल यह है कि इनमें सही कौन है। देखने में यह सवाल भले ही सामान्य सा हो, पर इसका कोई एक जवाब नहीं हो सकता। क्योंकि हर व्यक्ति अपने कम्फर्ट जोन के हिसाब से ही इस प्रश्न का उत्तर देगा, और यह उचित भी है। इस हिसाब से हर व्यक्ति का जवाब सही होना चाहिए। लेकिन ऐसा होता नहीं है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने कम्फर्ट जोन में आने वाली चीजों को न सिर्फ सही मानता है, बल्कि उससे इतर की सभी चीजों को गलत मानता है उन्हें हिकारत की दृष्टि से देखने लगता है। यहॉं तक कि उस सम्बंध में बात चलने पर वह स्वयं को सही (और दूसरों को गलत) सिद्ध करने के लिए बहस-मुबाहसे से लेकर गाली-गलौज तक पर उतर आता है। यही सब कुछ ब्लॉग जगत में चल रही इन दिनों मांसाहार से सम्बंधित तमाम पोस्टों में भी देखा जा सकता है। अब आप पूछोगे कि इसका सल्यूशन क्या है। तो इसका सीधा सा जवाब तो स्वयं आप सबमें से कई लोगों ने दिया है कि आपका जो मन करता है खाओ, बस दूसरों को न गरियाओ। (यहॉं पर चिपलूनकर जी और रचना जी को आपत्ति होगी। लेकिन आप लोग थोड़ा धीरज धरे, मैं आपकी बात पर भी आता हूँ, पहले उससे पहले की कई जरूरी चीजें क्लियर कर दूँ।)
लेकिन अपने स्वाद के लिए जीवों की हत्या तो पाप है?
अगर गहराई से देखा जाए तो पाप और पुण्य की अवधारणा पर भी कम्फर्ट जोन वाला सिद्धांत हुबहू लागू होता है। क्योंकि एक धर्म में जो चीजें पाप हैं, दूसरे में वे चीजें पाप नहीं हैं। इसका सीधा सा अर्थ यही है कि जो धर्म जिस क्षेत्र में अवतरित/प्रचलित हुआ, उसमें वहॉं की भौगोलिक स्थितियों के अनुसार पाप और पुण्य की अवधारणाऍं तय कर दी गयीं। यही कारण है कि जहां इस्लाम में मांसाहार को बुरा नहीं माना गया, वहीं अन्य तमाम धर्मों में मांसाहार को पाप की श्रेणी में रखा गया है। जैन धर्म इसका एक्स्ट्रीम उदाहरण है, जहॉं पर पाप की अवधारणा विकसित करते समय जीवाणुओं का भी ख्याल रखा गया है। अब अगर हमारे कम्फर्ट जोन में कोई सिद्धांत फिट नहीं बैठता है, तो इसका मतलब ये कत्तई नहीं हो जाता कि हम दूसरे की कम्फर्ट जोन की परवाह किये बिना उसे गरियाना शुरू कर दें। (चिपलूनकर जी, रचना जी अभी आप थोड़ा धीरज और धरें।)
(हो सकता है कुछ लोगों को मेरी इन बातों से मांसाहार के समर्थन की गंध आ रही हो। ऐसे लोंगों से मैं निवेदन करना चाहूँगा कि वे पूरी बात समाप्त होने से पहले किसी नतीजे पर न पहुँचें।)
अब आते हैं पाप पुण्य से इतर मांसाहार के औचित्य पर।
जैसा कि नीरज गोस्वामी जी ने लिखा कि दुनिया में मनुष्यों की 80 प्रतिशत आबादी मांसाहार के भरोसे ही जीवित है। सिर्फ 20 प्रतिशत ही ऐसे हैं, जो शाकाहारी हैं। अब यदि 80 फीसदी लोगों से यह कहा जाए कि वे मांसाहार छोड्कर शाकाहार करने लगें, तो यह कैसे सम्भव होगा। अगर यहॉं पर उनकी रूचि और स्वाद को भी दरकिनार कर दिया जाए, तो भी उन 80 फीसदी लोगों के लिए अन्न उगाने के लिए हमें फिलहाल चार और पृथ्वियों की आवश्यकता होगी। ऐसे में जब दुनिया की 80 फीसदी आबादी के लिए खाने के लिए सब्जियां हैं ही नहीं, तो फिर वे खाऍंगे क्या। और अगर हम किसी कानून अथवा नैतिकता का दण्ड दिखाकर उन्हें शाकाहारी बनने के लिए मजबूर भी कर दें, तो आप सोचिए कि बाजारों में सब्जियों की क्या पोजीशन होगी। अभी 20 रूपये प्रति किलो वाली लौकी उस समय किस रेट में बिकेगी, आप अंदाजा लगा सकते हैं। (लेकिन शायद तब भी हमारे चिपलूनकर भाई उस मंहगाई के लिए कांग्रेस को ही जिम्मेदार ठहराऍं :) )
तो जब यह बात स्पष्ट है कि दुनिया में 80 फीसदी लोगों के लिए शाक सब्जियॉं उपलब्ध ही नहीं हैं, तो फिर अगर वे मांसाहार न करें तो क्या करें। शाकाहार के प्रति रूढि़वादी दृष्टिकोण रखने वाले लोगों के लिए इस प्रश्न पर विचार करना अनिवार्य है।
बलि वध से पहले उससे भी एक जरूरी सवाल: क्या आपको लगता है कि जो 20 प्रतिशत लोग शाकाहारी दिखते/दिखाते हैं, वे वास्तव में शाकाहारी हैं?
अगर आप इस भ्रम में हैं, अपने दैनिक जीवन में शाक सब्जी खाकर जीने वाले ये लोग पूरी तरह से शाकाहारी हैं, तो शायद आप अभी तक भ्रम में है। यदि आप गहराई से देखें, तो आपको पता चलेगा कि इन 20 प्रतिशत लोगों में बहुत से ऐसे हैं, मंहगाई के कारण स्वयं तो मांस खरीद कर नहीं खाते हैं, किन्तु किसी दावत में मौका मिलने पर बोटी नोचने से पीछे नहीं रहते हैं। इनमें से बहुत से लोग ऐसे भी हैं, जो खुले तौर पर तो मांसाहार की आलोचना करते हैं, लेकिन किसी मांसाहारी दावत में पहुंचने पर छिपकर हड्डियॉं नोचते पाए जाते हैं। इनमें से बहुत से लोग ऐसे भी हैं, जो खुद तो प्याज और लहसुन तक नहीं खाते हैं, लेकिन उनके लड़के मीट और मछली शौक से खाते हैं। तो सवाल यह है कि क्या ऐसे लोगों को शाकाहारी माना जाए। और अगर इन लोगों को शाकाहारी नहीं माना जाएगा, तो फिर मेरी समझ में विश्व में मांसाहारियों की संख्या 90 प्रतिशत तक पहुंच जाती है।
अब आते हैं बलि प्रथा पर। यानी कि क्या बकरीद और काली पूजा में बलि देना पाप है?
मेरे विचार में जिस चीज को विश्व के 80 प्रतिशत लोग (यह प्रतिशत थोडा कम ज्यादा भी हो सकता है, पर इससे कोई फर्क नहीं पडता) नियमित रूप से चाव से खाते हैं। इनमें से 80 प्रतिशत के लिए वह अपरिहार्य चीज है। तब 80 फीसदी लोगों की जरूरत को सिर्फ इसलिए पाप कहना कि वह 20 फीसदी लोगों को पसंद नहीं है, एक तार्किक बात नहीं होगी। यह ठीक उसी तरह अव्यवहारिक और पक्षपातपूर्ण है, जैसे जैनियों की शाकाहार सम्बंधी बातों को अव्यवहारिक कहकर उसकी हंसी उड़ाना। और अगर धरती की आबादी की 80 प्रतिशत जनता की पेट से जुडी चीज किसी धार्मिक परम्परा से जुड़ी हुई है, तो सिर्फ इसलिए कि वह अमुक धर्म से जुडी है, उसकी आलोचना सही नहीं है। यह एक पक्षपातपूर्ण और गैर ईमानदार व्यवहार है।
पिछली पोस्ट पर आए कमेंट में से अगर सबसे ईमानदार जवाब की बात की जाए, तो वह नीरज गोस्वामी और निशांत का रहा। नीरज जी ने अपने कमेंट में लिखा कि ''दरअसल मनुष्य की भोजन शैली जहाँ वो रहता है वहां आसानी से उपलब्ध वस्तुओं पर निर्भर करती है...अगर कोई नदी या समुद्र किनारे रहता है तो जल में रहने वाले जीव खायेगा ही...ये सदियों से होता आ रहा है और इसमें कुछ गलत नहीं है क्यूँ की इंसान भी एक प्रकार का जानवर ही है और प्रकृति जानवरों को एक दूसरे को मार कर खाना ही सिखाती है...'' जबकि निशांत भाई ने इस बिन्दु पर एक विद्वतापूर्ण सुझाव देते हुए लिखा था कि ''फ़ूड चेन के शिखर पर बैठे अतिविकसित मनुष्य से यह उम्मीद की जाती है कि वह इसका विकल्प ढूंढें।''
मैं निशांत की बात को आगे बढ़ाते हुए कहना चाहूँगा कि जब तक यह विकल्प ढुँढ़ नहीं लिया जाता, मांसाहार करना मानव की मजबूरी है। और जब तक यह सुविधा उपलब्ध नहीं हो जाती, तब तक मानव अन्य जानवरों का मांस खाने के लिए अभिशप्त ही रहेगा। और जब तक जानवरों का मांस मनुष्यता की मजबूरी है, तो उसको महिमामंडित करने वाली परम्पराऍं भी चलती ही रहेंगी। इन्हें व्यवहारिक नजरिए से देखें और पाप पुण्य से ऊपर उठकर सामाजिक यथार्थ को समझने का प्रयत्न करें।
अब आता हूँ मेरे बारे में पूछे गये सवाल कि क्या मैं वास्तव में शाकाहारी हूँ और क्या मुझे मांस का स्वाद नहीं भाता?
इस बारे में मैं इतना तो पहले भी लिख चुका हूँ कि मैंने जबसे लिखना शुरू किया था, मांस खाना छोड़ दिया था। इस फैसले के पीछे दो मुख्य कारण थे। पहला यह कि मांस बचपन से ही मेरी कभी पसंद नहीं था। जिन दिनों मैं मांस खाता भा था, उन दिनों भी मैं सिर्फ रेशे वाले पीस ही खा पाता था। एक बार मैंने गल्ती से गैर रेशे वाला पीस खाया, तो मुझे उल्टी हो गयी थी। दूसरा कारण यह था कि चूँकि मुझे मांस बहुत ज्यादा पसंद नहीं था, इसलिए मुझे बार बार यह लगता था कि इसके लिए किसी को मरना पड़ता है अपनी जान देनी पड़ती है, इसलिए मैं ऐसे काम को क्यों बढ़ावा दूँ। बस यही दो कारण ऐसे थे, जिनपर मैंने जब ज्यादा सोचा-विचारा, तो मांस छोड़ना ही मुझे बेहतर लगा। अब हालत यह है कि जिस दिन घर में मांस बनता है (अलग होने के बाद से लाकर मुझे ही देना पड़ता है), तो मेरे लिए अलग से दाल सब्जी बनाई जाती है। यानी कि मैं घर पर मांस का रसा भी लेना पसंद नहीं करता। लेकिन मुझे मांस से कोई घृणा नहीं है। यदि किसी शादी वगैरह में जहॉं, शाकाहारी खाना उपलबध नहीं होता है, मजबूरी में मांस से रसे से काम चला लेता हूँ। ऐसे में यदि आप मुझे शाकाहारी समझते हैं, तो भी, नहीं समझते हैं तो भी मुझे कोई दिक्कत नहीं। मैं मांस नहीं खाता हूँ, पर इसका मतलब यह नहीं कि मुझे मांसाहार से घृणा है। मुझे पता है कि मांसाहार विश्व के अधिकांश मनुष्यों की पहली पसंद/आवश्यकता है। और किसी की खाद्य सम्बंधी पसंद की आलोचना करने वाला मैं कौन होता हूँ।
अब आता हूँ दो धुरंधर :) लोगों यानी चिपलूनकर जी और रचना के सवाल पर कि मैं कितनी बार कट्टर मुल्लाओं के खिलाफ अपनी कलम चलाई है?
इस सम्बंध में हालॉंकि मैं पहले भी कई बार कह चुका हूँ कि मेरा रूचि वैज्ञानिक विषयों में रहती है और मैं उन्हीं विषयों पर लिखना पसंद करता हूँ, जो अवैज्ञानिक होती हैं और अंधविश्वास (समाज को नुकसान पहुंचाने वाले) को बढ़ावा देती हैं। इन बातों का धर्म से कोई सम्बंध नहीं है। जहॉं तक मुस्लिम धर्म से जुड़े अंधविश्वासों का सवाल है, मैं उनपर भी यथाशक्ति लिखने का प्रयत्न करता हूँ। फिलहाल इस सम्बंध में आप तस्लीम पर हाल ही में प्रकाशित यह पोस्ट भी देख सकते हैं।
आशा करता हूँ कि आप लोग मांसाहार से सम्बंधित मेरी पिछली पोस्ट का मन्तव्य समझ गये होंगे। हॉं, यदि उसके द्वारा किसी व्यक्ति की भावनाऍं आहत हुई हों, तो मैं उसके लिए क्षमा मांगता हूँ।
शीर्षक: दर्शनलाल बवेजा जी की टिप्पणी से प्रेरित।
in your last post you posted a write up by a follower of jain dharam which was in fact written for the followers of that dharma
जवाब देंहटाएंwhy was it posted and why was it ridiculed ?? dear sir the question still remains unanswered
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जवाब देंहटाएंरचना जी, सबसे पहले आपसे एक निवेदन है कि आप अपने प्रश्न हिन्दी में पूछा करें।
जवाब देंहटाएंऔर जहॉं तक पिछली पोस्ट का सवाल है, वह इसलिए लगाई थी ताकि लोगों को पता चल सके कि शाकाहार का एक मतलब यह भी हो सकता है। आशा है आप आशय समझ गयी होंगी।
sir
जवाब देंहटाएंवहाँ शाकाहार का मतलब केवल और केवल जैन धर्म से जुड़े लोगो के आहार से था जबकि आप ने उसको जनरल मान लिया एक दिस्क्लैमेर दे सकते थे कि ये जैन धर्म अनुयायी के द्वारा लिखी गयी हैं
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जवाब देंहटाएंमेरा आपसे परिचय विज्ञान प्रगति के माध्यम से है आप विज्ञान गल्प लिखते है. आपकी सोच अन्धविश्वासो और कट्टरता के खिलाफ है इसमें दो राय नहीं. आइये गंगा जमुनी तहजीब को और आगे बढाए
जवाब देंहटाएंरचना जी, आपको उस लेख में कौन सी पंक्ति पढकर ऐसा लगा कि वह लेख केवल जैन धर्म के लोगों के लिए था?
जवाब देंहटाएं... saarthak charchaa !!!
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जवाब देंहटाएंsir
जवाब देंहटाएंjis website kaa link haen wo jain dharma kae prachaar kae liyae banii haen
aur yae link aap ne hi uplabdh kiyaa haen
afsos aap masahar aur shakahar kae sandarbh mae baat karnae kae liyae us aalekh ka upyog kar rahey haen jo kisi dharm vishesh kae liyae haen
रचना जी, ये आपका मत है कि उस पोस्ट को जैन धर्म के प्रचार के लिए लिखा गया है, पर मुझे लगता है कि उसे शाकाहार को गहराई से व्याख्यायित करने के लिए लिखा गया है। दोनों लोग अपने अपने कंफर्ट जोन में फंसे हुए हैं, कारण दोनों ही लोग स्वयं को सही सिद्ध करना चाहते हैं। और यही मैं उस पोस्ट के माध्यम से कहना चाहता था कि जो व्यक्ति जिस परिवेश में जिस माहौल में जन्म लेता है, वह उसके खानपान को सही मानने लगता है, जबकि दूसरे परिवेश के लोगों का खानपान उसे खटकता है। ऐसे में आप ही बताएं कि किसी दूसरे परिवेश वाले व्यक्ति की व्यक्तिगत खानपान की रूचि को नकारने का आपको क्या अधिकार है।
जवाब देंहटाएंलिखते जाओ हम मुर्गे की टांग हाथ में लिए पढते जाएंगे , रचना चाची के दूसरे हाथ में क्या है अनुमान लगाकर बताएं
जवाब देंहटाएंzaakri bhaayi aapki is rchnaa ya yun khiye risrch ne to bs mn moh liyaa kash pas hote to men aapke hath chum letaa kher duri hi shi mubark ho bhut bhut mubark ho . akhtar khan akela kota rajsthan
जवाब देंहटाएंजाकिर भाई,
जवाब देंहटाएंनिरज जी की टिप्पणी का आप उपयोग कर रहे है, उनका मांसाहारी 80% पूरी दुनिया से था, और जहां (भारत)दुर्गा माता को बली दी जाती है वहां उस 80% का उपयोग कर जायज ठहरा रहे है?
॰अन्न उगाने के लिए हमें फिलहाल चार और पृथ्वियों की आवश्यकता होगी।
जवाब देंहटाएंयह दलील मानते हुए भी आप मांसाहार से दूर रहकर शाकाहार पर और बोझ बढा रहे है।?
सुज्ञ भाई, अगर आप भारत के लोगों का गहराई से अध्ययन करेंगे तो आपको पता चलेगा कि यहॉं पर यह प्रतिशत और भी ज्यादा है। कारण यहॉं पर ढ़ोग ज्यादा है। जो आदमी रिश्वत के पैसों से अय्याशी करता है, वही चौराहे पर खडा होकर भ्रष्टाचारियों को 101 गालियां भी सुनाता है।
जवाब देंहटाएंमैं आपको अपनी शादी का उदाहरण दूता हूँ। चूँकि मेरे अधिकांश दोस्त नॉन मुस्लिम हैं, इसलिए मैंने 200 लोगों के लिए वेज खाना बनवाया था। और आप यकीन नहीं करोगे, उसमें से दो तिहाई से ज्यादा खाना बच गया था। जिन लोगों के बारे में मालूम था वे 100 प्रतिशत शुद्ध शाकाहारी हैं, उन्होंने दूसरे कमरे में बैठकर हडिडयॉं चबाई थीं।
सुज्ञ भाई, शाकाहार पर बोझ बढ़ाने की कुछ मजबूरी मेरे शरीर की थी, तो कुछ मेरे सोच की। अगर मुझे मांस का स्वाद औरों की तरह ही भाता होता और मैं कुछ भी हजम कर जाता, तो शायद आज भी मैं मांसाहारी होता। मैं शाकाहारी हूँ, यह मेरी विशेषता नहीं, मेरे शरीर के जींस की संरचनाओं का प्रतिफल है। और इसमें फेरबदल करना मेरे लिए पूरी तरह से असम्भव है।
जवाब देंहटाएंजाकिर जी मेरा मानना है की ज़बरदस्ती किसी पर भी अपनी पसंद नहीं थोपी जा सकती.(यद्यपि व्यक्तिगत रूप से मैं शुद्ध शाकाहारी हूँ)शाकाहार या मांसाहार मूल रूप से हरेक की व्यक्तिगत पसंद पर निर्भर करता है और व्यापक रूप से देश-काल की परिस्थितियों का भी प्रभाव पड़ता है.हम दुनिया के मरूस्थलीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों का उदाहरण दे सकते हैं;मांसाहार उनके आस्तित्व का प्रश्न है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंदुखद कि हमारे देश में 80% से ज्यादा लोग मांसाहारी है।
जवाब देंहटाएंऔर यहां इन दिनों की चर्चा से निकल आया कि उल्टे मुस्लीम बंधु शाकाहार लेते है, कुछ शारीरीक कारणों से तो कुछ 'मरने' के कारणों से। अजीब विरोधाभास है हमारे देश का।
खैर आपने स्वीकार किया आप मात्र मजबूरी वश ही शाकाहारी है बल्कि मन से तो पूरे मांसाहारी।:)
लेकिन यह तो स्वीकार कर लिजिये कि वह साईट जैन समुदाय की ही है:)
न केवल जैन बल्कि उसके भी एक फिरके 'दिगम्बर संप्रदाय'की है और उससे भी आगे जाकर वह विषेश रूप से एक संत'विद्यासागर जी'के अनुयायियों के उपयोगार्थ बनी है।
इसलिये यह लेख भी उन्हे ही सम्बोधित है।
लेख में उपयोग किया गया एक शब्द बता रहा है कि उसे कोई जैन ही अच्छी तरह समझ सकता है।
'सम्मूर्छन जीव'
क्या कोई इसका सही सही अर्थ बता सकता है?
क्षमा करना ज़ाकिर भाई, लेकिन थोडा परेशान करने का हक हमारा भी बनता है।;)
ज़ाकिर जी क्या बात ?
जवाब देंहटाएंसलीम खान से बकरा ईद पर गले मिल लिए थे क्या ?
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जवाब देंहटाएं@जाकिर भाई
जवाब देंहटाएंक्या इतिहास मैं मानव निर्मित ऐसा कुछ भी नहीं है जो आज के मानवों के लिए आश्चर्य का विषय रहा हो ??
क्या कम जगह पर अधिक से अधिक खेती की कोई नयी तकनीक बिलकुल नहीं निकाली जा सकती ??
जिसको जो मन करे खाए भाई।
जवाब देंहटाएंआप रूप भोजन, पर रूप शृंगार।
सुज्ञ भाई, पूर्व में कोट किया गया लेख भले ही किसी धर्म अथवा पंथ की धारणा हो, इतना तय है कि वह भी मानवों की धारणा है और वे हिन्दुस्तान में ही रहते हैं। और उससे भी बडी बात कि यह धारणा हिन्दुस्तान में ही विकसित हुई है। तो जब धर्म अथवा पंथ के नाम पर उसकी खुलकर आलोचना नहीं की जाती, तो मांसाहारियों की आलोचना कितनी जायज है।
जवाब देंहटाएंमैं मांसाहार इसीलिए भी नहीं करता हूँ, क्योंकि वह मुझे से शुरू से पसंद भी नहीं था। वर्ना घर जब मांस बनता है, तो बीबी का मन रखने के लिए शोरबे से भी काम तो चला ही सकता हूँ।
(ये मेरी पत्नी का बहुत बड़ा दु-ख भी है।)
तीसरी बात मैंने किसी को परेशान करने के लिए वह पोस्ट कोट नहीं की थी, सिर्फ कुछ लोगों द्वारा अनावश्यक रूप से की जा रही अनर्गल बातों का विरोध करने के लिए लिखी थी। वरना मैं ब्लॉग जगत में 2007 से सक्रिय हूँ और मेरी प्रव़त्ति आप भी जानते होंगे।
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जवाब देंहटाएंगौरव भाई, क्षमा चाहूँगा कि आपकी तमाम बातों को समझ नहीं पा रहा हूँ। हॉं, आपकी एक बात समझ में आ रही है। आपने अपने अन्तिम कमेंट में लिखा है कि 'क्या कम जगह पर अधिक से अधिक खेती की कोई नयी तकनीक बिलकुल नहीं निकाली जा सकती ??'
जवाब देंहटाएंबिलकुल की जा सकती है, बल्कि करनी भी चाहिए। लेकिन जो लोग सदियों से मांसाहार के सहारे जीवन यापन कर रहे हैं, उन्हें गाली भी नहीं दी जानी चाहिए।
कुछ लोगों ने विषय से हट कर दुराग्रहपूर्ण कमेंट किये हैं, इसलिए उन्हें न चाहते हुए भी डिलीट कर दिया गया है। मैं आप सबसे कहना चाहूंगा कि यह मंच अनर्गल प्रलाप के लिए नहीं बना है।
जवाब देंहटाएंएक साफ़ सुथरा ,विश्लेषण इस विषय पे. आप की बात से सहमत हूँ. ऐसे और लोगों की आवश्यकता है ब्लॉगजगत मैं.
जवाब देंहटाएंविद्वान टिप्पणीकारों… देरी से आने के लिये माफ़ी,
जवाब देंहटाएंकल एक मित्र ने मेल करके बताया कि ज़ाकिर भाई की पोस्ट में चिपलूनकर-चिपलूनकर का भजन गाया गया है इसलिए देखने आ गया…
ज़ाकिर भाई ने लम्बा-चौड़ा लेख लिख मारा, लेकिन मुझे उसमें मेरी पिछले लेख की टिप्पणी के सन्दर्भ में कुछ खास कहा गया हो ऐसा नहीं मिला… मेरी टिप्पणी के प्रमुख अंश यह था -
"1) "बलि" अथवा "कुर्बानी" का महिमामण्डन क्यों?
2) आज की तारीख में कितने भारत में कितने मन्दिर बचे हैं जहाँ "बलि" प्रथा अपने क्रूर रूप में मौजूद है…
3) "सुधार की प्रक्रिया" में हमेशा हिन्दुओं को ही क्यों टारगेट किया जाता है? (जैसे कि बलि घृणित है, जाति प्रथा बकवास है, दहेज कुरीति है… आदि-आदि-आदि)
4) कितने प्रतिशत मुस्लिम ब्लॉगरों ने कुर्बानी-नकाब-बुर्का-शरीयत-शाहबानो-शिया-सुन्नी-अहमदिया इत्यादि मसलों पर ""परम्परागत लीक"" से हटकर विरोध दर्ज करवाया है? कितनों ने कट्टर मुल्लाओं के खिलाफ़ जोरदार कलम चलाई है?
बाकी के प्रश्नों को छोड़कर ज़ाकिर भाई ने शायद अन्तिम वाले बिन्दु को "व्यक्तिगत" रुप में ले लिया है जिसका नतीजा है यह लेख…
मेरे पहले तीन महत्वपूर्ण प्रश्नों का किसी टिप्पणीकार (और ज़ाकिर भाई ने) कोई सार्थक जवाब नहीं दिया है…
चौथे प्रश्न के उत्तर में भी मैं ज़ाकिर भाई को दस हिन्दू ब्लॉगरों के नाम गिनवाने का इच्छुक हूं जिन्होंने हिन्दू धर्म, हिन्दू धर्मगुरुओं, हिन्दू कुरीतियों पर तीखी कलम चलाई है… जबकि ज़ाकिर भाई मुझे दस मुस्लिम ब्लॉगरों के नाम सौंपें, जिन्होंने जेहादी कठमुल्लों, अजीबोगरीब फ़तवों, कुरान-हदीस में मौजूद विकृतियों के खिलाफ़ जमकर लोहा लिया हो…
हो सकता है कि ज़ाकिर भाई ने कभी-कभी इस्लामी कुरीतियों पर "भी" अपनी कलम चलाई हो, परन्तु प्रश्न यही है कि इक्का-दुक्का ऐसे लोग हों भी तो क्या… उनका प्रतिशत क्या है, यह महत्वपूर्ण है।
लाखों हिन्दू बलि प्रथा को त्याग चुके हैं, उसकी आलोचना भी करते हैं… ज़ाकिर भाई उन मुसलमानों का प्रतिशत बतायें जो "कुर्बानी" प्रथा को त्याग चुके हैं और उनका भी प्रतिशत बतायें जो कुर्बानी की आलोचना करते हैं…
मूर्खतापूर्ण बात को कोढ़ मगज कहना कहाँ से गलत हैं ? कोई पाल बाबू परेशान हो गए हैं इससे ...
जवाब देंहटाएंऔर मुद्दा तो बलि के महिमा मंडन का था- ये शाकाहार मांसाहार कहाँ से घुस आया ?
चिपलूनकर जी, अगर आपने मेरा लेख ध्यान से पढ़ा होता, तो आप अपनी टिप्पणी में ये सब न लिखते। दुनिया में कौन लोग किसके खिलाफ क्या लिख रहे हैं, यह बताना मेरा काम नहीं है। इसके लिए आप स्वयं काफी हैं। :)
जवाब देंहटाएंमैंने वह पोस्ट इसलिए लगाई थी क्योंकि मैं देख रहा था मांसाहार/बलि की वे लोग आलोचना कर रहे थे, जो स्वयं मांसाहार करते हैं। यह चरित्र का दोगलापन है, जिसे किसी भी दशा में सही नहीं कहा जा सकता। और जब मांसाहार लोगों की जरूरत है, तो वह झटके से आ रहा है, हलाल से आ रहा है या बलि से इससे क्या फर्क पडता है। आपके मुताबिक यदि मंदिरों में बलि बंद भी हो गयी, तो क्या लोगों ने मांस खाना छोड् दिया। यदि आपको इस बात पर कोई शक हो, तो किसी भी मांस की दुकान पर जाकर खड़े हो जाइए और पता करिए कि उसे खरीदने वाले किस किस धर्म के हैं। वह आंकणे आपकी सारी जिज्ञासाओं का शमन कर देंगे। एक बात और मांस प्राप्त करने के जो भी तरीके हैं, वे क्रूर ही होंगे। यदि आपके पास मांस प्राप्त करने का कोई अ-क्रूर तरीका हो, तो अवश्य बताऍं, मैं तो मांस खाता नहीं, पर अन्य लोग शायद उसपर अवश्य गौर फरमाऍं।
@ जाकिर भाई
जवाब देंहटाएंअपशब्दों के मामले में मुझे अभी कोई जानकारी नहीं है | वैसे भी किसी भी चर्चा में अपशब्दों का प्रयोग नहीं होना चाहिए
और जब आप ये कहते हैं
जवाब देंहटाएं@हम किसी कानून अथवा नैतिकता का दण्ड दिखाकर उन्हें शाकाहारी बनने के लिए मजबूर भी कर दें, तो आप सोचिए कि बाजारों में सब्जियों की क्या पोजीशन होगी।
तो ये भी तो कहा जा सकता है ना की
प्रश्न नैतिकता का नहीं भी होता तो भी जब वैज्ञानिक शोधों ने साबित कर दिया है की माँसाहार किसी भी दृष्टि [सामाजिक , मानवीय ] से ठीक [शाकाहार के अपेक्षाकृत ] नजर नहीं आ रहा तो फिर क्यों ना पूरा ध्यान शाकाहार पर ही केन्द्रित किया जाये ?
[मेरा मतलब नयी कृषि तकनीकों से है ]
ज़ाकिर भाई, फ़िर वही बात कर दी आपने,
जवाब देंहटाएंयहाँ मुख्य मुद्दा है बलि अथवा कुर्बानी के महिमामण्डन का, मिश्रा जी भी दो बार टिप्पणी कर चुके इस पर…।
मन्दिरों में बलि प्रथा "लगभग" खत्म हो गई है… धर्म के नाम पर कुर्बानी इस्लाम में कब खत्म होगी या कम होगी या इसका विरोध खुद मुसलमानों द्वारा ही कब किया जायेगा, जैसा हिन्दुओं द्वारा बलि का विरोध किया जाता है… यह सीधा सा प्रश्न है… इसे शाकाहार-मांसाहार में घुमाईये मत…
शाकाहार-मांसाहार वाली बात तो मैंने की ही नहीं है, यह तो मैं भी जानता हूं कि बहुत से हिन्दू समूह मांस खाते हैं…। असल आपत्ति है "अपने फ़ायदे के लिये, अपने स्वाद के लिये, धर्म का नाम लेकर बलि को महिमामण्डित करने से"…
चिपलूनकर जी, मेरी समझ में नहीं आता कि जब मैं मांस खा सकता हूँ, तो फिर बलि का विरोध कैसे कर सकता हूँ। यदि दुकानों पर बिकने वाला मांस जानवर का वध किये बिना मिलता हो, तो बात समझ में आती है। दूकानों में मांस बचने के लिए भी बकरे की जान ली जाती है और उसके लिए भी वही क्रूर तरीका अपनाया जाता है, जो बलि में होता है। फिर दोनों बातें अलग कैसे हैं? सिर्फ इसलिए कि धर्म में मांस खाने के लिए एक परम्परा बना दी गयी है, इसलिए उसकी आलोचना कहां से उचित है? मेरी समझ से यदि धरती से मांसाहार बंद हो जाए और उसके बाद भी कुर्बानी चलती रहे, तभी उसकी आलोचना उचित होगी। अन्यथा यह तो वही कहावत हो जाएगी कि गुड़ खाया जाए और गुलगुलों से परहेज किया जाए। :)
जवाब देंहटाएंचिपलूनकर जी और ज़ाकिर भाई के बहस में मुझे ज़ाकिर भाई का पक्ष ज्यादा सही और तर्कपूर्ण लग रहा है। (उसका यह अर्थ नहीं है कि मैं उनकी सारी बातों से सहमत हूँ) पशु वध/ बलि/ कुर्बानी और मांसाहार के मुद्दे में किसी धर्म विशेष को निशाने में लाना उचित नहीं है। जब मांसाहार बंद होना संभव नहीं है तो उसके लिए उन पशुओं को मारना ही पड़ेगा जिनका मांस खाया जाता है। (और जिनका मांस
जवाब देंहटाएंखाना उस देश में गैरकानूनी नहीं है)
यदि मांसाहार के अलावा अन्य किसी कारण से पशुओं पर क्रूरता की जा रही हो (जैसे फैशन, मनोरंजन, शिकार आदि) तो उसका पुरजोर विरोध करना चाहिए।
भोजन में शाकाहारी या मांसाहारी होना अपनी अपनी पसंद हो सकती है , किन्तु विचारोम में सभी को शाकाहारी होना चाहिये
जवाब देंहटाएंये पोस्ट तो हिट रही ,शाकाहारी या मांसाहारी होना न तो पसन्द की बात है, न धर्म की बात है , न ही देश या कानून की और न ही नैतिकता की बात है । यह एक वैचारिक निर्णय है जिसका सम्बन्ध आपकी चेतना से है । शाकाहारी होना एक तरह की सम्वेदनशीलता है मांस के प्रति, मांसधारी वस्तु(जीव) के प्रति । मांसाहारी होने का मतलब इस सम्वेदनशीलता के नष्ट करने का निर्णय लेना । शाकाहारी होने का अर्थ है शाक के प्रति असम्वेदनशील होना ।
जवाब देंहटाएंSatyendra ji, Lajawab kar diya aapne.
जवाब देंहटाएंApne to ise ek gambhi charcha ka subject bana diya hai.Plz. visit my new post.
जवाब देंहटाएंजाकिर जी आपने मांसाहार या शाकाहार के बारे खूब चर्चा की पर एक तथ्य के बारे में कोई बात नहीं हुई वो है स्वास्थ्य पर प्रभाव. दुनिया में सब तरह के जीव है. पर मनुष्य का शरीर मांसाहार के अनुकूल नहीं है. इसलिए शाकाहार उपयुक्त है. जहाँ तक सवाल है उपलब्धि का मांसाहार के लिए जो पशु पाले जाते है वो भी अनाज पर आधारित होते है. फिर मांसाहारी भी सिर्फ मांस नहीं खाता बल्कि वो इसके भोजन का एक हिस्सा होता है इसलिए सभी शाकाहारी बन जाये तो सब्जी आदि की कीमत बढ जाएगी ऐसा जरुरी नहीं है.
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