रंग-बिरंगा साइबर संसार फाल्गुन के आगमन का संकेत कंपकपाती ठंड से बिदाई की निशानी है। फाल्गुन मास का प्रारम्भ एक ओर जहां नई फसलों की ...
रंग-बिरंगा साइबर संसार
फाल्गुन के आगमन का संकेत कंपकपाती ठंड से बिदाई की निशानी है। फाल्गुन मास का प्रारम्भ एक ओर जहां नई फसलों की सौगात लाता है, वहीं बसंत अपने साथ लाने वाले फूलों से प्रकृति को नई नवेली दुल्हन की तरह सजा देता है। और पता ही नहीं चलता कि कब प्रकृति के इस रंग-बिरंगे स्वरूप में चुपके से होली का आगमन हो जाता है।होली रंगों का त्यौहार है, जिसमें हर कोई अपने चारों ओर पसरी हुई दुश्िचंताओं और समस्याओं को भूलकर जिंदगी को रंगों से सराबोर कर लेना चाहता है। यह आनंद और मस्ती का भी त्यौहार है, तभी तो कोई भंग के तरंग में लहराता नजर आता है, तो कोई ढोल मजीरे की थाप पर अबीर गुलाल उड़ाता हुआ मिल जाता है।
होली की यह मस्ती अगर कहीं पूरे सुरूर में नजर आती है, तो वह है सायबर संसार। यही कारण है कि जैसे ही फाल्गुन का आगमन होता है, हर युवक स्वयं को किशन कन्हैया और हर युवती स्वयं को गोपी के अवतार में मान कर अपनी शब्द रूपी पिचकारियों की फुहार से हर किसी को अपने रंग में रंगने के लिए लालायित हो उठता है।
भले ही आज हर कोई मंहगाई की मार से डरा-सहमा हुआ हो, पर सायबर संसार का एक लाभ यह भी है कि यहां उसका वह डर उड़नछू हो जाता है। लेकिन बावजूद इसके इस बार सायबर जगत के रंग काफी फीके नजर आ रहे हैं। इस बार की होली में चुनाव की वक्रदृषि्ट ऐसी पड़ी है, कि यहां होली की ठिठोली कम और राजनैतिक पिचाकारियां ज्यादा चलती नजर आ रही हैं। कोई किसी की लहर पर सवार अपने विरोधियों का मुंह काला करने की फिराक में नजर आ रहा है, तो कोई अपोजिट पार्टी के नेताओं पर अपशब्दों का कीचड़ बरसा रहा है। कहीं-कहीं इस मौसमी हुड़दंग में कुछ ऐसा समां बंध जाता है कि हर कोई भंग की तरंग में अपना आपा खोता हुआ नजर आता है।
इंटरनेट के प्रसार ने जहां आम आदमी के हाथ में अभिव्यक्ति का ब्रह्मास्त्र जा पहुंचा है वहीं झूठ को सच की तरह प्रचारित करने और मर्यादाओं को ध्वस्त करने का मार्ग भी प्रशस्त हुआ है। चाहे वह ब्लॉग की दुनिया हो, या फिर सोशल नेटवर्किंग साइट्स, आजादी का यह भौंडा रूप सभी जगह नजर आता है। और दुर्भाग्य की बात है कि होलिका जैसा त्यौहार भी इससे बच नहीं पाता है।
लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू भी है। यह पहलू, हमें एक सकारात्मक दुनिया में ले जाता है और अपने ही नहीं बेगाने से भी तमीज से पेश आने का हुनर सिखाता है। और यह इसी हुनर का कमाल है कि यहां बात चाहे कुर्ता-पायजामा की ही क्यों न हो, व्यक्ति दार्शनिक हो जाता है- ‘और जरा ध्यान से देखें तो.... पता चलेगा कि होली से एक दिन पहले सबसे पुरानी शर्ट/टी-शर्ट या कुर्ता-पायजमा को घर में बड़ी इज्ज़त के साथ देखा जाता है।’
इंटरनेट को अगर ज्ञान का महासागर माना जाए, तो कहा जा सकता है कि यहां पर हर विषय, हर संदर्भ आसानी से सुलभ हो जाता है। यही कारण है कि जब होलिका का इतिहास खंगालते हैं, तो हमें पता चलता है कि ‘होली मुख्य रूप से एक ‘कृषि यज्ञ’ है, जिसमें गेहूं की फसल के पकने पर उसे गाय के गोबर से बने कंडे पर भूनकर प्रसाद के रूप में बांटे जाने का उल्लेख वेदों में मिलता है। ‘यज्ञ’ से जुड़ाव होने के कारण ही होली में आम की सूखी लकड़ी डाले जाने का वर्णन मिलता है। वैदिक काल से चली आ रही इस परम्पोरा में बाद में प्रह्लाद और होलिका जैसी ‘घटनाओं’ के जुड़ने से इसमें गर्मी के मौसम की शुरूआत में घर की साफ-सफाई के दौरान निकले कबाड़ आदि को भी होलिका के रूप में जलाने का चलन बढ़ता गया।’(साइंटिफिक वर्ल्ड)
वैसे इसमें कोई दो-राय नहीं कि सायबर संसार के युग में लोगों के बीच बातचीत बढ़ गयी है, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से उनके बीच ‘संवाद’ घटा है। यहां हर कोई या तो सूक्तियों का अमृत बांटता परम ज्ञानी है या फिर आला दर्जे का दार्शनिक कवि। एक ओर जहां यहां पर चर्चित कवि और लेखक अपना झंडा उठाए हुए नज़र आते हैं, वहीं दूसरी ओर नवोदित और कम परिचित रचनाकार भी हैं, जो बेहद गम्भीरता के साथ अपनी बात रख रहे हैं- ‘ये कैसी होली है/ न प्यार के रंग न हंसी ठिठोली है/ होली के रंगों में घुलता जा रहा नफरत का जहर/ कोई खेल रहा खून का होली/ कोई होलिका के लिए जला रहा अपना ही घर/ बड़े बदरंग, नीरस से हो गये हैं रंग/ अब होली पर नहीं मिटता द्वेष/ पुते हुए चेहरे पर चढ़ता नहीं कोई रंग/ बड़ी फीकी सी, खामोश, बेज़ार है होली..(प्रियम्वदा रस्तोगी)
इसमें कोई दो-राय नहीं कि सायबर संसार बे-रोकटोक विचरण का अनंत स्पेस उपलब्ध कराता है। यही कारण है कि जहां एक ओर जहां गम्भीर समकालीन विमर्श देखने को मिलते हैं, वहीं अभद्रता की हद को छूते हुए बेहद हल्के विचार भी देखे जा सकते हैं- ‘हर साल तथाकथित पर्यावरणविद जैसे ही होली आती है फटे बांस की आवाज में पानी बचाओ का राग अलापते हैं। उनके इसी रोने धोने को देख कर इंद्र देव हर दूसरे दिन बरस रहे हैं। मित्रो जम के खेलिए होली।’ (जितेन्द्र कुमार)
लेकिन इसके साथ ही साथ यहां जिम्मेदार लोगों की भी कमी नहीं। ऐसे लोग अपने समाज को बेहतर बनाने और दुनिया वालों को सजग बनाने के लिए प्रयत्नशील नजर आते हैं- ‘होलिका दहन पर प्रत्येक होलिका में औसतन 100 किलो लकड़ी जलती है तथा औसतन दो पेड़ों का सफाया हो जाता है। हर साल होली में लगभग 50 लाख होलिकाएं जलती हैं, जिससे लगभग एक करोड़ पेड़ भस्मत हो जाते हैं। इसकी वजह से देश में प्रतिवर्ष लगभग 300 हेक्टेयर वन क्षेत्रफल का सफाया हो जाता है। होलिका जलने से प्रतिवर्ष देश में 25 हजार टन ग्रीन हाउस गैसों का इजाफा होता है।’ (साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन)
यही कारण है कि एक ओर जहां फिजां में ‘ईको फ्रैंडली होली’ के विचार तैर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर ‘ड्राई होली’ के आइडिया भी लोगों को भा रहे हैं। और इसी के साथ ही साथ पानी बचाने के आह्वान भी देखे और सुने जा रहे हैं- ‘होली के इस अवसर पर, होली के दिन दिल पर पत्थर रखकर हमें दुःखी मन से पानी बचाने की अपील करनी पड़ रही है। पानी की कमी से रंगो की होली की जगह खून की होली होना आये दिन सुनने और पढ़ने को मिल रही है पिछले एक साल के अंदर मध्य प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में दर्जनों लोगों की मौत पानी के कारण हुए झगड़ों में हुई। …बेहिसाब पानी की बर्बादी प्रकृति के अमूल्य धरोहरों की बर्बादी हैं। सत्य यही है कि पंच तत्वों से बनी मानव जाति यदि पानी खो देगी तो अपना अस्तित्व भी खो देगी।’ (इंडिया वाटर पोर्टल)
वैसे ऐसा भी नहीं है कि सायबर स्पेस में सब कुछ धीर-गंभीर और रूखा-सूखा ही है। यहां जगह-जगह शब्दों की शान पर चढ़ कर अवतरित होती नेह में पगी कविताएं और हास्य/व्यंग्य में रंग में रंगी कार्टून और क्षणिकाएं भी मिल जाती हैं।
लेकिन आप स्वाद के दीवाने हैं तो भी आप यहां बहुत कुछ पाएंगे। और अनुभूति-हिन्दी डॉट आर्ग पर उपलब्ध होली के पकवान, मिठाइयां, नमकीन और चटनियों की रेसिपी देखकर मुंह में पानी आने से खुद को रोक नहीं पाएंगे। यदि आप होली को यादगार बनाना चाहते हैं, तो इन्हें ज़रूर आजमाएं। और इसी के साथ स्वीकार करें, मेरी ये शुभकामनाएं- 'लाल रंग आपके गालों के लिए, काला रंग आपके बालों के लिए, नीला रंग आपकी आंखों के लिए, पीला रंग आपके हाथों के लिए, गुलाबी रंग आपके सपनों के लिए, सफेद रंग आपके मन के लिए, हरा रंग आपके जीवन के लिए। होली के ये सात रंग इंद्रधनुषी जीवन का आधार हैं। (कल्पतरू एक्सप्रेस, लखनऊ, 17 मार्च, 2014)
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आपने त्यौहार के नाम पर पेड और पानी की बचत का प्रासंगिक सवाल उठाया है । लेकिन पूरा सच यह है कि होली के नाम पर पानी की बचत का राग केवल मुद्दा बनाने और सुर्खियों में आने से ज्यादा कुछ नही क्योंकि रोज नालियों में कितना पानी व्यर्थ बहता रहता है इस पर किसी का ध्यान नही । न निगम का न नागरिकों का न ही प्रशासन का । सिर्फ एक दिन रंग छुडाने के लिये इस्तेमाल हुए पानी से कई गुना पानी रोज फालतू बह जाता है । यही हाल लकडी का है । कितने हरेभरे पेड रोज वैध--अवैध रूप से कटते रहते हैं । होली में कण्डे और पुरानी अनुपयोगी ( कबाड)लकडी काम में लाने का नियम है । हालाँकि उसमें यों ईँधन का जलाना एक तरह का नुक्सान है लेकिन कितना अच्छा हो कि पेडों के संरक्षण के उपाय बढाए जाएं । पानी की बचत केवल अखबारी विज्ञापन की तरह नही वास्तविक रूप से हो पूरी सजगता और दायित्त्व के साथ । सामयिक और सटीक आलेख ।
जवाब देंहटाएंयही बातचीत और संवाद विवादों का हल बनकर भी उभरेगा।
जवाब देंहटाएंसाइबर होली का सम्पूर्ण दृश्य अवतरित हो गया। आभार और बधाई।
जवाब देंहटाएंविनायक शर्मा, बनकटी, बिहार