हिंदी बाल-कथासाहित्य के ईमानदार प्रवक्ता - ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
हिंदी बाल - कथासाहित्य के ईमानदार प्रवक्ता - ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
डॉ. उषा यादव
हिंदी बाल कथासाहित्य, जिसमें कहानी और उपन्यास दोनों समाहित हैं, के अद्भुत पारखी के रूप में ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ ने अल्प वय में ही हिंदी बालसाहित्य के रंगमंच पर अपनी पहचान बनाई। एकदम कबीर की शैली में खरी-खरी सुनाने की मुद्रा में। कोई लाग-लपेट नहीं। कोई चाशनी में लपेटकर कुनैन की गोली को प्रस्तुत करने की चेष्टा नहीं। बस, जो सच है, वह सच है और सच को साफ-साफ कहने में हिचक या दिक्कत कैसी? यह साफगोई यदि किसी को खलती है तो खले, पर सच को सात परदों में छिपाकर रखने का औचित्य क्या?हिंदी बालकहानी की यह दो-टूक परख सिर्फ तेईस वर्ष की अवस्था में हिन्दी की चुनी हुई 107 बाल कहानियों का ‘इक्कीसवीं सदी की बाल कहानियाँ‘ (1998) शीर्षक से दो खंडों में संपादन करते हुए विवेच्य लेखक ने प्रस्तुत की। ‘एक ज़रूरी बात’ के अंतर्गत उन्होंने हिंदी बाल कहानी के तत्युगीन स्वरूप पर अत्यंत बेबाक और ईमानदार टिप्पणी की है। उनके शब्दों में, ”एक ओर हिंदी बालकहानी में जहाँ विषय एवं शिल्प के स्तर पर अभिनव प्रयोग हो रहे हैं, वहीं बड़ी मात्रा में ऐसी बालकथाएँ भी रची जा रही हैं, जो अपने निकृष्टतम स्वरूप के कारण बालकथाओं की स्तरीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इस प्रकार की रचनाओं को दो भागों में बांटा जा सकता है- ‘टीपी हुई कहानियाँ’ और ‘फार्मूलाबद्ध कहानियाँ।“1
‘टीपी’ हुई कहानियों में उन्होंने परीकथाएँ, पुराणकथाएँ और लोककथाएँ सम्मिलित की हैं। इनमें विषय और शिल्प की दृष्टि से मौलिकता का सर्वथा अभाव माना है। उनके अनुसार ”इस तरह की कहानियाँ वे ही रचनाकार लिखते हैं, जो ‘छपास’ रोग से बुरी तरह ग्रस्त होते हैं और एक माह में दस कहानियाँ प्रकाशित होते (पृष्ठ संख्या 256 ) देखना चाहते हैं या फिर मौलिक रचनाएँ न लिख पाना जिनकी मजबूरी होती है। किंतु मैं इन रचनाकारों से यह पूछना चाहूँगा कि क्या यह बालसाहित्य है?“2
ज़ाकिर का स्पष्ट मंतव्य है कि बालसाहित्य (Hindi Bal Sahitya) के समीक्षा-ग्रंथों में, बड़े-बड़े आलेखों में यह बात जोर देकर कही जाती है कि बालसाहित्य लेखन एक अत्यंत कठिन कार्य है। किंतु इस प्रकार की कहानियां लिखना कठिन कैसे हो गया? प्राचीन ग्रंथों से ऐसी कहानी ‘टीप’ लेना तो बहुत आसान है। ”यह काम तो कक्षा पांच का विद्यार्थी भी कर सकता है।’ तो क्या वह बालसाहित्यकार हो जायेगा?“3 ज़
ज़ाकिर मानते हैं कि बालसाहित्य वही है, जिसमें बालमनोविज्ञान का निर्वहन हो। किंन्तु इन ‘टीपी‘ हुई कहानियों का बाल मनोविज्ञान से कोई लेना-देन नहीं होता। इनमें निहित शिक्षाएं तो सामंती विचारों का ही पोषण करती हैं, जो बालसाहित्य की स्तरीयता पर सवाल उठाता है।
‘फार्मूलाबद्ध कहानियों को भी ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ ने ‘जबरदस्ती की लिखी हुई कहानियाँ कहा है। ये कहानियाँ एक निश्चित ढर्रे पर चलती हैं और कहानी शुरू करते ही पता चल जाता है कि यदि एक शैतान, जिद्दी, बदतमीज या आवारा किस्म का लड़का कथानायक है, तो वह अंत में जरूर सुधर जायेगा। प्रायश्चित, सीख, गलती, चोरी, प्रण, उपदेश, भूल जैसे भावों से ये कहानियाँ आगे नहीं बढ़ पातीं। ‘बाल-सुधार’ का ‘ठेका’ लेने वाले बालकहानीकार थोक की मात्रा में ये सुधार कार्यक्रम चलाते रहते है। विषय की रोचकता एवं मौलिकता से रहित होने के साथ-साथ ये कहानियाँ शिल्प की दृष्टि से भी फुसफुसी साबित होती हैं। सब कुछ एकदम सपाट रूप में चलता जाता है। ऐसी कहानियों की सर्जना ही बाल साहित्य पर दोयम दर्जे का ठप्पा लगाती हैं।
पर ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ बालसाहित्य की इस अधोगति से निराश नहीं हैं। वह मानते है कि हिन्दी में स्तरीय कहानियाँ भी विशाल मात्रा में हैं। जरूरत है, तो सिर्फ उन्हें सामने लाने की। ऐसा होने पर ही बालसाहित्य को तुच्छ मानने वाले लोगों की टिप्पणियों पर अंकुश लगेगा। ”वर्तमान में सशक्त बाल कथाकारों की एक बड़ी ‘यूनिट’ साहित्य-सेवा में लगी हुई है,“4 के प्रवक्ता ज़ाकिर ने ऐसी बालकहानियों का संकलन करके निश्चय ही हिन्दीं बालसाहित्य की समृद्धि का द्योतन किया है। (पृष्ठ संख्या 257 )
सिर्फ यही नहीं, हिंदी के श्रेष्ठ बालकहानीकारों की चयनित बाल-कथाओं को सामने लाने के लिए विवेच्य साहित्यकार ने कुछ सुंदर संकलन भी तैयार किये, जो इस प्रकार हैं-
1. अनन्त कुशवाहा की श्रेष्ठ बालकथाएँ
2. ज़ाकिर अली रजनीश की श्रेष्ठ बालकथाएँ
3. यादराम रसेंद्र की श्रेष्ठ बालकथाएँ
4. उषा यादव की श्रेष्ठ बालकथाएँ
5. मोहम्मद अरशद खान की श्रेष्ठ बालकथाएँ
ज़ाकिर का एक अन्य महत्वपूर्ण कार्य 'ग्यारह बाल उपन्यास' के दो खंडों में संपादन के रूप में भी सामने आया, जिसने हिंदी बालसाहित्य की उपन्यास-विधा के समृद्धशाली रूप को प्रकट किया। जाहिर है, हिंदी के श्रेष्ठ बालकथा साहित्य को पाठकों एवं समीक्षकों के सामने लाने में उन्होंने कठिन परिश्रम किया है। हिंदी बाल उपन्यास के बारे में उनका मानना है कि हिंदी बालसाहित्य में कहानी की तुलना में उपन्यास की शुरूआत की गति काफी धीमी रही। अनूदित उपन्यास ही सामने आये। ‘अलीबाबा चालीस चोर’ और ‘राबिनहुड’ जैसी लंबी कहानियां ही पुस्तकाकार छपीं। ”इन सबसे प्रेरित होकर भूपनारायण दीक्षित ने ‘खड़खड़देव’ नामक मौलिक बाल उपन्यास लिखा जो सन् 1952 में ‘बालसखा’ में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। उपलब्ध जानकारी के अनुसार इसे ही हिंदी का प्रथम बाल उपन्यास माना गया है।“5
पर हिंदी के प्रथम मौलिक उपन्यास को लेकर इस भ्रामक धारणा का बाद में निवारण हो गया है। वर्ष 1945-46 में ‘बालसखा’ एवं ‘बालविनोद’ में धारावाहिक उपन्यास छपे हैं। वर्ष 1946 के वार्षिक बालसखा के भारी-भरकम अंक में कुमारी कनक का ‘शैतानों के पंजे में’ नामक संपूर्ण बाल उपन्यास प्रकाशित हुआ है। इससे पूर्व के बाल उपन्यास की भी भविष्य में प्रामाणिक जानकारी मिल सकती है।
निश्चय ही संपादन-कला में जा़किर अली रजनीश निष्णात हैं। एक कुशल माली जैसी चयन-दृष्टि दिखाते हुए उन्होंने चुने हुए कथाकारों के बालकथा उपवन से (पृष्ठ संख्या 258) श्रेष्ठतम कहानियाँ व उपन्यास चुनकर जो गुलदस्ता तैयार किया है वह अपनी खूबसूरती और सुवास में अनुपम है। कथाकार की खूबियों की खुलकर तारीफ करना उनकी निष्पक्ष समीक्षा दृष्टि का सूचक है। कतिपय उदाहरण दृष्टिव्य हैं-
(क) ”कुछ कहानियाँ ऐसी होती हैं, जो अपने आप दिल से निकलती हैं। जैसे फूल से निकलने वाली खुशबू। जैसे झरने से बहता हुआ पानी। ऐसी कहानियों को सिर्फ पिरोना होता है, शब्द रूपी मोती में, कागज रूपी धागे पर। ऐसी रचनाओं में कोई थोपा हुआ संदेश नहीं होता है। ऐसी कहानियाँ पाठकों को लंबे समय तक याद रह पाती हैं। ऐसी ही कहानियाँ साहित्य का मान बढ़ाती हैं और ऐसी ही कहानियाँ इतिहास में जगह बनाती हैं। ‘रूठ मनौवल’ एक ऐसी ही कहानी है।“6
(ख) ”अनन्त कुशवाहा की कहानियों के आस्वादन के बाद एक ही बात कही जा सकती है, अद्भुत और अतुलनीय।“7
(ग) ”अरशद खान ने बाल मनोविज्ञान के स्तर पर अनेकानेक प्रयोग किये हैं। ये प्रयोग बाल-मन की परतों को बड़े सहज रूप में पाठकों के समक्ष रखते हैं और एक नई दुनिया का दीदार कराते हैं। ‘किराये का मकान’ एक ऐसा ही प्रयास है।“8
(घ) ”न सिर्फ बाल पाठकों बल्कि उन अभिभावकों के लिए भी यह उपन्यास (उषा यादव कृत ‘लाखों में एक’) एक आवश्यक पाठ की तरह शामिल किया जाना चाहिए, जो आज भी लड़कों और लड़कियों में भेद करते हैं।“9
और स्वयं ज़ाकिर?
‘मेरी कलम मेरे वजूद की निशानी है’ की स्वीकृति के रूप में यह पंक्ति उनके लेखकीय व्यक्तित्व को संपूर्णता से उदघाटित करती है। निश्चय ही एक संपादक के रूप में ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ ने हिंदी की श्रेष्ठ बाल कहानियाँ और उपन्यासों की सशक्त प्रस्तुति द्वारा अपनी नीर-क्षीर विवेकी संपादन-कला का परिचय दिया है उनकी यह प्रतिभा हिंदी की बाल कहानियों और उपन्यासों के साथ श्रेष्ठ बाल कविताओं के चयन में भी प्रकट हुई हैं। ‘151 बाल कविताएं’ की ‘अपनी बात’ में उनका मंतव्य है, ”बच्चे स्वयं में एक कविता हैं। उनकी हर बात में एक लय होती है। उनके हर काम में एक छंद होता है। शायद इसीलिए बचपन सभी को आकर्षित करता है।“10 (पृष्ठ संख्या 259)
संपादक रूप में उनका मानना है कि बच्चे कविता को सिर्फ पढ़ते ही नहीं, कंठस्थ भी कर लेते हैं और फिर जाने-अनजाने उन्हें अपने जीवन में उतार लेते हैं। पर सभी कविताएं बाल-मन को नहीं मोहतीं। जिनमें उनके मन की बातें होती हैं, उन्हीं के प्रति वे सहज रूप से आकर्षित होते हैं। उन्हें लगता है जैसे ये कविताऐं उन्हीं के लिए लिखी गई हैं। उन्हीं के लिए हैं। ऐसी कविताओं का चयन उन्होंने पूर्ण मनोयोग से करके अपनी संपादन कला में चार चांद लगा दिये हैं। यह उनकी बालसाहित्य की हर विधा के प्रति गहन संवेदनशील तथा विस्तीर्ण दृष्टि है कि उन्होंने हिन्दी के श्रेष्ठ नाटकों का संपादन भी किया है। इस प्रकार कहानी, उपन्यास, नाटक और कविता आदि विविध क्षेत्रों में मूल्यवान रचनाओं का संकलन करके उन्होंने आलोचकों को मुंहतोड़ जवाब दिया है, जिनका कहना है कि हिंदी बाल साहित्य नितांत निःसार है। मौलिक सृजन- बहुमुखी प्रतिभा के धनी ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ ने बाल साहित्य की विविध विधाओं को अपने मौलिक लेखन द्वारा भी परिपुष्ट किया है। पहले उनकी बाल कविताओं को लें। संख्या में कम बाल कविताएँ लिखने पर भी गुणवत्ता में वह कहीं पीछे नहीं रहे हैं। उनकी बालकविताओं में प्रकृति, बालमनोविज्ञान और बालक का समसामयिक जीवन प्रमुखता से चित्रित हुआ है। ‘मौसम’ कविता की इस एक पंक्ति में जिस जादुई अंदाज में परिवर्तनशील ऋतुओं की छवि का अंकन किया गया है। वह सराहनीय है, ”जादू की पुड़िया-सा मौसम रोज बदलता रहता।“
सम्मोहन की एक मोहक दुनिया जैसे इसी एक पंक्ति से सिरज जाती है और बच्चा स्वयं को उस बहाव में बहता हुआ पाता है -
”कुहरा कभी टूटकर पड़ता, चलती कभी हवाएँ
आए कभी यूं आंधी कि कुछ नहीं समझ में आये।“
बच्चे के लिए सभी कुछ चकित कर देने वाले दृश्य हैं। भयंकर कोहरे के कारण सर्दियों में उसके स्कूल बंद हो जाते है और भयंकर आंधी का उत्पात क्या कुछ कम डराता है उसे? कवि की बाल मन पर गहरी पकड़ स्वयंसिद्ध है।
यही कवि कौशल समसामयिक जीवन की त्रासदी चित्रित करने में व्यंजित हुआ है। ‘जरा-सा-प्यार’ में संपन्न परिवार का वह बालक है जिसके पास भौतिक सुख-सुविधाओं की कमी नहीं है, पर अपनी अतिव्यस्तता के चलते माता-पिता उसे समय (पृष्ठ संख्या 260) देने में असमर्थ हैं। ऐसे में वह बच्चा कीमती खिलौंनों और महंगे खिलौनों से भरी अलमारियाँ होने पर भी मां के प्यार का भूखा है। उसकी छोटी सी अभिलाषा है ”मांग रहा हूँ मम्मी तुमसे सिर्फ जरा-सा प्यार।“
यह कविता आज के संकटग्रस्त बचपन की झांकी है, जहाँ वीडियोगेम, क्रिकेट, कैरम जैसे खेल-खिलौनों से लदा होने पर भी बालक एकाकीपन की पीड़ा से संत्रस्त है। कोल्ड ड्रिंक तथा अन्य पेय पदार्थ भी उसे कहाँ तक पंसद आयेंगे? उसकी प्यास तो मां के नेह-सलिल की प्रत्याशा में है। वह समझदार है, जानता है, मां को घर आफिस की दोहरी जिम्मेदारी संभालनी है। पर उसकी भी मजबूरी है कि अकेलेपन की पीड़ा से दुःखी है। उस पर बस्ते का बोझ! बेबस बच्चा आखिर करे भी तो क्या?
‘चुपके से बतलाना’ कवि ज़ाकिर अली की एक ऐसी सुंदर बाल कविता है, जिसके शब्द-शब्द में बालसुलभ जिज्ञासा समाहित है। अपने नाना-दादा जैसे दिखने वाले बापू से तो वह मन की हर बात निःसंकोच पूछ ही सकता है न! फिर क्यों न पूछे-
”घड़ी हाथ में लेकर के तुम सदा साथ क्यों चलते
दांत आपके कहाँ गये, क्यों धोती एक पहनते
हमें बताओ, आखिर कैसे तुम खाते हो खाना
सपने में आकर के मेरे चुपके से बतलाना।“
‘चुपके से’ में बाल-मन का शरारती कौतूहल झांक रहा है। बाल-मन के अपने रहस्य होते हैं, जिन्हें वह चुपके से किसी राजदार के कान में कहकर खुश हो जाता है। बाल स्वभाव और बालक की चेष्टाओं के स्वाभाविक चित्रण ने इस बालकविता को विशिष्ट बना दिया है।
अब ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ की बाल कहानियों की बात करें। खासे लुभावने अंदाज में पेश की गई ये कहानियाँ बेशकीमती बन पड़ी है। इनमें परम्परा और प्रयोग का मणिकांचन संयोग है। पारम्परिक इस अर्थ में, क्योंकि यहाँ बच्चों के साथ-साथ उसका स्कूल और टीचर हैं, जबकि प्रयोगशीलता के तहत इनमें बाल-मन के उन सूक्ष्म तंतुओं को पकड़ा गया है, जिन पर इससे पूर्व किसी बाल साहित्यकार की निगाह नहीं पड़ी है। ज़ाकिर के लिए कहानी-लेखन कोई हठयोग की साधना नहीं, मात्र एक क्रीड़ा कौतुक है। किसी मनपसंद खेल की तरह कहानी उनके मन मस्तिष्क को झंकृत (पृष्ठ संख्या 261) करती है और फिर कागज के पृष्ठों पर अविराम उतरती चली जाती हैं। कोई श्रमसाध्य प्रयास नहीं है। यह तो एकदम उनके मनचाहे और सहज रूप से संपादित होने वाले कामों जैसी मनोरम प्रक्रिया है, जिसे वह रूचिपूर्वक घंटों कर सकते हैं। समस्या यही है, आज की मशीनी जिंदगी में इंसान के पास मनचाहा समय कहाँ है?
कहानी क्यों इतनी प्रिय है ज़ाकिर को, इसके लिए उनके बचपन के दिनों में झांकना जरूरी है। अपनी चुनी हुई कहानियों को ‘श्रेष्ठ बाल कथाएँ’ के अंतर्गत प्रस्तुत करते हुए उनका आत्मकथ्य भी किसी कहानी से कम रोचक नहीं है। बचपन में उनके घर में पढ़ाई का ज्यादा माहौल न था। फिर भी किताब, पत्रिका, समाचारपत्र जो भी हाथ लग जाये, उसे पढ़ना उनकी आदत में शुमार था। कहानी पढ़ने की ऐसी चाट, कि पचास पैसे प्रतिदिन पर किराये की पत्रिकाएँ लाते और पढ़कर सुख पाते। कोर्स की किताबों में छिपाकर ऐसी पढ़ाई कोई लती ही कर सकता है और यही दुर्व्यसन प्रायः हर बड़े बालसाहित्यकार को पता नहीं क्यों अपनी लपेट में लिये बिना नहीं रहता है। शायद यही बीजारोपण शनैः शनैः पल्लवित-पुष्पित होकर बाल कहानियों के विशाल वृक्ष के तने, पत्ते, शाखाएँ और फल-फूल का हेतु बनता है।
यह लत सिर्फ पढ़ने तक सीमित नहीं रहती, कुछ लिखने के लिए भी उकसाती है। जाहिर है, पढ़ाई-लिखाई की उस नादान उम्र में बच्चों का यह ‘भटकाव’ घर वाले सहन नहीं कर पाते और डांट-डपट कर इस पर अंकुश लगाने की कोशिश भी की जाती है। पर धारा का प्रबल प्रवाह ऐसे अवरोधों से रुकता है क्या? जितनी ज्यादा रोक-टोक उतनी ज्यादा सर्जना के लिए राह निकालने की नई से नई सूझ-बूझ। इसी दौर में बचपन कब बीत जाता है, लेखक नहीं जान पाता। जब होश आता है, तो वह स्वयं को एक सिद्धहस्त रचनाकर के रूप में पाता है।
इसी प्रक्रिया से गुजरते हुए ज़ाकिर ने बाल कहानियों का जो व्यापक लेखन किया उसने उन्हें एक प्रतिष्ठित बाल साहित्यकार बना दिया। उनकी बाल कहानियाँ बाल मनोविज्ञान के धरातल पर एकदम खरी उतरती हैं। ‘सुम्मी का सपना’, ‘बेबी माने अप्पी’, ‘मैं स्कूल जाऊंगी’ तथा ‘टी फार टीचर’ एक छोटी बच्ची को केन्द्र में रखकर लिखी गई ऐसी बाल कहानियाँ है, जिनमें शैशव की सारी मोहकता और मासूमियत मौजूद है। ‘सुम्मी का सपना’ उस नन्ही की कहानी है, जो अपनी बड़ी बहन (पृष्ठ संख्या 262) को स्कूल जाती देखकर स्वयं भी विद्यालय जाने के लिए लालायित है। उसकी अपनी दुनिया है, जिसमें वह है और उसके मीठे सपनों का कलरव है। कल्पना के व्योम की ऊंची उड़ानें भरते हुए वह थकती नहीं। कहानी में हमारा उससे पहला परिचय जमीन पर बैठकर एक खुली किताब सामने रखे हुए होता है। किताब के पृष्ठ पर बड़े अक्षर में ‘अ’ लिखा है और लाल रंग के एक बड़े अनार का चित्र बना है। सुम्मी की कल्पना की उड़ान जारी है, ”जब देखने में कितना प्यारा है तो खाने में... इस बार पापा से कहकर मंगवाऊंगी और हम और दीदी मिलकर खायेंगे।“
कल्पना का यह सुरम्य लोक अत्यन्त मोहक है। अगले पृष्ठ पर ‘आ’ से आम का चित्र है और मीठ-रसीले आम को लेकर सुम्मी की कल्पना भी कुछ कम मीठी नहीं है। सोचते-सोचते स्कूल, टीचर और कक्षा से जुड़ी कल्पनाओं की कमी नहीं है सुम्मी के मानस में। वह अपने आप में रसमग्न है भाव-विभोर है। ऐसे में जब मम्मी और दीदी आकर उसके हाथ में एक कापी थमाते हुए कहती हैं, ”लो सुम्मी, तुम्हारे लिए नई कापी।“ तो वह खुशी से फूली नहीं समाती। उसका सपना जो साकार होने जा रहा है।
ऐसी ही मिठास से भरपूर एक अन्य कहानी ‘बेबी माने अप्पी’ है। यहाँ भी शैशव की वही सरलता है, जो बरबस हमारे मन को मोह लेती है। नन्ही बानो का आज स्कूल में पहला दिन है। टीचर उसे बी फार बेबी पढ़ा रही हैं, पर वह इस पाठ को सीखने के लिए तैयार नहीं। टीचर तो बेबी का अर्थ बच्चा सिखाने पर तुली है और वह बेबी का अर्थ सिर्फ अप्पी जानती है। उसकी अप्पी का नाम बेबी है, तो फिर बेबी का अर्थ अप्पी के सिवाय कुछ और हो ही कैसे हो सकता है? टीचर की डांट उसके सिर के ऊपर से निकलनी ही है। क्रोध के अतिरेक से टीचर हाथ उठाते-उठाते रूक जाती हैं। दसवीं बार धीरज धरते हुए पूछती हैं, ”बोलो बेटे, बेबी माने...?
बानो ने पलकें झपकायीं, टीचर की तरफ देखा, धीरे से बोली ‘अप्पी’ और फिर जोर-जोर से रोने लगी।
निश्चय ही बालमनोविज्ञान की कसौटी पर ये कहानियाँ नितांत खरी उतरती हैं। इनमें एक बाल मन स्पन्दित हो रहा है, कुलांचें भर रहा है और मनोरम सपनों की दुनिया सजाकर स्वयं में ही रीझ-रीझ उठा है। ऐसी ही एक मनोरम कहानी ‘मैं स्कूल जाऊंगी’(पृष्ठ संख्या 263) है, जिसमें स्कूल को लेकर एक मासूम बच्ची के मन के नाना भय पिरोये हुए हैं । वह क्लास में सहज नहीं हो पाती, डरी-सहमी रहती है। पता नहीं उसकी किस गलती पर उसके साथ क्या सलूक किया जाये, उसकी समझ में नहीं आता है। पर टीचर का कोमल-स्नेहिल चेहरा उसके सारे भय और आशंकाओं को निर्मूलकर देता है। इतनी प्यारी टीचर के रहते हुए वह क्यों डरे? मुंह से सहसा निकल पड़ता है, ”मैं स्कूल जाऊंगी“
‘टी फार टीचर’ अंजुम की कहानी है। यहाँ भी वही शैशव काल है, जब पहली बार स्कूल जाने वाले बच्चे की मनःस्थिति को लेखक की कलम ने बड़ी सजगता से पकड़ा है। अंजुम को पड़ोस के शैतान लड़के सोनू के बारे में जानकारी है, जो अपनी नित नई शरारतों की वजह से स्कूल में टीचर की डांट खाता है। अब गलती किसी की भी हो, पर डांट तो सोनू को ही पड़ती है न! बाल सुलभ सरलता के कारण अंजुम कारण की तह तक नहीं पहुँचता, सिर्फ स्कूल और टीचर के नाम से मन में एक भय पाल लेता है। बड़ी मुश्किल से माता-पिता उसे स्कूल जाने के लिए तैयार करते हैं। अंजुम को जब कक्षा में अपने जैसे प्यारे-प्यारे छोटे बच्चे और मम्मी जैसी स्नेहिल टीचर दिखती हैं, तो उसके हृदय के सारे भय एकाएक दूर हो जाते हैं। वह मनोरम कल्पनाओं में निमग्न है कि अचानक पास खड़ी टीचर का सवाल उसके कानों में पड़ता है, ‘टी फार’?
”टीचर।“ अनायास ही अंजुम के मुंह से निकल पड़ता है और कहानी का एक सुखद अहसास के साथ समापन हो जाता है।
सिर्फ यही नहीं, ज़ाकिर की बालकहानियों में और भी विविध रंग और स्वाद भरे हैं। ‘रूबी का रोबोट’ एक ऐसी कहानी है, जिसमें बाल-मन की रीझ-खीझ और करुणा एक साथ विद्यमान हैं। रूबी के लंदन वाले अंकल उसके लिए एक रोबोट लाये हैं, जो किसी के द्वारा नाम पूछने पर बड़ी शान से बताता है, ”मेरा नाम रोबो है।“
सच, बड़ा मजेदार खेल था यह और रूबी के सब दोस्तों ने इसे बहुत पसंद किया। पर रूबी सिर्फ इसी एक सवाल से संतुष्ट कैसे हो सकती थी? वह तो रोबोट से उसके माता-पिता, खेल-खिलौनों आदि के बारे में भी बहुत कुछ जानना चाहती थी। हर सवाल के उत्तर में वही एक वाक्य सुनकर रूबी खीझ कर रोबोट को नीचे पटक (पृष्ठ संख्या 264) देती है और फिर जब टूटे खिलौने के मुंह से कोई आवाज नहीं निकलती, तो करुण कंठ से कह उठती है, ”रोबो, तुम बोलते क्यों नहीं? तुम्हें बहुत चोट लगी है न? प्लीज़, मुझे माफ कर दो। मुझे माफ कर दो रोबो। अब मैं तुम्हें कुछ नहीं कहूंगी। तुमसे कुछ नहीं पूछूंगी।“
कहते-कहते रूबी का गला भर आना, पलकें डबडबा उठना और गुलाब से गालों के ऊपर आंसुओं की पतली धार का बहना उस नन्ही बच्ची के संवेदनशील मन की पूरी झलक दिखा देता है। निश्चय ही यह कहानी बाल-मन की मासूमियत और करुणा के धूपछांही ताने-बाने से बुनकर अति सुंदर कलेवर को प्राप्त हुई है।
और भी बहुत सी सुंदर कहानियाँ हैं जाकिर की कथा मंजूषा में।
‘अनजाना चेहरा’ एक ऐसी कहानी है, जिसमें बियावान रेगिस्तान जैसी जगह को हरा-भरा बनाने वाले एकाकी शख्स का वृक्षारोपण का जादू है। ‘सबसे बड़ा पुरस्कार’ में वह अकरम है, जो अम्मी को बीमार हालत में छोड़कर जिले की दौड़ प्रतियोगिता में जीता इनाम लेने नहीं जाता। उसे बीमार मां की सेवा किसी भी पुरस्कार से ज्यादा बड़ी प्रतीत होती है। ‘सपनों का गांव’ पर्यावरण की शुद्धता से जुड़ी कहानी है। ‘आत्मविश्वास की परीक्षा’ एक स्कूली बच्चे की आत्मविश्वास के बल पर मिलने वाली सफलता को चित्रित करती है। ‘मनसुखा की सीख’ में एक अहंकारी बालक के व्यक्तित्व में बदलाव का चित्र है और यह परिवर्तन गांव के सीधे-सादे मनसुखा के सदाचरण को देखकर आया है। ‘सुपर मैन’, ‘मदद करो कम्प्यूटर’, ‘देश की खातिर’, ‘बातों के बताशे’, ‘थोड़ी-सी खुशी’, ‘चाकलेट चोर’ तथा ‘रंगों का जादू’ जैसी कहानियों में बाल जीवन और बाल संसार से जुड़े नाना चित्र अपनी शोभा बिखेर रहे हैं। निश्चय ही हिंदी बाल कहानी को संपन्न बनाने में जाकिर अली रजनीश का महत्वपूर्ण योगदान है।
ऐतिहासिक और वैज्ञानिक कहानियाँ लिखकर जाकिर ने हिंदी बाल कहानी का बहुमुखी सौंदर्य-वर्धन किया है। इनकी विज्ञान कथाएँ या विज्ञान फैंटेसी कथाएँ एक ओर मनोरंजन के द्वार खोलती हैं, तो दूसरी ओर खेल-खेल में विज्ञान के जटिलतम सिद्धांतों को बोधगम्य बनाती हैं और एक नये रहस्यलोक के सृजन से हमें कभी परिचित तो कभी अचम्भित करती हैं। ‘विज्ञान की कथाएँ’ (2006) में उनकी (पृष्ठ संख्या 265 ) इक्कीस विज्ञान कथाएँ संग्रहीत हैं। इनमें ‘नेमो मेरा नौकर’, ‘समय के साथ’, ‘मेरा क्लोन दो’ और ‘अंतरिक्ष का स्टेशन’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनमें वैविध्य के साथ विश्वसनीय वैज्ञानिक परिवेश का चित्रण है। ये कहानियाँ नवीनतम वैज्ञानिक खोजों से जुड़ी हैं और खानापूरी के लिए लिखी जाने वाली हिंदी की विज्ञानपरक बालकहानियों से नितांत पृथक् है। स्वयं लेखक का मानना है कि हिंदी में लिखी जा रही विज्ञानकथाएँ कल्पना के अतिरेक से इतनी बोझिल होती हैं कि यथार्थ-बोध से परे पहुंच जाती हैं। उनके शब्दों में, ”अतिरंजित कल्पनाओं से त्रस्त इन कहानियों में जिस चीज का बुरी तरह से अभाव खलता है, वह है तर्कबद्धता और विश्वसनीयता।“11
‘सात सवाल’, ‘समय के पार’ और ‘हम होंगे कामयाब’ जैसे उपन्यास लिखकर जाकिर अली ‘रजनीश’ ने बाल उपन्यासों के क्षेत्र में अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज की है। ‘सात सवाल’ में हातिमताई की कहानी को प्रासंगिकता दी गई है। ‘समय के पार’ विज्ञान फंतासी है, जो अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाज़ा जा चुका है। ‘हम होंगे कामयाब’ एक ऐसा सफल जासूसी उपन्यास है, जिसका प्रभाव देर तक पाठक के मन पर पड़ा रहता है। स्वयं लेखक ने अपने इस बाल उपन्यास के बारे में लिखा है, ”हिंदी में लिखे गये साहसिक उपन्यासों के साथ आम तौर से यह दिक्कत रहती है कि उसके पात्र होते तो हैं सामान्य बच्चे, किंतु काम ‘जेम्सबाण्ड’ के अंदाज में करते हैं। सुकून की बात यह है कि ‘हम होंगे कामयाब’ इस अतिनाटकीयता का शिकार होने से बच गया है। बाल मजदूरी पर केंद्रित इस उपन्यास की पठनीयता को बढ़ाने में भाषा के लालित्य का योगदान है। कथानक और भाषा का ऐसा संगम बहुत कम रचनाओं में देखने को मिलता है।“12
उपन्यास बाल-श्रम के उन्मूलन पर आधृत है। एक गरीब बच्चे किशोर को अत्यंत लोभी और क्रूर सेठ लक्खूलाल ने कैद कर रखा है। उस जैसे तमाम बच्चे सेठ की कैद में हैं और बाल मजदूरी का शोषण-चक्र बेरोकटोक चल रहा है। ऐसे में दो स्कूली छात्र रवि और अंजुम इस बाल-श्रम को खत्म करने की दिशा में पूरी योजनानुसार काम करके सफलता पाते हैं।
कथ्य और शिल्प की दृष्टि से यह उपन्यास अत्यंत प्रभावशाली बन पड़ा है। इसमें कथा-सूत्र का आदि से अंत तक सफल निर्वाह है। रोचकता निरंतर बनी रहती है (पृष्ठ संख्या 266) और ‘आगे क्या हुआ’ जानने की जिज्ञासा पाठक में आदि से अंत तक समाई रहती है। कथानक पूर्णतः सुगठित है और तर्कसंगत घटनाओं के चलते अत्यंत स्वाभाविक बन पड़ा है। इसमें बाल अधिकारों की बात बड़ी गंभीरता से कही गई है। बच्चों के चरित्र- चित्र की रेखाओं में गहरे और हलके रंगों के संयोजन से जो शेड्स दिये गये हैं, वे अत्यंत प्रभावशाली हैं। बंधुआ मजदूर के रूप में रहने वाला किशोर देखने से ही कितना दीन-हीन प्रतीत होता है, यह इन पंक्तियों से स्पष्ट है, ”उम्र लगभग तेरह वर्ष, पतला-दुबला शरीर, मैले-कुचैले कपड़े, धूल सने बाल और चेहरे पर तैरते भय मिश्रित दीनता के भाव।“13
परिवेश चित्रण भी इतना सजीव है कि वर्णन को पढ़ते साथ चित्रित दृश्य हमारी आंखों में साकार हो उठता है, ”डरते-डरते अंजुम ने टार्च की रोशनी अंदर फेंकी। अंदर उन्हीं के हमउम्र बीसों लड़के पुआल पर लेटे थे। ठंड के कारण उनके शरीर अकड़कर गठरी बने जा रहे थे।“14
वर्णन में चित्रोपमता का सन्निवेश इन पंक्तियों द्वारा कितने कौशल से हुआ है, देखिए, ” ‘तड़।’ लक्खूलाल के एक करारे झापड़ से वह लड़खड़ा गया। आंखों के आगे अंधेरा छा गया और वह गिरते-गिरते बचा। अपने आपको संभालने का प्रयत्न करते हुए उसने कुछ कहने का प्रयत्न किया, पर जबान ने बीच में ही उसका साथ छोड़ दिया।“15
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जाकिर अली ‘रजनीश’ ने बालसाहित्य को सम्पन्न बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। श्रेष्ठ संपादन द्वारा यदि वह अन्य बाल साहित्यकारों के साहित्य का नवनीत सामने लाये हैं, तो मौलिक सृजन द्वारा अपनी कलम से हिंदी बालसाहित्य के भंडार की विविध विधाओं की श्री वृद्धि की है। हिंदी बालसाहित्य के संवर्द्धन-परिवर्द्धन की दिशा में उनसे बहुत आशाएँ हैं।
संदर्भ:
1. इक्कीसवीं सदी की बाल कहानियाँ - सं. जाकिर अली ‘रजनीश’, नीरज इंटरप्राइजेज लखनऊ प्रथम सं. 19982. उपर्युक्त
3. वही (पृष्ठ संख्या 267)
4. वही
5. समय का दस्तावेज़, भूमिका - ग्यारह बाल उपन्यास, (पृ. 9) सं. ज़ाकिर अली रजनीश, वर्षा प्रकाशन इलाहाबाद, प्रथम सं. 2006
6. यादराम रसेन्द्र की श्रेष्ठ बाल कथाएँ - सं. जाकिर अली ‘रजनीश’, लहर प्रकाशन इलाहाबाद प्रथम सं. 2008
7. अनन्त कुशवाहा की श्रेष्ठ बाल कथाएँ, शेष संदर्भ उपर्युक्त
8. मोहम्मद अरशद खान की श्रेष्ठ बाल कथाएँ, प्रथम सं. 2012, शेष संदर्भ उपर्युक्त
9. ग्यारह बाल उपन्यास, सं. जाकिर अली रजनीश, प्रकाशन 2006
10. 151 बाल कविताएँ - सं. ज़ाकिर अली ‘रजनीश’, यश पब्लिकेशंस, मुम्बई प्रथम सं. 2003
11. ‘अपनी बात’, प्रतिनिधि बाल विज्ञान कथाएँ, सं. जाकिर अली ‘रजनीश’, विद्यार्थी प्रकाशन, लखनऊ, प्रथम सं. 2003
12. 11 बाल उपन्यास - सं. ज़ाकिर अली रजनीश, वर्षा प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम सं. 2006, भूमिका
13. वही, पृ. 68
14. वही, पृ. 79
15. वही, पृ. 99 (पृष्ठ संख्या 268)
बचपन की दुनिया के अनमोल लम्हों से रूबरू कराती सुंदर पोस्ट, बधाई!
हटाएंआपकी बहुआयामी योग्यता का यह छोटा सा चित्र बहुत सुंदर है। हार्दिक बधाई।
हटाएंबहुत बहुत शुक्रिया।
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