ओशो का जीवन परिचय Osho Life History in Hindi किसी फिल्मी कहानी के समान है। इसीलिए सिर्फ वे लोग ही नहीं जो ओशो से प्रभावित हैं और उन्हें पस...
ओशो एक ऐसे रहस्यवादी और आध्यात्मिक गुरू के रूप में जाने जाते हैं, जिसने अपने क्रान्तिकारी विचारों से भारतीय समाज, धर्म और बहुत हद तक सरकारों तक को झकझोर दिया। उनके द्वारा प्रस्तुत की गयी इस चुनौती का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि अमेरिका और रशिया समेत दुनिया के 21 देशों की सरकारों ने उनके आने पर प्रतिबंध लगा दिया था। उन्हें डर था कि कहीं उनके विचारों के कारण उनकी सरकार ख़तरे में न पड़ जाए।
बेहद विलक्षण और मोहनी शक्ति के स्वामी ओशो का सिर्फ जीवन Osho Biography in Hindi ही नहीं, बल्कि देहावसान भी विवादास्पद रहा, जिसपर आज भी रहस्य का पर्दा कायम है। इसीलिए हम आज आपके लिए ओशो की जीवनी हिंदी में लेकर आए हैं। हमें उम्मीद है कि आपको यह जानकारी पसंद आएगी।
ओशो का जीवन परिचय Osho Life History in Hindi
ओशो का जन्म 11 दिसम्बर 1931 को मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के कुचवाड़ा गांव में हुआ था। जन्म के समय उनका नाम रखा गया था चंद्र मोहन जैन। बचपन से ही उनकी पढ़ाई में बेहद रूचि थी। वे खाली समय में अक्सर लाइब्रेरी में बैठ कर किताबें पढ़ा करते थे और एक एक दिन में कई कई किताबें पढ़ जाते थे।
ओशो का प्रारम्भिक जीवन Osho Rajneesh Early Lfe
उन्होंने डी.एन. जैन कॉलेज, जबलपुर से ग्रेजुएशन और सागर यूनिवर्सिटी से दर्शनशास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएशन किया और फिर 1957 में रायपुर के संस्कृत कालेज में लेक्चरर बन गये।
सन 1958 में वे जबलपुर यूनिवर्सिटी में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर के रूप में नियुक्त हुए। वहां पर उन्होंने 1966 तक पढ़ाया। लेकिन इसके साथ ही वे पूरे देश में घूम-घूम कर अपने विचारों की अलख भी जगाते रहे।
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1966 में नौकरी छूटने के बाद उन्होंने अपने वैचारिक अभियान पर ध्यान केंद्रित किया। इसके साथ ही वे देश के विभिन्न शहरों में 10 दिवसीय ध्यान शिविर भी आयोजित करने लगे। इस क्रम में उन्होंने अनेक क्रांतिकारी ध्यान प्रक्रियाओं से दुनिया का परिचय कराया, जिसे डॉक्टरों और शिक्षकों ने भी बहुत पसंद किया।
ओशो का मुम्बई प्रवास Osho Centre Mumbai
वर्ष 1970 के जुलाई माह में ओशो मुम्बई चले गये। वहां पर उन्होंने स्वयं को भगवान घोषित कर दिया और अपने अनुयायियों को नव-संयासी का नाम दिया। इसी बीच उनकी पुस्तकों के अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हुए। जिससे उनकी लोकप्रियता देश की सीमाओं के पार जा पहुंची और अमेरिका व यूरोप के लोग बड़ी संख्या में उनके शिष्य बने।
ओशो ने समाज के रूढिवादी ढर्रे और नजरिये की मुखर आलोचना की। उन्होंने समाज में रहते हुए सन्यास की नई अवधारणा लोगों के सामने रखी, जिसमें संयासी बनने के लिए समाज को त्यागने की आवश्यकता नहीं थी। इसके साथ ही उन्होंने लोगों को स्वयं के आनंद के लिए जीने को प्रेरित किया। वे प्रेम को ध्यान का मूल बताते थे और जीवन के हर क्षण को उत्सव की तरह इन्ज्वॉय करने की सीख देते थे।
ओशो धर्म के मुखर आलोचक थे और मानवी कामुकता पर भी सार्वजनिक मंचों से अपनी राय रखने में परहेज नहीं करते थे। इसीलिए उनपर 'सेक्स गुरू' का ठप्पा भी लगा। इसमें उनकी पुस्तक 'सम्भोग से समाधि की ओर' ने भी महत्वपूर्ण रोल अदा किया, जिसे लोगों ने बिना पढ़े ही बदनाम करना शुरू कर दिया। लेकिन जब वैश्विक स्तर पर उनके विचारों और उनकी ध्यान पद्धति को सराहा गया, तब समाज में उनकी इमेज बदली और वे सभ्य समाज में थोड़ा सम्मान के साथ देखे जाने लगे।
सन 1974 में ओशो ने पुणे में 'ओशो कम्यून' नाम से अपना आश्रम स्थापित किया, जहां वे 1981 तक सक्रिय रहे। 1980 में उनकी तबियत कुछ खराब रहने लगी, जिसकी वजह से उन्होंने मौन व्रत धारण कर लिया और तीन सालों तक उसका पालन करते रहे।
रजनीशपुरम की स्थापना Osho Rajneeshpuram
1981 में ओशो अपने भक्तों के आग्रह पर इलाज के लिए अमेरिका गये। बाद में वे अमेरिका में ही बस गये। उनके भक्तों ने अमेरिका के सेंट्रल ओरेगॉन नामक रेगिस्तानी इलाके में 64 एकड़ एरिये में उनका आश्रम स्थापित किया, जिसे रजनीशपुरम नाम दिया गया।
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ओशो के उस आश्रम की धमक दूर दूर तक पहुंची। उस आश्रम की भव्यता का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि उसके भीतर उनके अपने मॉल्स, अपना हवाई अड्डा, अपनी पुलिस और यहां तक कि अपनी हवाई सेवा भी थी।
सन 1985 में ओशो ने अपने सार्वजानिक प्रवचनों को पुनः शुरू किया। वे प्रात:काल में आश्रम के विशाल ध्यान केंद्र में अपना प्रवचन देते थे, जिससे सुनने के लिए हजारों की तादात में लोग इकट्ठा होते थे।
ओशो की गिरफ्तारी एवं निर्वासन
1985 के अंत में ओशो का आश्रम उस समय अचानक से विवादों में घिर गया, जब उनकी सेक्रेटरी मां आनंद शीला और कम्यून के बहुत से सदस्यों ने उनका आश्रम छोड़ दिया। उन्होंने आश्रम के सदस्यों के उपर फोन टेपिंग और गैरकानूनी कामों में शामिल होने के आरोप लगाए, जिसमें स्थानीय निवासियों पर सलमोनेला नामक जहरीले वैक्टीनिया का छिड़काव भी शामिल था, जिसकी वजह से वहां सैकड़ों लोग बीमार हो गये थे।
पुलिस को इस जांच में रजनीशपुरम आश्रम में बैक्टीरिया से सम्बंधित रिसर्च सामग्री और फोन टेप करने वाले यंत्र भी बरामद हुए। इस अपराध में पुलिस ने ओशो के कई शिष्यों को गिरफ्तार किया, जिसमें से 3 को सजा भी हुई।
स्थानीय निवासियों के विरोध और चर्च की नाराजगी के कारण तत्कालीन अमेरिकी सरकार ने ओशो को भी गिरफ्तार कर लिया और उन्हें जेल में बंद कर दिया गया। ओशो करीब 12 दिन तक जेल में रहे। बाद में उनसे 4 लाख डॉलर का जुर्माना वसूल करके जेल से रिहा किया गया लेकिन इसके साथ ही उन्हें पांच सालों के लिए अमेरिका से निर्वासित कर दिया गया।
अमेरिका से निर्वासित होने के बाद ओशो 30 दिन के टूरिस्ट वीजा पर ग्रीस चले गये। लेकिन चर्च के दबाव में 18वें दिन ही ग्रीस की पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और जबरन देश से बाहर भेज दिया। इसके बाद ओशो ने स्विटरजरलैंड, स्वीडन, इंग्लैण्ड और रशिया सहित 21 देशों में टूरिस्ट वीजा के लिए आवेदन किया, लेकिन किसी भी देश की सरकार ने उन्हें अपने देश में आने की अनुमति नहीं प्रदान की। हां, उरूगवे ने जरूर उन्हें अपने यहां शरण दी, पर अमेरिकी दबाव के कारण उसे भी कुछ ही दिनों में ओशो को अपना देश छोड़ने का आदेश जारी करना पड़ा।
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भारत वापसी
ओशो अंतत: 29 जुलाई 1986 को मुंबई वापिस आ गये। जनवरी 1987 में वे पुणे के कोरेगांव पार्क इलाके में स्थित अपने आश्रम ओशो कम्यून चले गये, और ध्यान व प्रवचन की दिनचर्या में फिर से रम गये।
ओशो के शिष्यों का दावा है कि जब वे अमेरिका की जेल में 12 दिन के लिए बंद थे, तो उन्हें स्लो प्वाइज़न दिया गया था, जिसकी वजह से धीरे धीरे उनका शरीर कमजोर पड़ने लगा था। इसकी वजह से पहले उन्होंने अपने प्रवचनों की संख्या कम की, फिर बाद में उसे बिलकुल बंद कर दिया। लेकिन भक्तों के आग्रह पर वे नियमित रूप से उन्हें दर्शन देने जरूर जाते थे। उनका यह कार्यक्रम गौतम बुद्ध प्रेक्षागृह में होता था, जिसमें वे मौन रहकर शिष्यों को अपना आशीर्वाद देते थे।
सन 1989 की शुरूआत में उन्होंने भगवान नाम का उपयोग करना छोड़ दिया था। अब वे स्वयं को रजनीश के नाम से ही सम्बोधित करते थे। लेकिन उनके भक्त उन्हें ओशो कहकर बुलाने लगे थे। ओशो लैटिन शब्द ओश्निक से उत्पन्न् माना जाता है, जिसका अर्थ होता है सागर में विलीन हो जाना।
ओशो का निधन Osho Death information in Hindi
और अंतत: वह दिन भी आया, जब वे सचमुच भवसागर में विलीन हो गये। वह 19 जनवरी 1990 का दिन था, जब उन्होंने इस संसार को अलविदा कहा। ओशो इंटरनेशल फाउंडेशन के अनुसार उन्होंने शाम पांच बजे अपनी देह त्यागी। उसी दिन शाम सात बजे कुछ समय के लिए गौतम बुद्धा प्रेक्षागृह में उनके शरीर को अंतिम दर्शन के लिए रखा गया और फिर आश्चर्यजनक रूप से कुछ ही समय बाद उनका अन्तिम संस्कार कर दिया गया।
ओशो ने अपने पीछे जो बौद्धिक सम्पदा छोड़ी है, उसमें 9 हजार घंटे के आडियो प्रवचन, 1870 घंटे के वीडियो प्रवचन, 850 पेंटिंग, 65 भाषाओं में उनके प्रवचनों पर आधारित 650 किताबें, मेडिटेशन म्यूजिक, और थेरेपीज शामिल हैं, जिससे उनके वारिस ओशो इंटरनेशल फाउंडेशन को 100 करोड़ से अधिक की आय होती है।
कहा जाता है कि ओशो ने एक वसीयत के द्वारा ओशो इंटरनेशल फाउंडेशन को ये अधिकार प्रदान किये थे। ये वसीयत 3 जून, 2013 को तब सामने आई थी, जब स्पेन की एक अदालत में ओशो की बौद्धिक सम्पदा को लेकर एक मुकदमा दर्ज हुआ था।
इस वसीयत के सामने आने के बाद ओशो के एक अनुयायी योगेश ठक्कर ने नवम्बर 2013 में ओशो इंटरनेशल फाउंडेशन के ट्रस्टियों के खिलाफ पुणे, महाराष्ट्र की कोरेगांव पुलिस चौकी में एक एफआईआर दर्ज करवायी थी। उनका आरोप है कि ट्रस्ट के 6 ट्रस्टियों ने अपने फायदे के लिए ओशो के फर्जी हस्तक्षर से ये वसीयत तैयार की है और वे ओशो की बौद्धिक सम्पदा को हड़पना चाहते हैं।
मृत्यु सम्बंधी रहस्य Osho death mystery in Hindi
ओशो के वसीयत सम्बंधी विवाद के सामने आने के बाद यह विवाद भी एकदम से उठ खड़ा हुआ कि उनकी मृत्यु सामान्य थी अथवा नहीं। इस सवाल को जन्म देने में डॉ0 गोकुल गोकाणी का प्रमुख नाम है, जिन्होंने ओशो का डेथ सार्टिफिकेट जारी किया था।
ओशो की मृत्यु के 25 साल बाद वर्ष 2015 में डॉ0 गोकुल गोकाणी ने अदालत में एक हलफनामा दाखिल करके यह दावा किया था कि 19 जनवरी, 1990 को दोपहर 1 बजे से लेकर शाम 5 बजे तक जो कुछ घटा वह रहस्यमी था और वे इसके अहम गवाह हैं।
डॉ. गोकाडी के अनुसार उन्हें उस रोज दोपहर 1 बजे अपने लेटर हेड और इमरजेंसी किट के साथ आश्रम में बुलाया गया और कहा गया कि ओशो अपनी देह त्याग रहे हैं। वे डेढ़ बजे के आसपास आश्रम पहुंच गये, लेकिन इसके बावजूद उन्हें ओशो से नहीं मिलने दिया गया। उन्होंने अपने हलफनामे में कहा है कि मुझे शाम बजे उनके पास ले जाया गया, जब वे देह त्याग चुके थे। डॉ. गोकाड़ी के अनुसार वे लगभग एक से डेढ़ घंटे पहले देह त्याग चुके थे। उस समय उनके मुंह पर उलटी जैसे निशान थे और एक हाथ पर अन्न के कण भी देखे, जिसने मेरे मन में संदेह उत्पन्न कर दिया।
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उन्होंने बताया कि उस वक्त आश्रम में डॉ. गोकाडी सहित अनेक डॉक्टर मौजूद थे, लेकिन ओशो को देह त्यागने से पहले किसी डॉक्टर को नहीं दिखाया गया। डॉ. गोकाडी के अनुसार उनपर ओशो की मृत्यु का कारण हार्ट लिखने के लिए दबाव डाला गया और उनका अंतिम संस्कार होने तक एक कमरे में बंद रखा गया।
ओशो के निधन के दिन उनकी निजी सचिव, मां नीलम भी आश्रम में मौजूद थीं। वे 45 साल तक ओशो के साथ रही थीं, और आश्रम का मैनेजमेंट संभालने वाली बॉडी इनर सर्कल की मेम्बर थीं। उन्हें शाम साढ़े पांच बजे ओशो के निधन की सूचना दी गयी। साथ ही उन्हें यह जिम्मेदारी भी दी गयी कि वे ओशो की मां तक यह सूचना पहुंचा दें। ओशो की मां उस समय आश्रम में ही थीं। उन्हें जब मां नीलम ने ओशो के निधन की सूचना दी, तो उनके मुंह से इतना ही निकला- इन लोगों ने मार डाला, नीलम, इन लोगों ने मेरे बेटे को मार डाला।
इससे पूर्व मां आनंद शीला, जोकि ओशो की शिष्या रह चुकी थीं, ने भी ओशो की मौत को लेकर सवाल उठाए थे। उन्होंने डॉ गोकाडी के हलफनामे के बाद कहा कि ओशो की मौत को लेकर जो शक मुझे शुरू से रहा, वो अब यकीन में बदल गया है कि उनकी मौत कुदरती नहीं थी, उन्हें मारा गया था।
डॉ. गोकाडी, ओशो की सगी मां और ओशो की शिष्या मां आनंद शीला की तरह ही उनके शिष्य योगेश ठक्कर को भी कहीं न कहीं यह लगता है कि ओशो की मृत्यु के पीछे उनकी फर्जी वसीयत का हाथ है। इसीलिए जब योगेश ठक्कर ने देखा कि पुणे की कोरेगांव पुलिस चौकी में दर्ज उनकी एफआईआर में कोई कार्यवाही नहीं हो रही है, तो उन्होंने 2016 में मुम्बई हाईकोर्ट में एक मुकदमा दायर किया।
पर फिलहाल पुरानी एफआईआर की तरह ही कोर्ट में यह मुकदमा भी लम्बित है और इसी के साथ ही ओशो की मौत पर पड़ा पर्दा भी ज्यों का त्यों धूल खा रहा है। पर हम उम्मीद करते हैं कि जल्द ही यह केस किसी नतीजे तक पहुंचेगा और और एक न एक दिन ओशो की मौत पर पड़ा हुआ पर्दा उठ सकेगा। सिर्फ योगेश ठक्कर ही नहीं उनके लाखों शिष्यों को भी उस दिन का इंतज़ार है!
यूट्यूब पर देखें ओशो की जीवनी:
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