Children's Literature In Hindi
('जनसंदेश टाइम्स', 13 नवम्बर, 2011)
तुम उन्हें अपना प्यार दे सकते हो/लेकिन विचार नहीं/क्योंकि उनके पास अपने विचार होते हैं/तुम उनका शरीर बंद कर सकते हो/लेकिन दिमाग नहीं/क्योंकि उनकी आत्मा उनके कल में निवास करती है/तुम उसे नहीं देख सकते/सपनों में भी नहीं देख सकते/तुम उनकी तरह बनने का प्रयत्न कर सकते हो/लेकिन उन्हें अपनी तरह बनाने की इच्छा मत रखना/क्योंकि जीवन पीछे की ओर नहीं जाता/और न ही बीते हुए कल के साथ रूकता ही है। -खलील जिब्रान।
बच्चे यानी प्रेम एवं निश्छलता की साक्षात मूर्ति, बच्चे यानी परिवार की सबसे छोटी इकाई, बच्चे यानी परिवार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी, बच्चे यानी माँ-बाप की सबसे बड़ी ‘मुसीबत’, बच्चे यानी आज के महानगरों के एकल परिवारों में भी माँ-बाप के बीच के दरकते रिश्तों को बाँधे रखने वाली डोर। बच्चों की परिभाषाएँ बहुत सारी हैं। जो व्यक्ति जैसी सोच और जैसी मानसिकता का होता है, वह बच्चों को वैसी ही परिभाषा में ढ़ाल लेता है। वैसे शायरों, कवियों और गीतकारों ने बचपन को जीवन की सबसे सुंदर अवस्था बताया है, पर हाल के कुछ दशकों में बचपन चिंता का विषय बन गया है। परिवार की जबरदस्त आकाँक्षाओं, बाजार की धारदार रणनीतियों और भूमण्डलीकरण के कारण मनोरंजन के बदलते मानदण्डों ने बचपन के सामने अनेकानेक खतरे उत्पन्न कर दिये हैं।
किसी जमाने में जब संयुक्त परिवार हुआ करते थे, बच्चों का बचपन दादा-दादी, चाचा-चाची, चचेरे भाई-बहनों के बीच पुष्पित और पल्लवित हुआ करता था। तब उनके पास धूल-मिट्टी से भरे खेल थे, गली-मोहल्लों की छुपन-छुपाई थी और थे दादा-दादी के रोचक व रोमांचक किस्से। लेकिन अब यह सब बीते जमाने की बातें हैं। अब आर्थिक आवश्यकताएँ परिवारों की सबसे कटु सच्चाई हैं, जिसमें माँ-बाप और उनके बच्चों के अलावा किसी ‘तीसरे’ के लिए जगह ही नहीं बची है। सुरसा की तरह मुँह बाती हुई मंहगाई और आश्चर्यजनक रूप से बढ़ती हुई उपभोक्तावादी संस्कृति का जादू समाज पर कुछ इस तरह से चला है कि अब मध्यमवर्गीय परिवार के मुखिया के लिए औसतन चार लोगों के परिवार का खर्च वहन करना भी दूभर हो गया है। यही कारण है कि अब पिता के साथ-साथ माँ के लिए भी नौकरी करना दिन-प्रतिदिन जरूरी होता जा रहा है।
स्कूल और होमवर्क के अतिरिक्त आज जो समय बच्चों के पास अवशेष बचता है, उस पर टेलीविजन की रंगीन दुनिया ने कब्जा जमा रखा है। इस दुनिया के लिए परिवार एक बाजार है और बच्चे उसके सबसे सॉफ्ट टार्गेट। इस बाजार के नियंताओं को मालूम है कि बच्चे सिर्फ टॉफी, चॉकलेट, आइसक्रीम और कोल्ड ड्रिंक्स ही नहीं खरीदते, वे कपड़ों, घरेलू सामान, इलेक्ट्रानिक्स गैजेट्स, टीवी और कम्प्यूटर की खरीद में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस बाजार की सूत्रधार मल्टीनेशनल कम्पनियाँ जानती हैं कि बच्चों के लिए आज के माँ-बाप पैसा खर्च करना गर्व की बात समझते हैं। इसीलिए ये आक्रामक रणनीति के बल पर प्रतिवर्ष भारत में 200 करोड़ रू0 की आइसक्रीम और 1000 करोड़ के खिलौने बेचने में सफल हो जाती हैं। यह इन कम्पनियों के जादुई विज्ञापनों का ही प्रभाव है कि आज के बच्चे दूध, रोटी, खीर, दलिया, फल, सूखे मेवे जैसे पोषक पदार्थों में रूचि नहीं लेते हैं और बर्गर, पिज्जा, चाऊमीन, कोल्ड ड्रिंक्स, केक और पेस्ट्री शौक से खाते हैं।
आधुनिक जीवन शैली के इस मकड़जाल तक बच्चों को लाने में संचार क्रान्ति की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। मोबाइल, कम्प्यूटर, इंटरनेट, टीवी, वीडियो गेम आज जिस गति से व्यक्ति के जीवन से मानवीय सम्बंधों को बेदखल करते जा रहे हैं, वह चिंता का विषय है। गौरतलब है कि एक दशक पहले तक जो कार्टून और वीडियो गेम पहले मनोरंजन और रोमांच की अनुभूति कराते थे, हाल के वर्षों में उनमें तेजी से हिंसा और ‘एडल्ट कंटेन्ट’ का प्रवेश हुआ है। बेन टेन, पॉवर रेंजर्स, रायूकेन्डो, सुपर रोबोट, हन्टिक जैसे तमाम कार्टूनों में इस बात को भलीभाँति देखा जा सकता है।
हाल के दशक में बच्चों की खाद्य रूचियों में आने वाले इन परिवर्तनों तथा मनोरंजन के बदलते मानदण्डों का दुष्परिणाम जहाँ एक ओर बच्चों के तेजी से बेडौल होते शरीर के रूप में सामने आ रहा है, वहीं उनका मानस भी विभिन्न विकारों का लोकप्रिय स्थल बनता जा बन रहा है। नतीजतन, बच्चे समय से पहले बड़े हो रहे हैं, वे चिड़चिड़े, जिद्दी, क्रोधी और हिंसक हो रहे हैं। इसी के साथ ही साथ वे तनाव के शिकार हो रहे हैं, अवसाद की गिरफ्त में जा रहे हैं और बड़ी तेजी से आत्महत्या की आरे उन्मुख हो रहे हैं।
अगर शहरी अथवा कस्बाई क्षेत्र से निकल कर ग्रामीण परिवेश की ओर रूख किया जाए, तो वहाँ पर स्थितियाँ कुछ बदली हुई जरूर हैं, पर वे और भी ज्यादा चिंताजनक हैं। गाँव के अधिकाँश बच्चों के पास आज भी न तो खाने के लिए भरपूर खाना है और न ही पहनने के लिए ठीक-ठाक कपड़े। जानवरों के चारा-पानी, खेती-किसानी के छोटे-मोटे काम और छोटे भाई-बहनों की जिम्मेदारी के बाद उनके पास जो समय बचता है, उसमें ही वे स्कूल की ओर रूख कर पाते हैं। और सरकारी स्कूलों की दशा कैसी है, यह किसी से छिपी नहीं है। चौथा अखिल भारतीय सर्वेक्षण कहता है कि देश के 50 प्रतिशत प्राइमरी स्कूलों में न पीने का पानी है और न पढ़ाई के लिए पक्की इमारतें। सर्वेक्षण के अनुसार 40 प्रतिशत स्कूलों में ब्लैक बोर्ड नहीं हैं, 70 प्रतिशत स्कूलों में पुस्तकालय नहीं हैं और 85 प्रतिशत स्कूलों में पेशाबघर तक नदारद हैं। और जहाँ यह सब है भी वहाँ पर अध्यापकों का टोटा है। एक-एक अध्यापक पर चार-चार कक्षाओं की जिम्मेदारी, साथ ही जनगणना, चुनाव और पोलियो की खुराक पिलाने का दबाव।
यदि इन कारणों में पढ़ाई के तरीकों को भी शामिल कर लिया जाए, तो स्थिति और भी शोचनीय हो जाती है। शायद यही कारण है कि स्कूल जाने वाले बच्चों में से सिर्फ 38 प्रतिशत बच्चे ही पाँचवीं कक्षा तक पहुँच पाते हैं। पढ़ाई छोड़ने वाले इन 62 फीसदी बच्चों में कुछ अपने माता-पिता का हाथ बँटाते हैं, तो कुछ घर की आर्थिक विपन्नता के कारण काम की तलाश में लगने को मजबूर होते हैं। चाहे फिरोजाबाद का काँच उद्योग हो अथवा शिवकाशी का पटाखा व्यवसाय, वहाँ पर काम करने वाले बच्चे बाल मजदूरी अधिनियम को मुँह चिढ़ाते हुए देखे जा सकते हैं। और सिर्फ फैक्ट्रियाँ ही क्यों, अब तो ऐसे बच्चे छोटी-मोटी दुकानों, घरों और खुलेआम सड़कों पर भी काम करते हुए नजर आ जाते है। और दुर्भाग्य का विषय यह है कि ऐसे बच्चों की संख्या प्रतिबर्ष तेजी से बढ़ रही है।
इसके साथ ही साथ ग्रामीण समाज में भी संचार क्रान्ति की धमक साफ सुनी जा सकती है। जगह-जगह छप्परों के बीच उग आए डिश एंटीने और घर-घर से आती हुई मोबाइल के रिंग टोन की आवाज बताती है कि मल्टीमीडिया फोन, टीवी और इंटरनेट सिर्फ शहरों की बपौती नहीं रहे अब। यही कारण है कि इस संस्कृति के साथ आई व्याधियाँ धीरे-धीरे अब गाँवों की ओर भी रूख करने लगी हैं, ग्रामीण बच्चों को भी अपनी गिरफ्त में लेने लगी हैं।
शायद यही कारण है कि अब शहर ही नहीं गाँव के अभिभावक भी बच्चों के भविष्य को लेकर ज्यादा चिंतित रहने लगे हैं। अभिभावक अब अपने बच्चों को अव्वल के कम पर देखने के लिए तैयार ही नहीं हैं। यही कारण है कि एक ओर माँ-बाप बच्चों को अपनी आर्थिक स्थिति से ऊपर के स्कूलों में पढ़ाने के लिए लालायित नजर आ रहे हैं, दूसरी ओर उनके हर विषय के अलग ट्यूटर की उपलब्धता सुनिश्चित कर रहे हैं। माँ-बाप की यह गणित बच्चों के लिए बेहद भारी साबित हो रही है। नतीजतन उनके हाथों से खिलौने छूट रहे हैं, वे खेल के मैदानों से दूर हो रहे हैं और बाल साहित्य उनके लिए सपना जैसा हो गया है।
चाहे भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू हों अथवा आज के आधुनिक शिक्षाशास्त्री, सभी ने एक सुर में यह माना है कि बच्चों के सम्पूर्ण विकास के लिए जिन चीजों की आवश्यकता होती है, उनमें से स्वस्थ बाल साहित्य का प्रमुख स्थान है। पर बावजूद इसके धीरे-धीरे बाल पत्रिकाओं की प्रसार संख्या घट रही है, बच्चे बाल साहित्य से दूर जा रहे हैं। जानेमाने बाल साहित्यकार पंकज चतुर्वेदी इस प्रवृत्ति के कारणों का विश्लेषण करते हुए कहते हैं- ‘असल में हमारे यहाँ किताबें, वह भी हिंदी में बच्चों के लिए उपभोक्ता वस्तु नहीं बन पायीं हैं। इसीलिए वे सर्वसुलभ नहीं हैं। ..और शायद इसीलिए कई माता-पिता अपने बच्चों को खिलने-पिलाने तो 20 किलोमीटर ले जाते हैं, लेकिन किताब खरीदने के लिए अनुपलब्धता का रोना रोते हैं।’
जानेमाने शिक्षा शास्त्री कृष्ण कुमार समाज में साहित्य के प्रति आई इस गिरावट को पूँजीवादी औद्योगिक विकास से जोड़कर देखते हैं। उनका मानना है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने भारत को विलासपूर्ण सामग्री से पाट दिया है। उन्होंने अपने सशक्त प्रचारतंत्र के द्वारा ऐसा माहौल रच दिया है, जिससे व्यक्ति के लिए गुणों से ज्यादा उसके चेहरे की त्वचा महत्वपूर्ण हो गयी है। इस वजह से समाज में साहित्यिक रूझान कम हुआ है और दुर्भाग्यवश बच्चे भी इसी विडम्बना के शिकार हुए हैं।
किसी बवंडर की भाँति आए इस सामाजिक बदलाव से विद्वत समाज आश्चर्यचकित है। ऐसे में वे लोग जो बच्चों से जुड़े हुए हैं, उनके हितों की परवाह करते हैं, उनके माथे पर चिन्ता की रेखाएँ देखी जा सकती हैं। प्रसिद्ध बालसाहित्यकार और ‘पराग’ के पूर्व सम्पादक हरिकृष्ण देवसरे इस सम्बंध में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं- ‘बदलाव हमेशा होता आया है और यह अच्छा होता था, क्योंकि तब उसे एक सार्थक दिशा मिलती थी, उसके पीछे एक रचनात्मक सोच होती थी। किन्तु आज का साँस्कृतिक बदलाव, विशेषकर आजादी के बाद के वर्षों में उभरी ये चुनौतियाँ नई शताब्दी में जाकर कितनी भयानक समस्याओं को जन्म देने वाली हैं, उसकी चिन्ता हमें अभी करनी होगी।’
जाहिर सी बात है कि इस बदलाव का असर साहित्य पर भी देखा जा सकता है। यह टेलीविजन के रोचक और मनोरंजक कार्यक्रमों का दबाव ही है कि अब बाल पत्रिकाएँ ज्यादा तड़क-भड़क के साथ निकलने लगी हैं, उनमें ज्ञानवर्द्धक सामग्री को महत्व मिल रहा है। वाह्य कलेवर के साथ-साथ बाल पत्रिकाओं की विषय सामग्री में भी यह बदलाव स्पष्ट रूप से नजर आने लगा है। उनमें कविता, कहानियों की संख्या पहले से कम हो गयी है, जानकारीपरक सामग्री बढ़ी है। इसके साथ ही साथ पत्रिकाएँ चित्रात्मक और कैरियर की दृष्टि से उपयोगी सामग्री के प्रकाशन के लिए भी मजबूर हुई हैं।
बाल पत्रिकाओं में आए इस बदलाव से बाल साहित्यकार हतप्रभ हैं। वे इसे सीधे-सीधे उपभोक्तावादी संस्कृति का दुष्प्रभाव तो मानते हैं किन्तु अपने गिरेबान में झांकने की आवश्यकता को महसूस नहीं कर पाते। जबकि सत्य यही है कि बाल साहित्य विशेषकर बाल कहानियाँ एक ठहराव की शिकार हो गयी प्रतीत होती हैं। उनमें पिछले बीस-पच्चीस सालों से या तो वही एक जैसी लोक कथाएँ परोसी जा रही हैं या फिर सीख और उपदेश से आक्रान्त बोझिल कहानियाँ। जबकि आज का बच्चा ‘डोरेमान’ के ‘नोबीता’ के रूप में अपनी अभिलाषाओं को इलेक्ट्रानिक गैजेट्स के माध्यम से नित नये आयाम देना चाहता है। वह ‘टॉम एण्ड जेरी’ के ‘जेरी’ की तरह निर्भय होकर जीना चाहता है और अपनी छोटी किन्तु चालाक जुगतों के बल पर अपने से भी शक्तिशाली प्रतिस्पर्धियों को भी मुहतोड़ जवाब देने की ख्वाहिश रखता है। यही कारण है कि बच्चों का झुकाव कार्टून चैनलों की ओर ज्यादा देखने को मिलता है।
इसके विपरीत बच्चों की कहानियों की दुनिया में आज भी ज्यादातर वही ‘मोनू बंदर’ और ‘कालू भालू’ अपनी आदिम हरकतों के साथ मौजूद हैं। हालाँकि कुछ-एक रचनाकारों ने नए युग की संभावनाओं को दृष्टिगत रखते हुए उनमें अंतरिक्ष यान और एलियन के सहारे रोचकता पैदा करने के प्रयत्न किये हैं, किन्तु इनके बावजूद उन रचनाओं में नई दृष्टि, नई सोच का अभाव परिलक्षित होता है। उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने परी कथाओं के पात्रों और जादुई उपकरणों पर विज्ञान का मुलम्मा पहना दिया हो, बस। यही कारण है कि यह बदलाव न तो पाठकों को आकर्षित कर पाता है और न ही नोटिस में ही आ पाता है।
बाल साहित्य के कुशल पारखी ओमप्रकाश कश्यप इन स्थितियों के लिए सीधे-सीधे बाल साहित्यकारों को जिम्मेदार मानते हैं। वे कहते हैं ‘बाल साहित्य के 150 वर्ष के लम्बे दौर में हम बालसाहित्य को लेकर स्पष्ट दृष्टि विकसित करने में असमर्थ रहे हैं।’ वे इसके कारणों की पड़ताल करते हुए कहते हैं कि ‘हम व्यवहार में आधुनिक होना चाहते हैं, परन्तु हमारी सोच हमें फिर-फिर उन्हीं संस्कारों की ओर ले जाती है, जहाँ अनुसरण को ही सभ्यता का प्रतीत मान लिया जाता है। हिन्दी बालसाहित्य की आज जो स्थिति है, उन्नीसवीं शताब्दी में वही हालत अंगेजी बाल साहित्य की भी थी। वहाँ भी बाल साहित्य का अर्थ धार्मिक शिक्षा और संस्कारीकरण से लिया जाता था।’ वे इस सम्बंध में जोर देते हुए कहते हैं कि ‘आज आवश्यकता बच्चों के साहित्य को नये सिरे से परिभाषित करने की है। तब शायद यह जड़ता भंग हो।’
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या आज के राग-द्वेष और गला काट स्पर्धा के युग में सब कुछ नकारात्मक ही अवशेष बचा है? इसका जवाब है नहीं। क्योंकि आशाओं का दिया अभी भी रौशन है। बच्चों के लिए बेहतर दुनिया के निर्माण की उम्मीद भरी यह रौशनी अगर हमें कहीं दिखती है, तो वह बाल साहित्य ही है। आशा की यह किरण ‘केयर’ द्वारा उत्तर प्रदेश के प्रथमिक विद्यालयों में किये जा रहे सकारात्मक कार्यों, ‘चकमक’ के 300वें अंक तथा पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से छिटपुट रूप से ही सही, पर सामने आ रही है। यह नवसाहित्य बच्चों के मनोविज्ञान की समझ रखता है, उनके स्वप्नों में रंग भरता है और उनकी कल्पनाओं को पंख प्रदान करता है। ऐसा ही साहित्य उनकी भावनाओं को सींचने का कार्य करता है, उनमें सौन्दर्यबोध का भाव जगाता है और उनकी रागात्मक वृत्तियों का विकास करता है। चर्चित बाल कथाकार चित्रेश के अनुसार, ‘यह वह प्रक्रिया है, जो उसे भावी जीवन में भावनाओं, इच्छाओं, महत्वाकाँक्षाओं और आदर्शों में संतुलन रखने की योग्यता प्रदान करती है। वास्तविकता के धरातल पर वातावरण से पर्याप्त सामंजस्य करने की योग्यता के विकास का यही प्रस्थान बिन्दु है।’
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शिक्षा और साहित्य की शानदार जुगलबंदी (बॉक्स मैटर)
बच्चों के लिए स्कूली किताबों से इतर रचा जाने वाला साहित्य भले ही बहुत सारे लोगों के लिए उबाऊ और गैर जरूरी हो, पर उत्तर प्रदेश के 04 जिले ऐसे हैं, जहाँ पर यह साहित्य न सिर्फ बच्चों में पढ़ने की ललक पैदा कर रहा है, वरन उन्हें स्कूल से जोड़ने में भी सहायक सिद्ध हो रहा है। ‘केयर इण्डिया’ द्वारा उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग के साथ मिलकर लखनऊ, बलरामपुर, बहराइच और श्रावस्ती के 4500 प्राथमिक स्कूलों में चलाया जा रहा ‘अधिगम अवृद्धि कार्यक्रम’ इस सार्थक बदलाव का सूत्रधार है।
इस कार्यक्रम के अन्तर्गत प्रत्येक प्राथमिक स्कूल में 100 से लेकर 150 किताबें बच्चों के लिए उपलब्ध कराई जाती हैं। किताबें बच्चों तक नियमित रूप से पहुँच सकें, इसके लिए बच्चों में से ही कुछ लोगों को चुनकर पुस्तकालय समिति का गठन किया जाता है। यह समिति बच्चों तक किताबों को निर्बाध रूप में पहुँचाती है और उनकी सुरक्षा को भी सुनिश्चित करती है। इसके साथ ही साथ केयर द्वारा लगभग (प्रति) 7-8 स्कूलों के ऊपर एक इंस्ट्रक्टर की नियुक्ति की जाती है, जो अध्यापकों को इन किताबों के माध्यम से पढ़ाई को रोचक बनाने के तरीके सिखाता है और स्वयं भी उन गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लेता है। अध्यापकों और केयर से इस सम्मिलित प्रयास का सुपरिणाम यह हुआ है कि बच्चे किस्से कहानियों की किताबों के साथ-साथ पढ़ाई की पुस्तकों में भी रूचि लेने लगे हैं। वे एक-एक अक्षर जोड़ कर किताबों को पढ़ना सीख रहे हैं।
वर्ष 2006 से संचालित इस योजना के अन्तर्गत शामिल ज्यादातर किताबें ज्ञान विज्ञान समिति, एकलव्य, नेशनल बुक ट्रस्ट एवं चिल्ड्रेन ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित हैं। पुस्तकों के चुनाव में चित्रों की मात्रा, विषय की रोचकता के साथ परिवेश का भी विशेष ध्यान रखा जाता है। इसके अतिरिक्त पुस्तकों में इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि इनके कंटेन्ट में लिंग विभेद एवं जाति-धर्म को लेकर टिप्पणियाँ न की गयी हों। यही कारण है कि यहाँ उपलब्ध कराई जाने वाली किताबों में पशु-पक्षियों से सम्बंधित कहानियों, खोज एवं रोमांचक यात्राओं पर आधारित रचनाओं और बच्चों के परिवेश से जुड़ी ज्ञानवर्द्धक पुस्तकों को वरीयता दी जाती है। ध्यान देने वाली बात यह है कि बाल साहित्य में सर्वाधिक रची जा रही जादुई प्रभावों वाली लोक/परी कथाएँ इन पुस्तकों में सिरे से गायब हैं। इस सम्बंध में कार्यक्रम की प्रिंसिपल इन्वेस्टीगेटर सुश्री पारूल शर्मा का कथन है- ‘इस तरह की कहानियों में जाति और लिंग आधारित अनेकानेक पूर्वाग्रह भिदे रहते हैं, इसलिए योजना में उन्हें शामिल नहीं किया जाता है।’
बच्चों को स्कूल से जोड़ने के लिए बनाई गयी यह योजना कितनी सफल रही है, इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जिन स्कूलों को इस कार्यक्रम में शामिल किया गया है, वहाँ बच्चों की उपस्थिति के प्रतिशत में आश्चर्यजनक रूप से सुधार आया है। इसकी सफलता देखकर अध्यापक ही नहीं बच्चों के अभिभावक भी बहुत उत्साहित हैं। बहुत से माता-पिता तो स्कूल से किताबें मंगाकर न सिर्फ खुद पढ़ते हैं, वरन बच्चों को भी पढ़ कर सुनाते हैं।
यह कार्यक्रम जहाँ इस बात को प्रमाणित करता है कि सही ढ़ंग से किया जाना वाला प्रत्येक गम्भीर प्रयास अंतत: रंग लाता है, वहीं इससे यह भी पता चलता है कि बच्चों के जीवन में स्वस्थ बाल साहित्य कितनी बड़ी भूमिका निभा सकता है। लेकिन लाख टके का सवाल यह कि क्या सरकार, अभिभावक और स्वयं बाल साहित्यकार इससे कोई शिक्षा ग्रहण करेंगे?
दुखद स्थिति है यह, इसे भी समुचित वरीयता मिले
हटाएंबढ़िया पोस्ट
हटाएंभैया ! बच्चों का साहित्य ही नहीं बड़कों का साहित्य भी ख़ाली ख़ूली सा ही है।
हटाएंचिंतनीय विषय..
हटाएंबढिया पोस्ट।
हटाएंगम्भीर विमर्श, सोचने पर विवश करता हुआ।
हटाएंbahut hi acchi rachana hai ....
हटाएंacchi post
बहुत सुंदर और जरुरी आलेख
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