हिंदी बाल साहित्य के इतिहास का दशकों से इंतजार था -डॉ. ज़ाकिर अली रजनीश साहित्य जगत में जब भी बाल साहित्य की बात चलती है, तो बहुतेर...
हिंदी बाल साहित्य के इतिहास का दशकों से इंतजार था
-डॉ. ज़ाकिर अली रजनीश
साहित्य जगत में जब भी बाल साहित्य की बात चलती है, तो बहुतेरे लोगों के दिमाग में ‘पंचतंत्र’ या ‘चंदामामा’ का नाम कौंधता है। ऐसे ज्यादातर लोग आज भी यह मानते हैं कि बच्चों के चरित्र निर्माण के लिए नीति कथाओं की नितांत आवश्यकता है। ऐसे लोग न तो आज के बच्चों की बौद्धिक आवश्यकताओं की समझ रखते हैं और न ही उनके लिए रचे जा रहे स्तरीय साहित्य की। यही कारण है कि हिन्दी बाल साहित्य की बात चलने पर वे या तो उसकी अनुपस्थिति का रोना रोने लगते हैं या फिर उसकी स्तरीयता को सिरे से खारिज कर देते हैं।जबकि सत्य यह है कि आज हिन्दी भाषा में विपुल मात्रा में स्तरीय बाल साहित्य मौजूद है। इसमें कविता, कहानियां, नाटक, उपन्यास तो हैं ही लेख और सूचनात्मक साहित्य का भी विशाल भण्डार है। और यह भण्डार इतना विशाल है कि इसमें से अच्छे और सार्थक बाल साहित्य की पहचान करना किसी चुनौती से कम नहीं है। इस तरह की चुनौती को स्वीकारने वाले निश्चय ही बिरले होते हैं, क्योंकि इसके लिए जितना जरूरी है ‘खरे’ को पहचानने की काबिलियत, उससे ज्यादा जरूरी होता है ‘बुरे’ को बुरा कहने का साहस। और जाहिर सी बात है कि इस काम में बेहद जोखिम भी हैं।
इसीलिए ज्यादा उत्साही बाल साहित्य समीक्षक ‘सब धान बाइस पसेरी’ की तर्ज पर सबको ‘महानता’ का सार्टिफिकेट बांटते हुए निकल जाते हैं। किन्तु कुछ ऐसे सुधी समीक्षक भी हैं, जो बाल साहित्य के कुशल पारखी हैं और बाल साहित्य रूपी समुद्र की अतल गहराइयों में उतरकर ‘जेनुइन’ मोती निकाल लाने का साहस रखते हैं, भले ही इसके लिए कितना ही श्रम क्यों न करना पड़े। और जब रचनाकार इतने समर्पण के साथ काम करने का दायित्व उठाता है, तभी ‘हिंदी बाल साहित्य का इतिहास’ बन पाता है। और मुझे यह कहते हुए बेहद प्रसन्नता की अनुभूति हो रही है प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से छप कर आया प्रकाश मनु कृत ‘हिंदी बाल साहित्य का इतिहास’ हिंदी बाल साहित्य की महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
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हिंदी बाल साहित्य के अपने 100 सालों के सफर में से सच्चे मोतियों को पहचान कर एक जगह संजोना निश्चय ही श्लाघनीय कार्य है, जो बकौल लेखक 20 वर्षों के श्रम के फलस्वरूप सम्पन्न हो सका है। पुस्तक में यूं तो कुल जमा आठ अध्याय हैं, जिन्हें काल विभाजन, बाल कविता, बाल कहानी, बाल उपन्यास, बाल नाटक, बाल ज्ञान-विज्ञान सहित्य, बाल जीवनी तथा अन्य विधाएं एवं बाल पत्रिकाओं की विकास यात्रा में बांटा गया है, किन्तु इन अध्यायों के भीतर विषयगत चर्चा को बेहद क्रमबद्ध तरीके से आगे बढ़ाया गया है। जब वे किसी विधा की बात करते हैं, तो न सिर्फ उनकी दृष्टि उसके विकास क्रम पर होती है, वरन वे शैलीगत प्रयोगों, प्रयोगधर्मी रचनाओं, प्रतिनिधि संकलनों, नवोदित रचनाकारों, और महिला कथाकारों की रचनाओं और उनके प्रतिपाद्य की भी चर्चा करते चलते हैं। और ऐसा करने के दौरान वे (लेखकीय हस्ताक्षरों के दोहराव के खतरे को उठाते हुए भी) उल्लेखनीय रचनाओं की विस्तार से और बार-बार चर्चा करने से परहेज नहीं करते।
प्रकाश मनु की विशेषता यह है कि वे स्वयं भी एक कुशल बाल साहित्यकार हैं। इसीलिए जहां कहीं भी अच्छी रचना उन्हें नजर आती है, वे उसकी प्रशंसा करने से नहीं चूकते, फिर चाहे वह प्रतिष्ठित लेखक हो या नवोदित रचनाकार-
‘प्रदीप शुक्ल की बाल कविताओं में ध्वन्यात्मकता और संगीत का जादू भी खूब है और इसीलिए उनकी बाल कविताएं झट बच्चों के होठों पर चढ़ जाती हैं, ‘‘दौड़ रही मुन्नी की गाड़ी, घुर्रम-घुर्रम घुर्र,/लिये नगाड़ा मुन्नी पीछे, कुर्रम-कुर्रम कुर्र।’’ ‘गुल्लू का गांव’ (2016) प्रदीप शुक्ल की बाल कविताओं का पहला संग्रह है, जिसमें उनकी विविध रंगों की मनोहर कविताएं हैं। इनमें नयापन है, ताजगी भी। इसलिए एक बार पढ़ने पर प्रदीप शुक्ल की कविताएं भुलाए नहीं भूलतीं और जब-तब बच्चों के होठों पर नाचती रहती हैं।’(पृष्ठ-130)
‘भीगी आंखों का ब्रेक’ अनंत कुशवाहा की सबसे चर्चित कहानी है। कथावाचक को पिछले रोज ही समय पर दफ्तर आने की चेतावनी मिली है, इसलिए आज वह समय से कुछ पहले ही घर से साइकिल उठाकर निकल पड़ा है, पर रस्ते में एक छोटे बच्चे की भीगी आंखें उसकी साइकिल में ब्रेक लगा देती हैं। कथावाचक के मन में हिचकिचाहट है, वह क्या करे, क्या नहीं। आखिर दफ्तर पहुंचना भी तो जरूरी है, पर उसकी साइकिल मानो आगे बढ़ने से इनकार कर देती है। उस बच्चे को स्कूल पहुंचाकर वह दफ्तर पहुंचा तो फिर से लेट हो चुका है, पर आज उसके मन में घबराहट नहीं है। जो खुशी उसने हासिल की है, उसके आगे वह सब कुछ सहने को तैयार हो जाता है। कहानी का अंत सादा सा है, पर उसे भुला पाना मुश्किल है। एक छोटी सी कहानी में कैसे बड़ी बात कही जा सकती है, यह हमें अनंत कुशवाहा से सीखना चाहिए।’ (पृष्ठ-213)
प्रकाश मनु जहां अच्छी रचनाओं की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं, वहीं भरती की रचनाओं की भरपूर खबर भी लेते चलते हैं। फिर चाहे उसके लेखक कितने वरिष्ठ और प्रतिष्ठित रचनाकार ही क्यों न हों-
‘…भी लम्बे अरसे से बाल कविताएं लिखते आ रहे हैं, पर उनकी बात कविताएं बड़ी सपाट और अनगढ़ हैं। ‘लट्टू-सी से धरती घूमे’ (2005) में ...की निन्यानबे बाल कविता शामिल हैं, पर इन कविताओं में नयापन और ताजगी नहीं है। छंद और लय की भी गड़बडि़यां हैं।’(पृष्ठ-118-19)
X X X
‘…की कहानियों का एक बड़ा दोष है। उनकी ज्यादातर कहानियां लगभग एक ही पैटर्न की कहानियां लगती हैं। इसीलिए उनमें किस्सागोई कम है और संवेदनात्मक छुअन भी, जबकि किसी अच्छे लेखक की हर कहानी का अलग शिल्प, अलग कहन होती है, तभी वह सार्थक रचना बन पाती है।‘(पृष्ठ-214)
इसमें कोई दो-राय नहीं कि बाल साहित्य की सम्यक आलोचना और इतिहास-लेखन की जरूरत लम्बे समय से महसूस की जाती रही है। लेकिन यह चुनौती बेहद दुष्कर थी। क्योंकि इसके लिए पिछले सौ सालों में छपी, बाल साहित्य की विभिन्न विधाओं की लाखों पुस्तकों और पत्रिकाओं से गुजरते हुए उसकी सम्यक समीक्षा करना बेहद चुनौतीभरा काम था। और मुझे यह कहते हुए बेहद खुशी हो रही है कि प्रकाश मनु ने इस चुनौतीभरे काम को बेहद जिम्मेदारी के साथ अंजाम तक पहुंचाया है। यही कारण है कि ‘हिंदी बाल साहित्य का इतिहास’ हिंदी बाल साहित्य की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है, जिसका दशकों से बालसाहित्यकारों को इंतजार था। इससे न सिर्फ हिंदी बाल साहित्य की स्वीकार्यता को बढ़ावा मिलेगा, वरन बाल साहित्यकार भी ज्यादा गम्भीर होकर अपने दायित्वों का निर्वहन करने के लिए प्रेरित हो सकेंगे।
पुस्तक- हिंदी बाल साहित्य का इतिहास
लेखक- प्रकाश मनु
प्रकाशक- प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड, नई दिल्ली। मोबाइल-7827007777
प्रथम संस्करण- 2018
पृष्ठ- 556 (डबल क्राउन साइज)
मूल्य- रू0 1000
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लेखक- प्रकाश मनु
प्रकाशक- प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड, नई दिल्ली। मोबाइल-7827007777
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जवाब देंहटाएंBal sahitya bachchon ke liye bahut avashyak hai. Uska itihas bhi nishchay hi uttam hoga. Abhaar.
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