Allah Miyan Ka Karkhana-Bank of Baroda Rashtra Bhasha Samman 2023
नई दिल्ली में आयोजित एक भव्य समारोह में दिनांक 11 जून, 2023 को उर्दू के रचनाकार मोहसिन खान को उनके उपन्यास 'अल्लाह मियाँ का कारख़ाना' के लिए 21 लाख रुपये के पहले बैंक आफ बड़ौदा राष्ट्रभाषा सम्मान से नवाज़े जाने की घोषणा हुई। साथ ही उपन्यास के हिन्दी अनुवादक डा. सईद अहमद संदीलवी को भी पुस्तक के हिन्दी अनुवाद के लिए 15 लाख रुपये प्रदान कर सम्मानित किया जाएगा। ज्ञातव्य है कि यह पुरस्कार बैंक आफ बड़ौदा द्वारा भाषाई सामंजस्य को बढ़ावा देने के लिए शुरू किया गया है, जिसमें हिन्दी में अन्य भारतीय भाषाओं से अनुदित रचनाओं को मूल लेखकों व अनुवादकों को पुरस्कृत किया जाता है।
उर्दू अकादमी में सुपरिंटेंडेंट के पद से रिटायर हुए मोहसिन खान मुख्य रूप से बालकहानीकार हैं। उनकी शानदार चित्रात्मक लम्बी कहानी 'जामुन वाले बाबा' बेहद चर्चित रही है। राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषदए नई दिल्ली से छपी उनकी इस किताब के साथ ही कई अन्य किताबें भी छपी हैंए जिनमें 'साझे का घोंसला', 'तोता कहानी' और 'इंसाफ' प्रमुख हैं। इसके अलावा उर्दू अकादमी, लखनऊ से प्रकाशित उनके बाल कहानी संग्रह 'दोस्ती का जश्न', 'मनसा राम का गधा' एवं 'चीनू खान' भी चर्चित रही हैं।
'अल्लाह मियाँ का कारख़ाना' एक अनूठे प्रकार का उपन्यास हैए जिसमें मुस्लिम समाज के एक बच्चे की दर्दभरी कहानी को उसी की जबानी बयां किया गया है। यह बच्चा अपनी छोटी सी उम्र में तरह-तरह की विसंगितियों से दो.चार होता है। ऐसे में उस बालमन पर क्या बीतती है, उपन्यास में इसे बहुत ही रोचक तरीके से बयां किया गया है। इस उपन्यास की तीन चीजें इसे बेहद खास बनाती हैंए पहला है उपन्यास के मुख्य पात्र जिब्रान का बालमनोविज्ञान और दूसरी है उसकी मुस्लिम पृष्ठभूमि, जो किसी आश्चर्यलोक के समान पाठकों के समक्ष आती है। और तीसरी विशेषता है लेखक की खास शैली, जो पाठकों को मंत्रमुग्ध सी कर देती है।
उपन्यास का मुख्य नायक जिब्रान किशोरावस्था की ओर बढ़ रहा एक ऐसा बच्चा है, जिसकी धार्मिक रूढ़ियों और परम्पराओं में बिलकुल भी रुचि नहीं है। वह मुर्गी के बच्चों के साथ खेलना चाहता है, पतंग उड़ाना चाहता है और अपने आसपास के बच्चों के साथ वे तमाम हरकतें करना चाहता है, जिसके लिए उसके घर में सख्त मनाही है। लेकिन इस क्रम में जब बार-बार अम्मा और अब्बा के द्वारा उसे दंडित किया जाता है, तो उसके भीतर की उत्सुकता विद्रोह का रूप ले लेती है और वह चोरी के साथ वैसे काम भी कर डालता है, जिसके लिए उसे बार-बार 'नर्क की आग' से जलाने का भय दिखाया जाता है। जिब्रान के विपरीत उसकी छोटी बहन फालतू के कामों से दूर रहती है और पढ़ाई-लिखाई में रुचि रखती है। लेकिन उसे भी 'मरने के बाद क्या होगा' और 'जन्नत की नेमतें' जैसी धार्मिक किताबों की तुलना में 'दुनिया के चंद महान लोग' और कहानियों की किताबें पढ़ना ज्यादा अच्छा लगता है। वह अपने भाई के लिए बेहद चिंतित रहती है और बार-बार उसे धार्मिक और सामाजिक दण्डों का हवाला देकर सुधारने का प्रयास करती है। लेकिन जिब्रान पर उनका कोई असर नहीं होता है और इस तरह से वह दण्ड और अपमान झेलने का आदी हो जाता है।
'अल्लाह मियाँ का कारख़ाना' एक अनूठे प्रकार का उपन्यास हैए जिसमें मुस्लिम समाज के एक बच्चे की दर्दभरी कहानी को उसी की जबानी बयां किया गया है। यह बच्चा अपनी छोटी सी उम्र में तरह-तरह की विसंगितियों से दो.चार होता है। ऐसे में उस बालमन पर क्या बीतती है, उपन्यास में इसे बहुत ही रोचक तरीके से बयां किया गया है। इस उपन्यास की तीन चीजें इसे बेहद खास बनाती हैंए पहला है उपन्यास के मुख्य पात्र जिब्रान का बालमनोविज्ञान और दूसरी है उसकी मुस्लिम पृष्ठभूमि, जो किसी आश्चर्यलोक के समान पाठकों के समक्ष आती है। और तीसरी विशेषता है लेखक की खास शैली, जो पाठकों को मंत्रमुग्ध सी कर देती है।
उपन्यास का मुख्य नायक जिब्रान किशोरावस्था की ओर बढ़ रहा एक ऐसा बच्चा है, जिसकी धार्मिक रूढ़ियों और परम्पराओं में बिलकुल भी रुचि नहीं है। वह मुर्गी के बच्चों के साथ खेलना चाहता है, पतंग उड़ाना चाहता है और अपने आसपास के बच्चों के साथ वे तमाम हरकतें करना चाहता है, जिसके लिए उसके घर में सख्त मनाही है। लेकिन इस क्रम में जब बार-बार अम्मा और अब्बा के द्वारा उसे दंडित किया जाता है, तो उसके भीतर की उत्सुकता विद्रोह का रूप ले लेती है और वह चोरी के साथ वैसे काम भी कर डालता है, जिसके लिए उसे बार-बार 'नर्क की आग' से जलाने का भय दिखाया जाता है। जिब्रान के विपरीत उसकी छोटी बहन फालतू के कामों से दूर रहती है और पढ़ाई-लिखाई में रुचि रखती है। लेकिन उसे भी 'मरने के बाद क्या होगा' और 'जन्नत की नेमतें' जैसी धार्मिक किताबों की तुलना में 'दुनिया के चंद महान लोग' और कहानियों की किताबें पढ़ना ज्यादा अच्छा लगता है। वह अपने भाई के लिए बेहद चिंतित रहती है और बार-बार उसे धार्मिक और सामाजिक दण्डों का हवाला देकर सुधारने का प्रयास करती है। लेकिन जिब्रान पर उनका कोई असर नहीं होता है और इस तरह से वह दण्ड और अपमान झेलने का आदी हो जाता है।
जिब्रान के अब्बा जोकि एक रूढ़िवादी व्यक्ति हैं, संसार को दुनियावी नज़रिए से नहीं बल्कि मरने के बाद क्या होगाए इस सोच से ही देखते हैं। यही कारण है कि वे न तो अपनी माली हालत के लिए चिंतित होते हैं और न ही बच्चों के भविष्य के लिए। ऐसे व्यक्ति के परिवार का हश्र क्या हो सकता है, इसे उपन्यास में बखूबी दिखाया गया है। इसी उपन्यास के एक मुख्य पात्र हैं हाफिज जी, जो मस्जिद से सटे मदरसे में रहते हैं और बच्चों को अरबी व उर्दू पढ़ा कर अपनी गुजर-बसर करते हैं। लेकिन वे अपनी मान्यताओं और रूढ़ियों के कारण इस कदर कुण्ठित हो गये हैं कि बात-बात पर बच्चों को प्रताड़ित करते करते हैं। लेकिन अन्ततोगत्वा उन्हें भी इन सबसे ऊब हो जाती है और वे दुनियावी कारोबार में शामिल होने के लिए मदरसे को अलविदा कह देते हैं।
उपन्यास यह दिखाता है कि अति कभी भी किसी के लिए भली नहीं होती। और जो इसके चक्कर में पड़ता है, उसका जीवन तबाह होने में देर नहीं लगती। जीवन के इस सार को उपन्यास में कदम-कदम पर बयां किया गया है। कहीं पर यह कथानक के रूप में है और कहीं पर सूत्रों के रूप में। ऐसी ही उपन्यास की कुछ नायाब सूक्तियां यहां पर नमूने के रूप में प्रस्तुत हैंः
'चवन्नी चुराने के जुर्म में मुर्गा बना के इबरत की छड़ियां मारी जायें और शर्मिन्दगी का एहसास न हो तो दिल में अठन्नी चुराने का ख्याल ज़रूर आयेगा।'
उपन्यास यह दिखाता है कि अति कभी भी किसी के लिए भली नहीं होती। और जो इसके चक्कर में पड़ता है, उसका जीवन तबाह होने में देर नहीं लगती। जीवन के इस सार को उपन्यास में कदम-कदम पर बयां किया गया है। कहीं पर यह कथानक के रूप में है और कहीं पर सूत्रों के रूप में। ऐसी ही उपन्यास की कुछ नायाब सूक्तियां यहां पर नमूने के रूप में प्रस्तुत हैंः
'चवन्नी चुराने के जुर्म में मुर्गा बना के इबरत की छड़ियां मारी जायें और शर्मिन्दगी का एहसास न हो तो दिल में अठन्नी चुराने का ख्याल ज़रूर आयेगा।'
X X X
'तुम अपनी पतंग को उतनी ही ऊंचाई तक ले जा सकते होए जितनी तुम्हारे पास डोर।'
X X X
'उलझी हुई डोर को सुगमता से न सुलझाया जाए तो ज्यादा उलझ जाती है और उसे तोड़ कर गांठें लगाना पड़ती है।'
यह उपन्यास पहली बार मुस्लिम समाज के बच्चों की दुनिया को प्रामाणिकता से बयां करता है। उपन्यास बताता है कि बच्चे अनुभव से सीखते हैं और उसके अनुरूप ही व्यवहार करते हैं। ऐसे ढ़ेरों प्रसंग इस उपन्यास में देखने को मिलते हैं। उपन्यास के पूर्वाद्ध में एक दिन जिब्रान की मुर्गी का एक बच्चा मर जाता है। जिब्रान उसे अपनी बहन के साथ मिलकर उसकी कब्र बना कर दफनाता है और मरने की दुआ भी पढ़ता है। लेकिन जब अगले दिन उसे पता चलता है कि बिल्ली चूजे की कब्र खोद कर उसे उठा ले गयी है, तो वे इस रस्म को निभाना फिजूल समझते हैं और दूसरे चूज़े के मरने पर उसे एक ऊंची जगह पर रख कर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं।
उपन्यास के मुख्य पात्र ही नहीं कहानी के गौण पात्र के रूप में आए बच्चे भी अपनी गतिविधियों के साथ-साथ अपनी बातों के द्वारा भी अपनी उपस्थिति प्रमुखता से दर्ज कराते हैं और लेखक के बालमनोविज्ञान के पारखी होने का सुबूत देते हैं:
कहानी के अहम किरदार हाफिज जी जब बच्चों को बताते हैं कि अल्लाह ने ये दुनिया छः दिनों में बनाई, तो नसरीन बालसुलभ जिज्ञासा से पूछ उठती है. 'छः दिन क्यों लगाए, अल्लाह मियां तो एक दिन में भी बना सकते थे।' (पृष्ठ-27)
कुल मिलाकर अगर संक्षेप में उपन्यास के सार को बयां किया जाए, तो यहां पर जिब्रान के चाचा जमील का एक वाक्य प्रस्तुत किया जा सकता है, जिसमें वे जिब्रान के यह पूछने पर कि क्या आपके पास मौत की किताब भी है, वे कहते हैं. 'बेटा मेरे पास ज़िंदगी की किताबें हैं।'
मेरी समझ से यही उपन्यास का सार है, जो मुस्लिमों को यह समझाने के मकसद से लिखा गया है कि सिर्फ मरने के बाद क्या होगा, इसकी फिक्र में न मुब्तिला रहो। अगर दुनिया में आए हो, तो थोड़ी सुध दुनिया की भी लेनी पड़ेगी।
इस शानदार उपन्यास का हिन्दी में तर्जुमा सईद अहमद सन्दीलवी ने किया है और प्रकाशित किया है मैटरलिंक पब्लिशर्स लखनऊ ने। 225 पृष्ठों में फैला यह उपन्यास निश्चित रूप से मुस्लिम समाज की एक ऐसी सच्चाई को उघाड़ता है, जिसके बारे में हिन्दी में कम लिखा गया है। अगर आप मुस्लिम समाज की रूढ़ियों और उनकी सामाजिक दुश्वारियों को नज़दीक से समझना चाहते हैं, तो आपको यह उपन्यास ज़रूर पढ़ना चाहिए।
पुस्तकः अल्लाह मियाँ का कारख़ाना
लेखकः मोहसिन खान
अनुवादकः डाॅ. सईद अहमद संदीलवी
प्रकाशकः मैटरलिंक पब्लिशर्स, 1870, फस्र्ट फ्लोर, लेखराज डाॅलर, इंदिरा नगर, लखनऊ email:aglawaraq@gmail.com
प्रकाशन वर्ष: 2022
पृष्ठः 232
मूल्यः रु. 450
यह उपन्यास पहली बार मुस्लिम समाज के बच्चों की दुनिया को प्रामाणिकता से बयां करता है। उपन्यास बताता है कि बच्चे अनुभव से सीखते हैं और उसके अनुरूप ही व्यवहार करते हैं। ऐसे ढ़ेरों प्रसंग इस उपन्यास में देखने को मिलते हैं। उपन्यास के पूर्वाद्ध में एक दिन जिब्रान की मुर्गी का एक बच्चा मर जाता है। जिब्रान उसे अपनी बहन के साथ मिलकर उसकी कब्र बना कर दफनाता है और मरने की दुआ भी पढ़ता है। लेकिन जब अगले दिन उसे पता चलता है कि बिल्ली चूजे की कब्र खोद कर उसे उठा ले गयी है, तो वे इस रस्म को निभाना फिजूल समझते हैं और दूसरे चूज़े के मरने पर उसे एक ऊंची जगह पर रख कर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं।
उपन्यास के मुख्य पात्र ही नहीं कहानी के गौण पात्र के रूप में आए बच्चे भी अपनी गतिविधियों के साथ-साथ अपनी बातों के द्वारा भी अपनी उपस्थिति प्रमुखता से दर्ज कराते हैं और लेखक के बालमनोविज्ञान के पारखी होने का सुबूत देते हैं:
कहानी के अहम किरदार हाफिज जी जब बच्चों को बताते हैं कि अल्लाह ने ये दुनिया छः दिनों में बनाई, तो नसरीन बालसुलभ जिज्ञासा से पूछ उठती है. 'छः दिन क्यों लगाए, अल्लाह मियां तो एक दिन में भी बना सकते थे।' (पृष्ठ-27)
कुल मिलाकर अगर संक्षेप में उपन्यास के सार को बयां किया जाए, तो यहां पर जिब्रान के चाचा जमील का एक वाक्य प्रस्तुत किया जा सकता है, जिसमें वे जिब्रान के यह पूछने पर कि क्या आपके पास मौत की किताब भी है, वे कहते हैं. 'बेटा मेरे पास ज़िंदगी की किताबें हैं।'
मेरी समझ से यही उपन्यास का सार है, जो मुस्लिमों को यह समझाने के मकसद से लिखा गया है कि सिर्फ मरने के बाद क्या होगा, इसकी फिक्र में न मुब्तिला रहो। अगर दुनिया में आए हो, तो थोड़ी सुध दुनिया की भी लेनी पड़ेगी।
इस शानदार उपन्यास का हिन्दी में तर्जुमा सईद अहमद सन्दीलवी ने किया है और प्रकाशित किया है मैटरलिंक पब्लिशर्स लखनऊ ने। 225 पृष्ठों में फैला यह उपन्यास निश्चित रूप से मुस्लिम समाज की एक ऐसी सच्चाई को उघाड़ता है, जिसके बारे में हिन्दी में कम लिखा गया है। अगर आप मुस्लिम समाज की रूढ़ियों और उनकी सामाजिक दुश्वारियों को नज़दीक से समझना चाहते हैं, तो आपको यह उपन्यास ज़रूर पढ़ना चाहिए।
पुस्तकः अल्लाह मियाँ का कारख़ाना
लेखकः मोहसिन खान
अनुवादकः डाॅ. सईद अहमद संदीलवी
प्रकाशकः मैटरलिंक पब्लिशर्स, 1870, फस्र्ट फ्लोर, लेखराज डाॅलर, इंदिरा नगर, लखनऊ email:aglawaraq@gmail.com
प्रकाशन वर्ष: 2022
पृष्ठः 232
मूल्यः रु. 450
सार्थक समीक्षा, आज के हालातों में ऐसी किताबों का महत्व और भी बढ़ जाता है
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