भारतीय नाट्य परम्परा और बाल नाटक जाकिर अली 'रजनीश' नाट्य विधा के आदिग्रंथ 'नाट्यशास्त्र' के रचयिता भरत मुनि माने जाते हैं।...
भारतीय नाट्य परम्परा और बाल नाटक
जाकिर अली 'रजनीश'
नाट्य विधा के आदिग्रंथ 'नाट्यशास्त्र' के रचयिता भरत मुनि माने जाते हैं। वे भारतीय नाट्य परम्परा के उद्भव के बारे में बताते हुए कहते हैं- एक बार देवराज इंद्र के प्रतिनिधित्व में देवतागण ब्रह्मा जी के पास पहुंचे और उनसे आग्रह करते हुए कहा-'हे पितामह, हम कोई ऐसा खेल चाहते हैं, जिसको देखा भी जा सके और सुना भी जा सके।
महेन्द्रप्रमुखैर्देवैरुक्त: किल पितामह:।
क्रीडनीयकमिच्छामो दृश्यं श्रव्य्चयद्भवेत ॥(1)
-नाट्यशास्त्र 1|11
क्रीडनीयकमिच्छामो दृश्यं श्रव्य्चयद्भवेत ॥(1)
-नाट्यशास्त्र 1|11
आगे उन्होंने इसके प्रयोजन को स्पष्ट करते हुए कहा-'चारों वेदों के अतिरिक्त एक ऐसा वेद बनाइए, जिसमें सभी वर्गों को समान स्थान हो, क्योंकि जितने भी वेदोक्त व्यवहार हैं उनमें शूद्र आदि निम्न जातियों को सम्मिलित होने का अधिकार नहीं है।'
न वेदव्यवहारोSयं संश्राव्य शूत्रजातिषु
तस्मात् सृजापर वेद पंचम सार्ववर्णिकम्।।
-नाट्यशास्त्र 1|12
तस्मात् सृजापर वेद पंचम सार्ववर्णिकम्।।
-नाट्यशास्त्र 1|12
देवताओं के इस आग्रह को मानकर ब्रह्मा जी ने चारों वेदों के सत्व को लेकर एक ऐसे पांचवें वेद का निर्माण किया, जो समस्त शास्त्रों के मर्म को अभिव्यक्त कर सके और जिसके द्वारा समस्त कलाओं तथा शिल्प का प्रदर्शन हो सके। इसे 'नाट्यवेद' का नाम दिया गया, जिसमें ऋगवेद से पाठ्य (संवाद), सामवेद से गीत (संगीत), यजुर्वेद से अभिनय और अथर्ववेद से श्रृंगार आदि का संग्रह किया गया। तत्पश्चात ब्रह्मा जी के निर्देश पर भरत मुनि ने 'नाट्यवेद का अध्ययन करके 'नाटयशाला' का निर्माण किया और अपने 100 पुत्रों/शिष्यों के सहयोग से प्रथम बार नाट्य मंचन किया। बाद में उन्होंने 'नाट्यशाला' से प्राप्त ज्ञान और अपने अनुभवों के आधार पर 'नाट्यशास्त्र' की रचना की।
भारतीय परम्परा में 'नाट्यशास्त्र' को नाट्य-सम्बंधी नियमों की संहिता माना जाता है। इसमें कुल 37 अध्याय हैं, जिनमें विस्तार से नाटक के विभिन्न अंगों यथा नाट्यमण्डप, पूर्वरंग, रस, भाव, अंग, उपांग, नेपथ्य आदि पर विस्तार से चर्चा की गयी है। इस पुस्तक का रचनाकाल 400 ईसापूर्व से 100 ईसापूर्व के मध्य का माना जाता है, किन्तु इसकी महत्ता आप इस बात से समझ सकते हैं कि आज भी यह ग्रन्थ नाट्यविद्या की 'गीता' के रूप में प्रतिष्ठित है और प्रत्येक नाट्यकर्मी (चाहे वह लेखक हों, अभिनेता हों अथवा निर्देशक) के लिए इसका अध्ययन अपरिहार्य माना जाता है। उपरोक्त भूमिका बनाने का आशय सिर्फ इतना बताना है कि नाट्य विधा का महत्व क्या है और साथ ही यह समझाना भी कि नाट्य लेखन सिर्फ एक साहित्यिक विधा भर नहीं है। नाटक का असली उद्देश्य पठन-पाठन नहीं, मंचन है और जो इस बात को समझ पाता है, वही अच्छे नाटक भी रच सकता है।
नाटकों के संदर्भ में जब हम बच्चों की बात करते हैं, तो उसमें तमाम नाटकीय शर्तो के साथ ही कुछ और बातें भी जुड़ जाती हैं, यथा नाटक का विषय बच्चों के अनुकूल होना, सरल भाषा, छोटे संवाद और दृश्य योजना ऐसी, जिसे बच्चे बिना किसी बड़े की मदद के आसानी से स्वयं कर सकें। ये अतिरिक्त बंदिशें बाल नाटकों को और ज्यादा क्लिष्ट बना देती हैं। और जब हम इन कसौटियों पर किसी नाटक को कसते हैं, तभी हमें पता चल पाता है कि वह नाटक बच्चों के अनुकूल है अथवा नहीं।
हिन्दी में समय-समय पर बच्चों के नाटकों के प्रतिनिधि संकलन प्रकाशित होते रहे हैं, जिनसे यह पता चलता है कि बाल नाटकों की दशा और दिशा कैसी है। ऐसे संग्रहों के रूप में जो पुस्तकें चर्चित रही हैं, उनमें श्रीकृष्ण एवं योगेंद्र कुमार लल्ला द्वारा सम्पादित 'प्रतिनिधि बाल एकांकी' (1962), योगेंद्र कुमार लल्ला द्वारा सम्पादित 'राष्ट्रीय एकांकी' (1964), प्रकाशन विभाग, भारत सरकार द्वारा प्रकाशित 'चुने हुए एकांकी' (1965), योगेंद्र कुमार लल्ला द्वारा सम्पादित हास्य एकांकी' (1965), डा. हरिकृष्ण देवसरे द्वारा सम्पादित 'बच्चों के 100 नाटक' (1979) एवं 'प्रतिनिधि बाल नाटक' (1996). डॉ. रोहिताश्व अस्थाना द्वारा सम्पादित 'चुने हुए बाल एकांकी' (दो खण्ड-1999), जाकिर अली रजनीश' द्वारा सम्पादित 'तीस बाल नाटक (2003), डॉ. रोहिताश्व अस्थाना द्वारा सम्पादित 'सौ श्रेष्ठ बाल एकांकी नाटक' (2014) तथा डॉ. विमला भंडारी द्वारा सम्पादित 'श्रेष्ठ बाल एकांकी संचयन' (2021) प्रमुख हैं।
हिन्दी में मुख्य रूप से दो प्रकार के नाटक लिखे जा रहे हैं, ऐतिहासिक/पौराणिक नाटक और मौलिक नाटक। ऐतिहासिक अथवा पौराणिक नाटक जितने भी लिखे गये हैं, उनके विषय ज्यादातर चिर-परिचित होते हैं। इसलिए ऐसे नाटकों का लेखन बेहद चुनौतीपूर्ण माना जात है। क्योंकि रंगमंचीय मर्यादाओं की सीमा में ऐतिहासिक विषयों को रोचक ढंग से प्रस्तुत करना कोई हंसी खेल नहीं होता है। मौलिक नाटकों में मोटे-मोटे दो विभाजन पाए जाते हैं। पहले प्रकार के वे नाटक हैं, जो किसी घोषित उददेश्य को लेकर लिखे जाते हैं, जैसे देशप्रेम, साफ-सफाई, जल-संरक्षण शिक्षा का महत्व, स्वास्थ्य-चेतना आदि। दूसरे प्रकार के वे नाटक हैं जो मनोरंजन को ध्यान में रख कर लिखे जाते हैं, किन्तु एक सूक्ष्म संदेश उनके भीतर छिपा रहता है। इस तरह के बाल नाटक हिन्दी में सबसे कम लिखे गये हैं और जो लिखे भी गये हैं, उनमें रंगमंचीय नियमों का जमकर उल्लंघन हुआ है। इस वजह से उनको मंच पर उतार पाना या तो असम्भव होता है या फिर बेहद चुनौतीपूर्ण।
इस बात को समझने के लिए हम एक पुस्तक का उदाहरण ले सकते हैं, जिसका नाम है 'प्रतिनिधि बाल नाटक'। यह पुस्तक उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ की बाल साहित्य संवर्धन योजना के अन्तर्गत प्रकाशित हुई है, जिसका सम्पादन प्रख्यात बाल साहित्यकार डॉ. हरिकृष्ण देवसरे ने किया है। 1996 में प्रकाशित इस संग्रह में कुल जमा 29 नाटक हैं। जब हम इन नाटकों के रचनाकारों पर नजर डालते हैं, तो पाते हैं कि इनमें से 9 लेखक ऐसे हैं, जिनके 2-2 नाटक (मंगल संक्सेना-आदत सुधार दवाखाना, चंदामामा की जय, सुरेखा पाणन्दीकर-कला का सम्मान, कौन बनेगा राजा, केशव चंद्र वर्मा-काला चोर, बच्चों की कचहरी, श्रीकृष्ण-खेल के मैदान में, हृदय परिवर्तन, उषा सक्सेना-झांसी की रानी, हंसते गाते चेहरे, केशव दुबे-ड्रामे की दुकान, भूतों का डेरा, विष्णु प्रभाकर-दो मित्र, रिहर्सल, मनोहर वर्मा-नाटक से पहले, सख्त मोम का स्काईलैब, डॉ. श्रीप्रसाद-मटर का दाना, हुनरमंद) पुस्तक में संग्रहीत हैं। अर्थात 'प्रतिनिधि बाल नाटक' पुस्तक में मात्र 20 नाटककारों को ही स्थान मिल पाया है। यहां पर यह सवाल उत्पन्न होता है कि क्या देश भर में कुल जमा 20 लेखक ही ऐसे हैं, जो हिन्दी में बाल नाटक लिखते हैं?
जब हम इन 20 नाटककारों के 29 नाटकों का अवलोकन करते हैं, तो पता चलता है कि इनमें से 6 नाटक (आदत सुधार दवाखाना-मंगल सक्सेना, उद्यम धीरज बड़ी चीज है-रेखा जैन, काला चोर-केशवचंद्र वर्मा, गुडिया का इलाज-चिरंजीत, डॉक्टर चुनमुन- गोविन्द शर्मा, शोर-मस्तराम कपूर) तो देवसरे जी ने अपने ही पूर्व प्रकाशित संग्रह 'बच्चों के 100 नाटक से उठा लिये हैं।
अब बात कर लेते हैं बाल नाटकों की अभिनेयता की। इसके लिए एक बार फिर डॉ. हरिकृष्ण देवसरे द्वारा सम्पादित 'प्रतिनिधि बाल नाटक' की ओर चलते हैं। उन्होंने इस पुस्तक की भूमिका में भी बाल नाटकों की शर्तों का विस्तार से वर्णन किया है। लेकिन इसके बावजूद इस संग्रह में भी ऐसे तमाम नाटक हैं, जो बाल नाटकों की कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं। उदाहरणस्वरूप पुस्तक में संकलित नाटक 'झांसी की रानी'(2) को लेते हैं। इस नाटक के पहले दृश्य में कुछ इस तरह के रंग संकेत दिये गये हैं- 'रंगमंच पर यवनिका के बाहर बुन्देलखंडी वेशभूषा में सूत्रधार और नटी आते हैं।'
बच्चे ही नहीं, किसी भी सामान्य पाठक के लिए 'यवनिका' शब्द एलियन के समान है। अगर यह नाटक बच्चों के लिए लिखा गया है, तो यहां पर 'परदा' शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए था। यवनिका के बाद पाठकों का एक दूसरे शब्द से पाला पड़ता है-'बुन्देलखंडी वेशभूषा'। ये क्या होती है भाई? कानपुर या मुम्बई का रहने वाला बच्चा इसे कैसे समझ सकता है? अब पहले पाठक इस वेशभूषा के बारे में पता करे, तब जाकर नाटक के अभिनय के बारे में सोचे। इसलिए बेहतर होता कि रंग संकेत में स्पष्ट रूप से बताया जाता कि पात्रों ने जो कपड़े पहने हैं उन्हें क्या कहते हैं और वे देखने में कैसे लगते हैं। इससे बच्चों को आसानी होती और वे इस नाटक के अभिनय के बारे में सोच पाते।
इस नाटक में कुल सात दृश्य हैं, जिनमें रानी का श्रृंगार कक्ष, युद्ध-अभ्यास का मैदान, पूजा कक्ष, राजदरबार और जंगल के दृश्य शामिल हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इस तरह के नाटक का मंचन बच्चे कर सकते हैं? जवाब है बिलकुल नहीं। लेकिन इसके बावजूद यह नाटक बच्चों के प्रतिनिधि नाटक संग्रह में शामिल है। ऐसे और भी अनेक नाटक हैं, जो पुस्तक में शामिल हैं। इससे आप बच्चों के लिए लिखे जा रहे नाटकों की स्तरीयता/ मंचीयता और उनकी उपलब्धता के बारे में आसानी से अनुमान लगा सकते हैं।
इस उदाहरण से यह भी समझा जा सकता है कि हिन्दी में रंगमंचीय मर्यादाओं को ध्यान में रख कर लिखने वाले नाटककारों की संख्या बेहद सीमित है। ऐसे लेखकों के नाम आप अपनी उंगलियों पर गिन सकते हैं। इस अनुभव का साक्षी इन पंक्तियों का लेखक भी रहा है। यह 1998-99 के आसपास की बात है। लेखक ने सोचा कि अपने अन्य संग्रहों ('इक्कीसवीं सदी की बाल कहानियां, 151 बाल कविताएं' एवं '11 बाल उपन्यास) की ही भांति 51 मौलिक और मंचीय नाटकों का एक संकलन तैयार करे। किन्तु कई वर्षों तक लगातार श्रम करने के बावजूद वह 30 से अधिक मौलिक और अभिनेय बाल नाटकों को नहीं जुटा सका। और इस तरह लेखक को अपनी योजना में परिवर्तन करते हुए 51 की जगह 'तीस बाल नाटक'(3) से ही संतोष करना पड़ा।
आपको जानकार हैरानी होगी कि ऊपर जितने भी बड़े-बड़े प्रतिनिधि नाटक संग्रहों के नाम गिनाए गये हैं, वे सिर्फ संख्या की दृष्टि से ही बड़े हैं। अगर आप उनको मंचीयता की कसौटी पर कसेंगे, तो यकीनन निराशा ही आपके हाथ लगेगी। बावजूद इसके लोग अक्सर यह कहते हुए मिल जाते हैं कि हिन्दी में बाल नाटकों के क्षेत्र में बहुत शानदार काम हुआ है। और वे इसी के साथ आपको बीसियों संग्रहों, दसियों नाटक विशेषांकों और दर्जनों लेखकों के नाम गिना देंगे, जिन्हें सुनकर आप यकीनन चमत्कृत हुए बिना नहीं रह पाएंगे। पर जब आप उनका गहराई से विश्लेषण करेंगे, तो यहां पर ढोल में पोल वाला मुहावरा चरितार्थ पाएंगे।
हाल के वर्षों में यह देखने में आया है कि बाल साहित्य के प्रति लोगों का तेजी से जुड़ाव बढ़ा है। चाहे पत्रिकाओं की मांग रही हो, या फिर हर विधा में हाथ आजमाने की ललक अथवा समर कैम्पों की जरूरत, इधर पिछले कुछ सालों से नाट्य लेखन के क्षेत्र में भी कछ प्रगति दिखाई पड़ी है और उनमें कुछ नाम ऐसे जरूर मिलते हैं, जिन्होंने हाल के दिनों में कुछ अच्छे नाटक लिखे हैं। ऐसे रचनाकारों में बानो सरताज का नाम प्रमुख है। उन्होंने प्रभूत मात्रा में बाल नाटक लिखे हैं, जिनमें तीस एकांकी (किताबघर, दिल्ली) तथा इक्कीस एकांकी (अयन प्रकाशन, दिल्ली) चर्चित रहे हैं। रंगमंच से जुड़े बाल नाटककारों में उमेश कुमार चौरसिया एक चर्चित नाम है। उन्होंने ऐतिहासिक, देशभक्ति और चर्चित रचनाओं को आधार बनाकर रोचक नाटक लिखे हैं। इसके साथ ही उन्होंने कुछ शानदार मौलिक नाटक भी लिखे हैं। अलटू-पलटू चूहे'(4) उनका एक ऐसा ही नाटक है। यह जंगली जानवरों पर केंद्रित एक मनोरंजक नाटक है, जो मंचीयता की दृष्टि से भी खरा उतरता है। इस नजरिए से उनके मौलिक नाटकों की दो पुस्तकें 'प्रेरक बाल एकांकी' (साहित्यागार, जयपुर) और 'असली सुगंध' (10 नाटक, साहित्य सागर, जयपुर) काफी चर्चित रही हैं।
हेमंत कुमार रंगमंच से जुड़े हुए रचनाकार हैं। उन्होंने एकांकी नाटकों के साथ ही बच्चों के लिए लम्बी अवधि के नाटक भी लिखे हैं। 'कहानी तोते राजा की'(5) उनका एक ऐसा ही नाटक है। इस नाटक के संवाद छोटे और चुटीले हैं और भाषा अत्यंत प्रवाहमान है। नाटक के पात्र पुरातन हैं, लेकिन उनमें आधुनिकता का बहुत सुंदर छौंका लगाया गया है। पठनीयता की दृष्टि से ये एक बेमिसाल नाटक है, लेकिन मंचीयता की दृष्टि से चुनौतीपूर्ण भी। लगभग 45 मिनट के इस नाटक में मुख्य रूप से पांच तरह के दृश्य आए हैं, पहला-गायकों के लिए सामान्य मंच, दूसरा-बगीचा, तीसरा-रानी का शयन कक्ष, चौथा-राजदरबार पांचवां अध्ययन कक्ष। ये दृश्य आपस में फ्रिक्वेंटली चेंज होते हैं, जो बिलकुल अलग तरह की रंगमंचीय निपुणता की मांग करते हैं।
युवा कहानीकार मो. अरशद खान ने हाल के दिनों में कई चमत्कृत कर देने वाले बाल नाटक लिखे हैं। इनमें 'प्रतीक्षा', 'जल है तो कल है' और 'बंटवारा' सर्वोपरि हैं। 'प्रतीक्षा'(6) बूढ़ी दादी और उसकी नन्हीं पोती मन्नो पर केद्रित नाटक है। रात का समय है, बाहर बारिश हो रही है और बच्ची की मां घर में नहीं है। ऐसे में मन्नो की बूढी दादी उसे बहलाने की कोशिश करती है। वह मंदिर जाने की बातें बताती है, शादी के रोचक प्रसंग का वर्णन करके हंसाने का प्रयत्न करती है और फिर एक मनोरंजक कहानी भी सुनाती है। लेकिन जब बच्ची फिर भी नहीं बहलती, तो वह उसे भरोसा दिलाती है कि 51 बार भजन पढ़ो, तो मां आ जाएगी। इसके साथ ही दादी गिनतियां याद रखने के लिए बच्ची को 51 मटर के दाने थमा देती है। मन्नो उत्साहपूर्वक भजन गाती है, पर अंतिम मटर तक पहुंचते-पहुंचते उनींदी हो जाती है। और तभी उसके मां बापू आ जाते हैं। वे अपनी बात बताते हैं, खिलौने दिखाते हैं, पर मन्नो मां की गोद में पट से सो जाती है। कहानी में मात्र एक दृश्य है, संवाद बेहद कसे हुए हैं और सबसे बड़ी बात है नाटक के सूक्ष्म रंग संकेत, जिनके जरिए एक-एक भाव को इस सलीके से उभारा गया है कि पाठक मंत्रमुग्ध सा हो जाता है।
इसके अतिरिक्त 'जल है तो कल है' भी अरशद खान का एक शानदार नाटक है। कहानी की शुरुआत बच्चों की आपस की नोंकझोंक से होती है, जो कब पानी की महत्ता तक जा पहुंचती है, पता ही नहीं चलता। इसी प्रकार 'बंटवारा' भी उनका रोचक और सराहनीय नाटक है। यह नाटक बिल्लियों के रोटी के झगड़े में एक बन्दर द्वारा की गयी बंदरबांट की याद दिलाता है। नाटक पठनीयता के साथ ही साथ अभिनेयता की दृष्टि से भी उत्तम है और बच्चे आसानी से इसका मंचन कर सकते हैं। मो. अरशद खान के ये तीनों नाटक उनकी पुस्तक 'पानी की कीमत' में संग्रहीत हैं, जो इस संग्रह को महत्वपूर्ण बना देते हैं।
आज के समय में सोशल मीडिया जिस तरह से समाज में हावी होता जा रहा है, उसको लेकर डॉ. विमला भंडारी का एक नाटक सामने आया है। 'फेस बुकिया जंजाल'(7) नामक यह नाटक बेहद रोचक और मनोरंजक है। पाठकों को बांधने की दृष्टि से यह एक अच्छा नाटक है, किन्तु इसकी दृश्य योजना इसका कमजोर पक्ष है। यह नाटक 4 दृश्यों में विभाजित है। लेकिन यदि लेखिका ने रंगमंचीय सीमाओं को ध्यान में रखा होता, तो इसे आसानी से दूर किया जा सकता था और यह एक शानदार नाटक बन सकता था।
अंत में मैं एक अन्य नाटक 'हिरण्यकश्यप मर्डर केस'(8) का विशेष रूप से जिक्र करना चाहूंगा। बच्चों के लोकप्रिय लेखक श्रीकृष्ण का यह नाटक कई संग्रहों के साथ उनके नाट्य संग्रह 'छः बाल नाटक' में भी प्रकाशित है। जैसा कि नाम से जाहिर है यह एक पौराणिक घटना पर आधारित है, किन्तु इसे आज के अदालती परिवेश में प्रस्तुत किया गया है, जहां पर भगवान नरसिंह पर हिरण्यकश्यप के मर्डर का मुकदमा चलता है। एक दृश्य में समेटा गया यह एक अदभुत नाटक है। पात्रों का चरित्र-चित्रण, संवादों का चुटीलापन और सूक्ष्म से सूक्ष्म घटनाओं के कसे हुए रंग संकेत इसे हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ नाटकों के रूप में स्थापित करते हैं। भले ही यह नाटक आज से कई दशक पूर्व लिखा गया था, पर अपनी जबरदस्त कल्पनाशीलता और प्रभावोत्पादकता के कारण यह देशकाल की सीमा को लांघ जाता है और पाठकों को बार-बार चमत्कृत करने की क्षमता रखता है।
आमतौर से किताबों की संख्या बढ़ाने और स्वयं को कई विधाओं का मर्मज्ञ सिद्ध करने की लालसा के चलते लगभग हर बाल साहित्यकार ने कुछ न कुछ बाल नाटक लिखे हैं। ऐसे लेखकों में बहुत से बड़े-बड़े नाम भी शामिल हैं। इनमें ज्यादातर नाटक तो विषय आधारित होते हैं, जो ज्ञान बांटने और सीख देने के उबाऊ पैटर्न पर चलते हैं। इन नाटकों में न तो रंगमंचीय कौशल दिखता है और न ही प्रभावोत्पादकता की झलक, इसलिए उनकी चर्चा करने का कोई मतलब नहीं बनता है। पर इस नजरिए से वनों के संरक्षण पर केंद्रित रमाशंकर का नाटक 'बस्ती में बाघ'(9) और शिक्षा के महत्व पर आधारित नागेश पांडेय 'संजय' का नाटक 'छोटे मास्टर जी'(10) अवश्य उल्लेखनीय है। साथ ही यहां पर मैं प्रकाश मनु के नाटक 'पप्पू बन गया दादाजी' (11) और दिविक रमेश के नाटक 'मैं हूं दोस्त तुम्हारी पुस्तक'(12) की भी चर्चा करना चाहूंगा। पाठकीय दृष्टि से ये दोनों नाटक बेहद रोचक और प्रभावशाली हैं। पर अगर हम रंगमंचीय दृष्टि से देखें, तो ये बेहद चुनौतीपूर्ण हैं। यदि लेखकों ने रंग-संकेतों के नजरिए से भी इन पर थोड़ा ध्यान दिया होता, तो निश्चय ही ये शानदार नाटक बन सकते थे।
कुल मिलाकर संक्षेप में हम कह सकते हैं कि हिन्दी में बाल नाटकों की दशा और दिशा वास्तव में बेहद सोचनीय है। बालसाहित्यकारों को इस दिशा में गम्भीरता से काम करने की आवश्यकता है। यदि आपको हिन्दी में लिखे गये मौलिक और रंगदोषों से पूर्णतया मक्त शानदार बाल नाटकों की तलाश है, तो श्रीकृष्ण की 'छ: बाल नाटक', मो. अरशद खान की 'पानी की कीमत' और उमेश कुमार चौरसिया की पुस्तक 'प्रेरक बाल एकाकी' जरूर पढ़ें। यहां पर मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि बाल साहित्य के अन्तर्गत सिर्फ ये तीन पुस्तकें नहीं हैं, जो श्रेष्ठ अभिनेय बाल नाटकों के लिए याद की जाएगी। ऐसी और भी तमाम पुस्तकें हैं, पर मेरी पहुंच उन तक नहीं हो पाई है। किन्तु मौलिक और अभिनेय नाटकों के आदर्श स्वरूप को समझने में ये पुस्तकें बेहद मददगार हैं। वैसे अगर आप इसे आत्मश्लाघा न मानें तो इन पंक्तियों के लेखक द्वारा सम्पादित 'तीस बाल नाटक' को भी आप इस सूची में शामिल कर सकते हैं।
संदर्भ सूची:
1. संस्कृत नाटक की उत्पत्तिः उद्भव और विकास, वर्चुअल हिन्दी वेबसाइट, वेजपेजः https://wp.nyu.edu/virtualhindi/natyashastra2. झांसी की रानी, लेखिका-उषा सक्सेना, प्रतिनिधि बाल नाटक, संपादक हरिकृष्ण देवसरे, उ.प्र. हिन्दी संस्थान, लखनऊ, पृष्ठ-57
3. तीस बाल नाटक, संपादक-जाकिर अली 'रजनीश', यश पब्लिकेशन्स, इलाहाबाद, वर्ष-2003
4. प्रेरक बाल एकांकी, लेखक-उमेश कुमार चौरसिया, साहित्यागार, जयपुर, पृष्ठ-9
5. कहानी तोते राजा की, लेखक-हेमंत कुमार, काव्य प्रकाशन, हापुड़, उ.प्र., पृष्ठ-14
6. पानी की कीमत, लेखक-मो. अरशद खान, न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, दिल्ली, पृष्ठ-18
7. श्रेष्ठ बाल एकांकी संचयन, संपादक-डा. विमला भण्डारी, साहित्यागार, जयपुर, पृष्ठ-18
8. छ: बाल नाटक, लेखक-श्रीकृष्ण, अभिरुचि प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-7
9. बस्ती में बाघ, लेखक-रमाशंकर, श्रेष्ठ बाल एकांकी संचयन, संपादक-डा. विमला भण्डारी, साहित्यागार, जयपुर, पृष्ठ-73
10. छोटे मास्टर जी, लेखक-नागेश पांडेय 'संजय', 100 श्रेष्ठ बाल एकांकी नाटक भाग-2. संपादक-रोहिताश्व अस्थाना, मेट्रो पब्लिशिंग कंपनी, दिल्ली, पृष्ठ-70
11. इक्कीसवीं सदी के बाल नाटक, लेखक-प्रकाश मनु, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-9
12. श्रेष्ठ बाल एकांकी संचयन, संपादक-डा. विमला भण्डारी, साहित्यागार, जयपुर, पृष्ठ-73
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