साहित्य जगत में एक कहावत खूब प्रचलित है, तू मेरी पीठ खुजा, मैं तेरी पीठ खुजाऊं। यानी तू मुझे सम्मानित कर, मैं तुझे सम्मानित कर दूंगा। और ...
साहित्य जगत में एक कहावत खूब प्रचलित है, तू मेरी पीठ खुजा, मैं तेरी पीठ खुजाऊं। यानी तू मुझे सम्मानित कर, मैं तुझे सम्मानित कर दूंगा। और सम्मान भी क्या, बस एक प्रमाण पत्र भर हो, वो ही काफी है। हां, उसमें शब्दावली भारी-भरकम होनी चाहिए- हिन्दी साहित्य की महान हस्ती, मां सरस्वती के समर्पित साधक, हिन्दी भाषा के गौरव, साहित्य के भूषण फलां, फलां, फलां की अप्रतिम साहित्यिक सेवाओं को दृष्टिगत रखते हुए यह संस्था इन्हें फलां, ढि़मका सम्मन से विभूषित करते हुए गर्व का अनुभव कर रही है। और इस बीस रूपल्ली के प्रमाणपत्र को लेने के लिए देश का महान साहित्यकार 500 किमी0 की दूरी को अपने पैसों से नापता हुआ हांफता-भागता चला जा रहा है...
ये हास्यास्पद से दृश्य आज बेहद आम हो चले हैं। और अब तो भाई लोगों ने बाकायदा ऐसी संस्थाएं बना ली हैं, जो इन तथाकथित सम्मानों के लिए 500-1000 रूपये सदस्यता के रूप में लेती हैं और सम्मान के भूखे साहित्यकारों की बदौलत ऐसी संस्थाएं कुकरमुत्तों की भांति बढ़ती चली जा रही हैं।
ऐसे ही लिजलिजे और निंदनीय समय में जब आज से दो साल पहले मनुमुक्त 'मानव' मेमोरियल ट्रस्ट (पंजीकृत) की ओर से मेरे पास फोन आया कि यह संस्था आगामी दिवसों में वरिष्ठ बालसाहित्यकार डॉ. रामनिवास 'मानव' के पुत्र की स्मृति में 7 विशिष्ट/युवा बाल साहित्यकारों को सम्मानित करना चाहती है। मुझे बताया गया कि मनुमुक्त 'मानव' एक प्रतिभा सम्पन्न आईपीएस अधिकारी थे, जिनका असमय ही निधन हो गया था। ऐसे में इस तरह के सम्मानों से मन ही मन तौबा करने के बावजूद मैं स्वयं को सहमति देने से मना नहीं कर पाया। मुझे लगा था कि एक पिता अपने योग्य पुत्र की स्मृति में कोई सम्मान देना चाहता है, तो इसे मना करना उचित नहीं होगा।
लेकिन जल्दी ही मेरा यह भ्रम टूट गया, जब संस्था की ओर से एक फोटो स्टेट पत्र (देखें चित्र) में मेरा नाम भरकर तैयार किया गया संस्था का पत्र 'साधारण डाक' से मुझे प्राप्त हुआ। पत्र को देखकर मेरा मन बुरी तरह से खिन्न हो गया। पर तब तक सम्मान समारोह के लिए मैं रिजर्वेशन करवा चुका था, इसलिए मन मसोस कर रह गया।
लेकिन यह ड्रामा अभी बाकी था। कुछ ही समय बाद कार्यक्रम में चलने के लिए एक अन्य सम्मानित होने वाले मित्र को फोन किया, तो पता चला कि कार्यक्रम तो रद्द हो चुका है। यह सुनकर मैं हतप्रभ रह गया। कारण मेरे पास आयोजक/संयोजक की ओर से इस तरह का कोई फोन तक नहीं आया था। मित्र से ही पूछने पर पता चला कि आयोजक महोदय ने फेसबुक पर मैसेज करके यह सूचना 2-3 दिन पहले भेज दी थी।
पुत्र की स्मृति में सम्मान और कार्यशैली में इतनी गैरजिम्मेदारी? ऐसे में क्रोध और क्षोभ होना स्वाभाविक था। पर मन मार कर चुप रह गया। और मन ही मन प्रतिज्ञा कर डाली कि अब इस समारोह ही नहीं, इस तरह के किसी भी समारोह में भूले से भी नहीं जाऊंगा। और अगर आयोजक/संयोजक का फोन भी आया, तो भी मैं साफ मना कर दूंगा।
लेकिन तमाशा अभी बाकी था। कल 06 अगस्त, 2017 को यूं ही फेसबुक खोला, तो बाल साहित्यकार गोविंद शर्मा की मुझे टैग की हुई पोस्ट को देखकर दंग रह गया। आयोजक महोदय ने न सिर्फ 2 साल पुराने सम्मान समारोह की नई तारीख घोषित कर दी थी, वरन सम्मानों की संख्या भी 7 से बढ़कर 10 तक पहुंचा दी थी। यानी कि ऐसे सम्मानों के लिए भी दावेदार लाइन में लगे थे और येन-केन-प्रकारेण उसमें अपना नाम शामिल कराने में भी सफल हो चुके थे। और हैरानी की बात यह कि अब तक पूर्व घोषित सम्मानित बाल साहित्यकारों को सूचित करने की ज़हमत तक नहीं की गयी थी।
तो मित्रों, यह है सम्मानों की सच्चाई और साहित्यकारों की हैसियत, जो समय-समय पर खुद-ब-खुद प्रमाणित होती रहती है। अगर इस अपमान को भी आप सम्मान समझ रहे हैं, तो अपनी समझ पर एक बार फिर से विचार करें। और माफ कीजिए मनुमुक्त 'मानव' मेमोरियल ट्रस्ट (पंजीकृत) के आयोजकों/संयोजकों, मेरा आत्मसम्मान इतना हल्का नहीं कि मैं इस भौंडी नौटंकी का हिस्सा बनकर सरेआम अपना अपमान करवाऊं। आपका यह कृत्य साहित्यकारों का सम्मान नहीं, उनका अपमान है, और मैं खुले लफ्ज़ों में इसकी निन्दा करता हूं। और साथ ही साथ मैं यह भी कहना चाहता हूं कि यह उस स्मृति शेष आत्मा का भी अपमान है, जिसके नाम पर यह सब किया जा रहा है। कृपया इसे अविलम्ब बंद करें।
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आपका यह अनुभव कईयों को प्रेरित करेगा।
जवाब देंहटाएंआपका यह अनुभव कईयों को प्रेरित करेगा।
जवाब देंहटाएंसम्मानों की कड़वी सच्चाई बयान की हैं आपने। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंसम्मान पाने की आपाधापी में साहित्यकारों ने सम्मान की परिभाषा ही बदल कर रख छोड़ी है
जवाब देंहटाएंएक कटु सत्य