डॉ. बानो सरताज द्वारा रचित 'इक्कीस एकांकी' पुस्तक पर समीक्षात्मक टिप्पणी।
हिन्दी बाल साहित्य का विहंगावलोकन करने पर जो बात सबसे ज्यादा अखरती है, वह यह कि बाल साहित्य के नाम पर ज्यादातर कविता और कहानी का ही चलन है। हालांकि विधा के नाम पर काफी मात्रा में औपन्यासिक रचनाएं भी देखने को मिलती हैं, पर उनमें से भी ज्यादातर ऐसे हैं, जो लम्बी कहानी जैसी ही प्रतीत होती हैं। इनके अतिरिक्त अन्य विधाओं में मौलिक साहित्य की जबरदस्त कमी देखने को मिलती है।
इन्हीं उपेक्षित विधाओं में से एक है- बाल नाटक अथवा बाल एकांकी। यही कारण है कि आज जब प्रभूत मात्रा में बाल साहित्य रचा जा रहा है, हिन्दी में बाल नाटकों की अच्छी पुस्तकें खोजने से भी नहीं मिलती हैं। यही कारण है कि ऐसे में जब किसी लेखक की नाट्य विधा में कोई पुस्तक देखने को मिलती है, तो पाठकों को सुकून का एहसास होता है।
ऐसा ही सुकून का एहसास अयन प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित बानों सरताज की पुस्तक 'इक्कीस एकांकी' देखने पर भी होता है। बानो सरताज हिन्दी बाल साहित्य का एक चर्चित नाम है। वे एक सक्रिय रचनाकार हैं और हिन्दी के साथ-साथ उर्दू और मराठी में भी समर्पित भाव से लेखन करने के लिए जानी जाती हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने अनुवाद के द्वारा भी बाल साहित्य के भंडार को भरने का प्रशंसनीय कार्य है।
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि इस संग्रह में बानो सरताज के 21 नाटकों को संग्रहीत किया गया है। इन नाटकों में से अधिकतर रचनाएं ऐतिहासिक विषयों को आधार बनाकर रची गयी हैं, जो देशप्रेम, न्याय व्यवस्था एवं राष्ट्रीय एकता जैसे भावों को पाठकों के समक्ष परोसती हैं। हालांकि इनमें से ज्यादातर नाटकर चर्चित ऐतिहासिक घटनाओं की पृष्ठभूमि पर रचे गये हैं, पर कुछ विषय बिलकुल अनछुए हैं और उन्हें पढ़ते हुए एक सुखद हवा के झोंके सा एकसास होता है।
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संग्रह के दो नाटक 'अनमोल तोहफा' और 'बचपन को आवाज दो बचपन' विशेष रूप से अपना ध्यान खींचते हैं, जिनमें बच्चों को आधार बनाकर जीवन-मूल्यों की स्थापना का प्रयास किया गया है। इसी तरह जंगल के जीवों को आधार बनाकर रचे गये नाटक 'गुलशन वन का विचित्र जीव' और 'बेचारा भोलानाथ' भी अपनी सशक्त भवभूमि के कारण पाठकों को लुभाने में सफल रहते हैं। इसी के साथ संग्रह में मौजूद 'एक के तीन' रचना की विशेष रूप से चर्चा करनी होगी, क्योंकि यह हास्यरस से भरपूर एक मजेदार नाटक है। यह नाटक हालांकि एक लोककथा पर आधारित है, पर फिरभी इसका नाट्य रूपांतरण बेहद सफल रहा है।
जब भी हम हिन्दी बाल नाटकों को समग्रता से देखते हैं, तो जो चीज हमारा सबसे पहले ध्यान खींचती है, वह है बाल नाटकों की अभिनेयता। क्योंकि बाल नाटक के नाम पर जो भी रचनाएं देखने को मिलती हैं, उनमें रंगमंचीय मर्यादाओं की अवहेलना प्रमुखता से देखने को मिलती है। यही कारण है कि ये नाटक न तो बच्चों के बीच लोकप्रिय हो पाते हैं और न ही साहित्य में भी गम्भीरता से अपनी उपस्िथति दर्ज करा पाते हैं। खेद का विषय है कि इस मुद्दे पर यह कृति भी इसका अपवाद नहीं बन सकी है।
प्रकाशक ने पुस्तक को बहुत ही सुघड तरीके से प्रस्तुत किया है। पुस्तक का
मुख्य पृष्ठ बेहद आकर्षक है तथा भीतर भी चित्ताकर्षक चित्रों से रचनाओं को
सजाया गया है। लेखिका ने अपने स्तर पर बाल नाटकों की कमी पूरा करने का जो प्रयत्न किया है, इसके लिए वे बधाई की पात्र हैं। आशा है बाल नाटकों के प्रति उनका यह अनुराग बना रहेगा और भविष्य में उनके द्वारा और अधिक उपयोगी और सार्थक रचनाएं पाठकों को प्राप्त होंगी।
पुस्तक: इक्कीस एकांकी
लेखिका: बानो सरताज
प्रकाशक: अयन प्रकाशन, 1/20, महरौदी, दिल्ली-110030, दूरभाष-26645812
मूल्य: 300 रू0
आदरणीय रजनीश जी आपने सही फरमाया। दरअसल अधिकतर बालसाहित्यकार प्रकाशकांे के इशारे पर साहित्य संसार में कूदे हुए लगते हैं। संग्रह छपवाने की बीमारी-सी लगती है। यह बात सही है कि नाटक वह भी खेलने लायक ढूंढे से भी नहीं मिलता। मिलता भी है तो वह लोककथाओं और ऐतिहासिक घटनाओं से ओत-प्रोत होते हैं। न ही वह पठनीय होते हैं और न ही मंचनीय। फिर भी कुछ तो छप रहा है, ये बात दीगर है िकवह रेखांकित तो हो। सादर,
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