समाज के टाइम कैप्स्यूल की तरह है साहित्य!

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भारतीय समाज एक पारम्परिक समाज है, जो तेजी से अति उन्नत समाज में परिवर्तित हो रहा है। एक ओर जहां हमें इसके अनेक लाभ प्राप्त हो रहे हैं, वह...

भारतीय समाज एक पारम्परिक समाज है, जो तेजी से अति उन्नत समाज में परिवर्तित हो रहा है। एक ओर जहां हमें इसके अनेक लाभ प्राप्त हो रहे हैं, वहीं दूसरी ओर इसके अनेकानेक दुष्परिणाम भी हमारे सामने आ रहे हैं। किन्तु यह सुकून का विषय है कि हमारे साहित्यकार इस बदलाव को लेकर बेहद सजग हैं। वे पूरी जिम्मेदारी के साथ अपनी रचनाओं में इस बदलाव को सहेज रहे हैं। ये रचनाएं आने वाली पीढि़यों के लिए टाइम कैप्स्यूल की तरह हैं। क्योंकि जब भविष्य के पाठक इनसे दो-चार होंगे, तो वे इनके द्वारा इन रचनाओं के कालखण्ड से भी रूबरू हो सकेंगे।

बाएं से: प्रीति चौधरी, अखिलेश, वीरेन्द्र यादव, हरे प्रकाश उपाध्याय
उपरोक्त बातें वरिष्ठ आलोचक वीरेन्द्र यादव ने मोतीमहल लॉन में आयोजित बारहवें पुस्त्क मेले के दौरान कहीं। वे राजकमल प्रकाशन द्वारा आयोजित ‘कहानियां रिश्तों की, बदलाव समय का' विषयक परिचर्चा की अध्याक्षता कर रहे थे। उन्होंने इसी नाम से प्रकाशित श्रृंखला के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि इसके बहाने आज के पाठक विभि‍न्न कालखण्डों से साक्षात्कार कर सकेंगे। हिंदी साहित्य के इतिहास में यह पहली बार हुआ है और इसके लिए प्रकाशक निश्चय ही बधाई का पात्र है। 

इससे पूर्व वरिष्ठक कहानीकार एवं रिश्तों की कहानियां श्रृंखला के संपादक अखिलेश ने इस क्रम में प्रकाशित 11 पुस्तकों का उल्लेख करते हुए कहा कि रिश्ते ही किसी समाज की बुनियाद होते हैं और साहित्य के केन्द्र में भी वे ही होते हैं। लेकिन अलग-अलग कालखण्ड में ये रिश्ते अलग-अलग तेवर में हमारे सामने आते हैं। उन्होंने बताया कि इस श्रृंखला के माध्यम से भिन्न- भिन्न कालखण्डों के प्रतिनिधि रचनाकारों की विभिन्न भावों की रचनाओं को एक स्थान पर संग्रहीत किया गया है, जिनको पढ़ना एक विशिष्ट अनुभव प्रदान करता है।

युवा आलोचक अवधेश मिश्र ने उपेक्षित हो रहे चचेरे, ममेरे, फुफेरे भाई बहनों और दादा-नाना जैसे रिश्तों की प्रासंगिकता को रेखांकित करते हुए कहा कि न्यूकिलयर परिवार की अवधारणा ने इन रिश्तों को विलोपन की ओर धकेल दिया है, जिससे व्यकि्त की सामाजिकता अपनी पहचान खो रही है। यही कारण है कि इन रिश्तों की ओर ध्यान दिलाया जाना जरूरी हो जाता है। 

युवा कवि, उपन्यासकार एवं संपादक हरे प्रकाश उपाध्याय ने साहित्य के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि साहित्य का काम है मनुष्यता की लौ को जगाए रखना। ये सच है कि हमारे रिश्ते बदल रहे हैं, ऐसे में बदलते हुए माहौल में अलग-अलग कालखण्ड के प्रतिनिधि‍ साहित्य के बहाने इन बदलावों से एक साथ रूबरू कराना एक सार्थक पहल है, जिसके लिए राजकमल प्रकाशन बधाई का पात्र है।
संचालन के दायित्व का निर्वहन
नारी विमर्श की चर्चित हस्तारक्षर प्रीति चौधरी ने वर्तमान समाज में तेजी से क्षरण का सामना कर रहे मानवीय मूल्यों एवं भावों की ओर ध्यान दिलाते हुए कहा कि प्रेम किसी भी सभ्य समाज की नींव के समान है। कभी यह प्रेम समर्पण एवं त्याग के लिए जाना जाता रहा है लेकिन आज इसे आक्रामकता, छीन-झपट और लूट-खसोट के रूप में सामने आ रहा है। ऐसे में साहित्यकारों के सामने यह गंभीर चुनौती है कि कैसे वे इस ह्रास की ओर समाज का ध्यान आकृष्ट करें और उन्हें चिंतन एवं मनन के लिए प्रेरित करें।

परिचर्चा का संचालन साइंटिफिक वर्ल्ड वेब पोर्टल के संपादक डॉ. जाकिर अली रजनीश ने किया। उन्होंने राजकमल प्रकाशन के प्रतिनिध‍ि‍ के रूप में आमंत्रित वक्ताओं और श्रोताओं के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया।
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समाज के टाइम कैप्स्यूल की तरह है साहित्य!
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