Harikrishna Devsare Biography in Hindi
अभी ज्यादा अर्सा नहीं हुआ, जब सामाजिकों को बाल साहित्य ही नहीं स्वयं बच्चों का भी स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार्य नहीं था। रूढियों में जकड़े हमारे समाज में बच्चे ऐसी इकाई थे, जिन्हें ‘ठोंक-पीट‘ कर और ‘डांट-डपट‘ कर ‘आज्ञाकारी बालक‘ बनाना परिवार का प्रथम कर्तव्य समझा जाता था। सामंती विचारधारा में निमग्न उस तत्कालीन समाज में अगर बच्चों के लिए साहित्य के नाम पर कुछ था, तो सिर्फ धार्मिक नीतिकथाएं और उपदेशात्मक लोक कथाएं।
लेकिन जैसे-जैसे समाज में आधुनिकताबोध का प्रसार हुआ, वैसे-वैसे न सिर्फ बच्चों के स्वतंत्र अस्तित्व को प्रबुद्धजनों ने स्वीकारा, वरन उनके लिए आधुनिक मूल्य-बोध से सम्पन्न साहित्य की आवश्यकता भी महसूस की जाने लगी।
पराग के नेतृत्व में प्रारम्भ हुए इस वैचारिक आह्वान को आंदोलन का रूप देने में डॉ. हरिकृष्ण देवसरे का प्रमुख योगदान है।
डॉ0 हरिकृष्ण देवसरे ने अपने कटु अनुभवों से यह सहज ही जान लिया था कि सामंती शक्तियां येन-केन-प्रकारेण आज भी समाज को अपना गुलाम बनाए रखना चाहती हैं। वे नहीं चाहतीं कि सामाजिकों में चेतना का प्रसार हो। इसलिए ये शक्तियां धर्म और संस्कृति के नाम पर समाज में आडम्बरों, जादू-टोने, तंत्र-मंत्र और परीकथाओं को बढ़ावा देती हैं ताकि आमजन अपने चारों ओर पसरी समस्याओं की तह तक न पहुंच सकें। अपनी दुर्दशा के लिए वे अपने भाग्य को कोसें और उनके निराकरण के लिए चमत्कारों की आस जोहने को ही अपनी नियति मानें।
जीवन को करीब से रहकर जीने वाले और सामाजिक विद्रूपताओं का बचपन से साक्षात्कार करने वाले
बच्चों को मायावी फंतासी के इस दुष्चक्र से निकालने के लिए डॉ0 देवसरे ने न सिर्फ ‘पराग‘ के माध्यम से रचनाकारों को प्रेरित किया, वरन स्वयं भी वैज्ञानिक चेतना से सम्पन्न साहित्य की रचना करके साहित्यकारों के समक्ष अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया।
09 मार्च, 1938 (आफीशियल जन्मतिथिः 03 मार्च, 1940) को मध्य प्रदेश के सतना जिले की नागौर तहसील में जन्में डॉ0 देवसरे बाल साहित्य के प्रयोगवादी लेखक के रूप में जाते हैं। उन्होंने 1984 से 1991 तक के ‘पराग‘ के सम्पादन के दौरान बाल साहित्य में राजा-रानी और परीकथाओं की प्रासंगिकता पर तर्कपूर्ण ढ़ंग से सवाल उठाए और बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास पर बल दिया।
डॉ0 देवसरे बाल साहित्य के प्रथम गम्भीर अध्येता के रूप में भी जाने जाते हैं। उन्होंने अपने गुरु एवं नाटककार शंकर शेष की प्रेरणा से ‘हिन्दी बाल साहित्यः एक अध्ययन‘ विषयक शोध प्रबंध (निर्देशक-डॉ0 उदय नारायण तिवारी) लिखकर जबलपुर विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि अर्जित की। वर्ष 1968 में घटित हुई इस घटना के द्वारा उन्होंने न सिर्फ बाल साहित्य समीक्षा के क्षेत्र में एक क्रान्तिकारी शुरूआत की, वरन हिन्दी बाल साहित्य पर प्रथम पी-एच0डी0कर्ता के रूप में भी स्वयं का नाम भी दर्ज कराया।
डॉ0 देवसरे ने न सिर्फ स्तरीय बाल साहित्य रचकर बाल साहित्य के भंडार को भरा, बल्कि प्रतिनिधि बाल साहित्य को एक सूत्र में पिरोने का महती कार्य भी किया। यही कारण है कि उनके सम्पादन में प्रकाशित ‘बच्चों की 100 कहानियां‘, ‘बच्चों की 100 कविताएं‘, ‘बच्चों के 100 नाटक‘ (शकुन प्रकाशन, दिल्ली) एवं ‘प्रतिनिधि बाल नाटक‘ (उ.प्र. हिन्दी संस्थान, लखनऊ) संग्रह आज भी बाल साहित्य जगत में मील के पत्थर के रूप में जाने जाते हैं। इसके अतिरिक्त उनके सम्पादन में साहित्य अकादेमी, दिल्ली से 4 भागों में प्रकाषित पुस्तक ‘भारतीय बाल कहानियां‘ (21 भाषाओं की प्रतिनिधि 52 रचनाएं) भारतीय भाषाओं के एक अद्वितीय कहानी संग्रह के रूप में जानी जाती है।
300 से अधिक पुस्तकों के लेखक डॉ0 देवसरे ने यूं तो कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी, आलोचना आदि सभी विधाओं को समृद्ध किया है, पर वे मुख्य रूप से आधुनिक बोध से सम्पन्न बाल कथाओं, विज्ञान कथाओं और अपनी बेबाक समीक्षाओं के लिए जाने जाते हैं। ‘हिन्दी बाल साहित्यः एक अध्ययन‘ के अतिरिक्त उनकी पुस्तक ‘बाल साहित्यः रचना और समीक्षा‘ भी काफी चर्चित रही है। उनकी पुस्तक ‘बाल साहित्यः मेरा चिंतन‘ भी इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है। इस पुस्तक में समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाषित होने वाले उनके आलेखों को संग्रहीत किया गया है, जिनमें उन्होंने बाल साहित्य के महत्व, उसकी स्थिति और विभिन्न विधाओं के बाल साहित्य का आलोचनात्मक विष्लेषण प्रस्तुत किया है।
डॉ0 हरिकृष्ण देवसरे ने बाल साहित्य की जो सेवा की है, वह अतुलनीय है। उनकी इन सेवाओं के लिए उन्हें दर्जनों संस्थाओं के द्वारा पुरस्कृत/सम्मानित किया गया, जिनमें उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का बाल साहित्य भारती सम्मान और साहित्य अकादेमी का बाल सहित्य सम्मान प्रमुख हैं।
डॉ0 देवसरे की गिनती साहित्य के उन मनीषियों में होती है, जिनकी नसों में बाल साहित्य जुनून की तरह दौड़ता रहा। अपने इसी जुनून के कारण ही वे आकाशवाणी के सहायक निदेशक जैसे पद का परित्याग करके ‘पराग‘ पत्रिका के संपादकत्व को स्वीकारने का साहस जुटा सके। और उनका यह जुनून उनके पूरे सम्पादनकाल (1984-1991) में सहज रूप में परिलक्षित हुआ। यही कारण है कि ‘पराग‘ न सिर्फ इस दौरान अपने उरूज पर रही, बल्कि उसने साहित्य जगत के बीच में बाल साहित्य को एक सम्मानजनक स्थान दिलाने में भी महती भूमिका अदा की।
बाल साहित्य के प्रति उनके इस लगाव को बनाए रखने में निःसंदेह उनकी जीवन संगिनी विभा देवसरे का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। विभा स्वयं बालसाहित्य की एक सषक्त हस्ताक्षर हैं। यह उनके अनन्य सहयोग का ही परिणाम था कि ‘पराग‘ बंद होने के बाद भी देवसरे का जुनून कम नहीं हुआ और वे लेखनी को अपनी आजीविका बनाने के कठिन दौर में भी बाल साहित्य सेवा के अपने व्रत से विरत न हो सके।
बाल साहित्य के प्रति उनका यह समर्पण 14 नवम्बर, 2013 तक अबाध गति से जारी रहा, जब उन्होंने जीवन की अन्तिम सांस ली। उन्होंने 75 वर्षों का भरपूर जीवन जिया, जिसमें से लगभग 60 वर्ष उन्होंने बाल साहित्य की सेवा में बिताए। उनके इस समर्पण भाव को ओमप्रकाश कश्यप की पुस्तक ‘हरिकृष्ण देवसरे का बालसाहित्य‘ में शिद्दत से महसूस किया जा सकता है।
देवसरे जैसा साहित्यकार सदियों में एक बार ही जन्म लेता है। भौतिक रूप में वे भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं, पर उनका स्नेहिल आशीष हम सबके दिलों को महका रहा है। और शायद यह कहना कोई अतिश्योक्ति न होगी कि जब तक इस धरती पर बच्चे रहेंगे, बच्चों का साहित्य रहेगा, डॉ. हरिकृष्ण देवसरे बाल साहित्य के आकाश में ध्रुव तारे की भांति जगमगाते रहेंगे।
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पिछले दिनों हरिकृष्ण देवसरे जी द्वारा रचित दृश्य-श्रव्य सामग्री पर केन्द्रित उनका एक उपयोगी वीडियो जारी किया गया है। वह वीडियो आपकी सेवा में प्रस्तुत है:
आपकी इस ब्लॉग-प्रस्तुति को हिंदी ब्लॉगजगत की सर्वश्रेष्ठ कड़ियाँ (26 दिसंबर, 2013) में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,,सादर …. आभार।।
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डा. देवसरे का स्मरण करता शानदार आलेख। वह ध्रुव तारा बनकर भी बाल साहित्य को जगमगाते रहेंगे।
हटाएंडा. देवसरे का स्मरण करता शानदार आलेख। आभार।
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