गुल्‍लू और एक सतरंगी: सात खण्डों में प्रकाशित होने वाला हिन्दी का पहला बाल उपन्यास।
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गुल्‍लू और एक सतरंगी: सात खण्डों में प्रकाशित होने वाला हिन्दी का पहला बाल उपन्यास।

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Gullu aur Ek Satrangi (Childrens Novel) by Sriniwas Vats

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गुल्‍लू और एक सतरंगी: बाल उपन्यास के क्षेत्र में अभिनव प्रयोग तो है, पर सवाल भी बहुत गहरे हैं।

-डॉ. ज़ाकिर अली ‘रजनीश’

हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास इस बात का गवाह है कि बाल कहानी की तुलना में बाल उपन्यासों का विकास काफी धीमी गति से हुआ है। कारण हमारे समाज में बहुत समय तक यह समझा जाता रहा कि बच्चे बेहद चंचल स्वभाव के होते हैं, उन्हें ज्यादा देर तक एक जगह पर स्थिर रख पाना दूभर होता है। इसी समझ के आधार पर काफी समय तक बाल साहित्यकार इस भ्रम में जीते रहे कि वयस्क व्यक्ति तो मोटे-मोटे उपन्यासों को पढ़ने का धैर्य जुटा सकते हैं, पर बच्चे नहीं। किन्तु धीरे-धीरे यह भ्रमजाल टूटा और बाल उपन्यासों की आवश्यकता के बारे में भी सोचा जाने लगा।

हिन्दी में इस पहल का श्रेय ‘अलीबाबा चालिस चोर’, ‘रॉबिनहुड’ जैसी लम्बी कहानियों और ‘सिंदबाद जहाजी’, ‘रॉबिन्सन क्रूसो’ एवँ ‘टॉम काका की कुटिया’ जैसे अनुदित उपन्यासों को जाता है। अपनी विषयगत नवीनता और कथ्य की रोचकता के कारण ये रचनाएँ बड़ों ही नहीं, बाल पाठकों के बीच भी काफी सराही गयीं। इनसे प्रेरित होकर भूपनारायण दीक्षित ने 1952 में ‘खड़खड़देव’ नाम मौलिक बाल उपन्यास लिखने का साहस जुटाया, जो ‘बालसखा’ में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। उपलब्ध जानकारी के अनुसार इसे ही हिन्दी का प्रथम मौलिक बाल उपन्यास माना जाता है।

‘खड़खड़देव’ से शुरू हुई बाल उपन्यासों की परम्परा को परिपुष्ट करने में विभिन्न पत्रिकाओं का योगदान रहा है। इन पत्रिकाओं में जहाँ एक ओर ‘बालसखा’, ‘किशोर’, ‘पराग’ और ‘नंदन’ जैसे नाम प्रमुख हैं, वहीं ‘धर्मयुग’ और ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ ने भी इस मुहिम को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन पत्रिकाओं ने धारावाहिक उपन्यासों को प्रकाशित कर न सिर्फ बाल साहित्य की इस नवीन विधा को पुष्पित एवं पल्लवित होने का अवसर उपलब्ध कराया, वरन रचनाकारों की लेखनी को भी एक नया आयाम प्रदान किया।

बाल उपन्यासों के इतिहास का अध्ययन यह बताता है कि हिन्दी में मुख्य रूप से परीकथात्मक, ऐतिहासिक, सामाजिक, रहस्य-रोमांचपरक और विज्ञान केन्द्रित उपन्यासों का जोर रहा है। यह अध्ययन इस बात की भी तस्दीक करता है कि प्रारम्भिक काल में जहाँ अधिकाँश उपन्यास परी कथाओं और ऐतिहासिक विषयों पर आधारित होते थे, वहीं वर्तमान काल में सामाजिक विषयों, रहस्य-रोमाँच और विज्ञान को केन्द्र में रख कर रचे जा रहे उपन्यासों का प्रतिशत अधिक है। इसका मुख्य कारण है हाल के वर्षों में वैज्ञानिक प्रगति के कारण बच्चों की सोच में आया आमूलचूल बदलाव। और इसी बदलाव का एक शानदार उदाहरण है श्रीनिवास वत्स का नवीनतम बाल उपन्यास ‘गुल्लू और एक सतरंगी’।

श्रीनिवास वत्स हिन्दी बाल साहित्य के एक चर्चित हस्ताक्षर हैं और विशेष रूप से परी कथाओं के लिए जाने जाते हैं। ‘रात में पूजा’, ‘अनोखा फल’, शंख वाला राजकुमार’ और ‘सुनहरा पत्थर’ जैसी लगभग एक दर्जन पुस्तकों के रचनाकार वत्स की पुस्तक ‘हिलने लगी धरती’ काफी चर्चित रही है। यह लोक कथा शैली में रची गयी छोटी-छोटी बाल कहानियों का संग्रह है, जिसपर उन्हें वर्ष 2003 में श्रीमती रतनशर्मा स्मृति बाल साहित्य पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है।

कुछ लोगों के लिए यह अचरज का विषय हो सकता है कि लगभग साढ़े तीन दशक तक बच्चों के लिए परी कथाओं का मायाजाल रचने वाले श्रीनिवास वत्स की सोच में आखिर ऐसा क्या बदलाव आया, जो उन्होंने परी कथाओं की दुनिया से किनारा करके समकालीन समाज पर कलम चलाने का निर्णय कर लिया। किन्तु जो लोग हिन्दी बाल कथा साहित्य से गहराई से जुड़े हैं, वे जानते हैं कि साहित्य में नारीवाद और दलित चेतना के उभार के फलस्वरूप ‘परी कथाएँ’ जिस तीव्रता से आलोचना का शिकार हुई हैं, उसके कारण उनके अंध समर्थक भी अपना ट्रेन्ड चेन्ज करने के लिए विवश हुए हैं। 

आलोच्य उपन्यास के लेखक ने इस बदलाव को अपने ढ़ंग से भी जस्टीफाई करने का प्रयत्न किया है। वे ‘अपनी बात' में इस सम्बंध में लिखते हैं- ‘...साथ ही यह भी अनुभव कर रहा था कि अब आप राजकुमार या नन्ही परी से इतर ऐसे नायक की कहानी पढ़ना चाहेंगे, जो आप जैसा सामान्य बच्चा हो। आप जैसे सामान्य परिवार से हो।’

धरती पर जीवों के विकास का गहनतम अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन से लेकर सामाजिक अध्ययनकर्ता तक यह मानते आए हैं कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। और जो इस परिवर्तन के अनुकूल स्वयँ को ढ़ाल पाता है, वही संसार में शेष रह पाता है। प्रसन्नता का विषय है कि श्रीनिवास वत्स ने भी परिवर्तन के दौर से गुजर रहे आज के बच्चों की मानसिक अपेक्षाओं को समझा और तद्नुरूप एक सर्वथा नवीन विषय को आधार बनाकर अपनी रचना का सृजन किया।

जैसा कि सर्वविदित है कि ‘गुल्लू और एक सतरंगी’ एक वृहद बाल उपन्यास है, जो सात खण्डों में प्रकाशित होने वाला है। चूँकि श्रीनिवास वत्स एक दक्ष रचनाकार हैं इसलिए वे इस बात से भलीभांति भिज्ञ थे कि किसी कथानक को सात खण्डों तक बांधे रखने के लिए उन्हें एक ऐसी कहानी की आवश्यकता होगी, जो समसामयिक होने के साथ वैश्विक जुड़ाव का सामर्थ्य रखती हो और जिसमें रोचकता का भी भरपूर पुट हो। इसके साथ ही लेखक ने सोचा होगा कि यदि परी कथाओं के ‘जादुई प्रभाव‘ को भी इसमें समाहित कर दिया जाए, तो निश्चय ही यह सोने पर सुहागा का काम करेगा। और जैसा कि प्रथम दृष्टया स्पष्ट है ‘गुल्लू और एक सतरंगी’ का प्रथम खण्ड इन तमाम विशेषताओं को समेटने में सफल रहा है।

उपन्यास के मुख्य पात्रों में गुल्लू, उसकी छोटी बहन ‘राधा‘, पिता ‘विजयपाल‘, सौतेली माँ ‘सविता मौसी‘, सैतेला भाई ‘बिल्लू‘ और सतरंगी पक्षी ‘विष्णु‘ सामने आते हैं। कथानक को विस्तार देने के उद्देश्य से मुख्य कथा के बीच-बीच में अनेक तरह के सहयोगी पात्रों का भी उपयोग किया गया है, जिनके सहयोग से अनेक प्रकार की घटनाएँ सम्पन्न होती हैं। ये तमाम प्रसंग यूँ तो आम आदमी के जीवन के रोजमर्रा के किस्सों जैसे ही हैं, पर चूँकि इनके साथ कहानी का मुख्य पात्र सतरंगी पक्षी जुड़ा हुआ है, इसलिए ये एक विशेष प्रभाव उत्पन्न करते चलते हैं।

लेखक ने उपन्यास के कथानक की शुरूआत गुल्लू के परिवार और उसकी माँ के सौतेले व्यवहार से की है। इस कारण पाठकों की संवेदनाएँ प्रारम्भ से ही कथानक से जुड़ जाती हैं। आगे की घटना में सतरंगी पक्षी द्वारा गुल्लू के छोटे भाई की साँप से रक्षा कराके उसकी सौतेली माँ के हृदय परिवर्तन की घटना को अंजाम दिया गया है। इस घटना का सुपरिणाम यह होता है कि पाठक के हृदय में ‘सतरंगी‘ के लिए एक प्रेम-भाव विकसित हो जाता है और वह आगे की कहानी को जानने के लिए बेहद उत्सुक हो उठता है। कथानक के आगे बढ़ने पर सतरंगी गाँव के साहूकार की इकलौती बेटी की जान बचा कर और उसके घर हुई चोरी का भण्डाफोड़ कराकर जिस कुशलता से चोरों को सबक सिखाता है, उससे वह एक ‘सुपर हीरो‘ के रूप में उभरता है और सबका चहेता बन जाता है। उसके बाद की घटनाओं में सतरंगी एक अन्य पक्षी का संरक्षक बन कर उसे जीवन प्रदान करता है और अपनी सूझ-बूझ से अनेक लोगों के बिगड़े काम बनाता है।

चूँकि सतरंगी इस कथानक की मुख्य जान है, इसलिए लेखक ने उसकी खूबियों को उद्घाटित करने के लिए काफी सजगता के साथ घटनाओं का सृजन किया है। ये समस्त घटनाएँ रोचक होने के साथ ही साथ मनोरंजकता से भी भरपूर हैं। कथानक की कई घटनाएँ तो एक सीक्वल के रूप में सामने आई हैं। लेकिन इसके बावजूद न तो वे कथा-रस के प्रवाह में बाधक बनाती हैं और न ही बोझिलता का कारक। और इन घटनाओं की सबसे बड़ी सफलता यह है कि लगभग हर घटना के बाद सतरंगी की एक ऐसी विशेषता उभर कर सामने आती है, जिससे पाठक चमत्कृत होकर दाँतों तले उंगली दबाने पर विवश हो जाता है।

यह एक सर्वमान्य धारणा है कि मनोरंजकता बालसाहित्य की पहली शर्त होनी चाहिए। लेकिन अक्सर देखने में यह आता है कि बाल साहित्यकार इस शर्त से इतने वशीभूत हो जाते हैं कि सामाजिक सरोकारों की बात उनके पल्ले ही नहीं पड़ती। यही कारण है कि बाल कथालोक में पाए जाने वाले ज्यादातर पात्र कल्पना के घोड़े पर कुछ इस तरह सवार दिखते हैं कि उनके पैरों के नीचे से यथार्थ का धरातल पूरी तरह से गायब हो जाता है। किन्तु प्रसन्नता का विषय है कि आलोच्य उपन्यास इस नजरिए से भी पुरवा के एक सुखद झोंके का एहसास कराता है। लेखक ने जिस ढ़ंग से कथानक को गढ़ा है और जिस क्रमबद्ध तरीके से उसे पात्रों के द्वारा अमलीजामा पहनाया है, उससे मनोरंजन और सामाजिक सरोकारों की जुगलबंदी बहुत ही प्रभावी रूप में पाठकों के समक्ष उपस्थित हुई है।

उपन्यास का मुख्य मानवीय पात्र गुल्लू एक बेहद गरीब किसान का लड़का है। उसका पिता और गाँव के तमाम अन्य किसान अपने खेतों में फसल बोने के लिए भी गाँव के जमींदार से कर्ज लेने के लिए मजबूर होते हैं। इस चित्रण को पढ़ते हुए सहसा पाठक के मस्तिष्क में सूखे के कारण आत्महत्या करते हुए किसानों की तस्वीरें कौंध उठती हैं और पाठक की संवेदना के सूत्र खुद-बखुद कहानी के पात्रों के साथ जुड़ते चले जाते हैं। फसलों पर टिड्डी का आक्रमण, किसानों की विवशता, भूकम्प की विनाशलीला और गाँव में अच्छे डॉक्टर के उपलब्ध न होने के कारण साहूकार की लड़की का दर्द से तड़पना, ये ऐसी घटनाएँ हैं, जो कहानी को हमारे समय से जोड़ती हैं। इसके साथ ही साथ उपन्यास में आए सहयोगी पात्रों के चारित्रिक गुणों एवँ अवगुणों के कारण कहानी में जो उतार-चढ़ाव आते हैं, वे भी कथानक की जीवंतता बनाए रखने में मददगार सिद्ध होते हैं।

उपरोक्त घटनाओं के बारे में पढ़/सुन कर कुछ लोगों के मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि यह बड़ों का उपन्यास है अथवा बच्चों का? किन्तु यह लेखक की सफलता ही है कि उसने बाल उपन्यास में भी समाज के गम्भीर प्रश्नों को पिरोने में सफलता अर्जित की है और बच्चों को मनोरंजन के साथ-साथ जीवन के वृहद स्वरूप के दर्शन करवाने में भी वह कामयाब रहा है।

लेकिन इस सबके साथ ही साथ न तो ‘बचपन' उपन्यास से दूर हुआ है और न ही बाल मनोविज्ञान का महीन सूत्र। राधा द्वारा सतरंगी को राखी बांधने, राधा द्वारा सहेलियों से सतरंगी को मिलवाने, सतरंगी द्वारा चोरों को मजा चखाने, साहूकार की लड़की श्वेता के जन्मदिन, गुल्लू के ननिहाल की घटनाएँ, दुकानदार मेवाराम की दुकान में बंदरों का धावा, सर्कस में सतरंगी के करतब, बच्चों की पिकनिक और वैज्ञानिकों तथा पत्रकारों से सतरंगी की भेंट के प्रसंग इस दृष्टि से विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

इसमें कोई दोराय नहीं कि कहानी का मुख्य नायक गुल्लू नामक लड़का न होकर सतरंगी है। ‘सतरंगी’ कहने को तो एक पक्षी है, लेकिन उसके पास इंसानी बातों और भावों को समझने और मानव की ही बोली में अपनी बात कहने की चमत्कारिक शक्ति है। लेकिन इसके साथ ही साथ कठिन परिस्थितियों में समझदारी भरा निर्णय लेने की अद्भुत शक्ति भी उसके भीतर मौजूद है, जोकि एक ‘सुपर हीरो‘ की प्रमुख विशेषता हुआ करती है। यही कारण है कि सतरंगी के आते ही न सिर्फ गुल्लू के घर का माहौल खुशगवार हो जाता है, वरन पूरे गाँव में खुशियों की बारिश सी होने लगती है।

कहावत है कि फूलों की खुश्बू और सूरज की धूप को कोई बाँध कर नहीं रख सकता। ठीक इसी तरह सतरंगी के चर्चे पहले सर्कस, फिर अन्तर्राष्ट्रीय पक्षी वैज्ञानिकों के सम्मेलन तक पहुँचते हैं और उसके बाद पूरे विश्व में उसके नाम की धूम मच जाती है। जाहिर सी बात है कि लोग सिर्फ इस अद्भुत पक्षी को देखने में ही रूचि नहीं लेते, उसका अपहरण करके अरबों-खरबों के वारे-नारे करने की जुगत में भी लग जाते हैं। और सतरंगी अपनी लाख समझदारी के बावजूद स्वयँ को एक स्मग्लर के हत्थे चढ़ने से बचा नहीं पाता।

लेखक ने उपन्यास को प्रभावी बनाने के लिए भाषा की रवानी की ओर विशेष ध्यान दिया है। उसने उपन्यास में यथासम्भव सरल एवँ आम बोलचाल में प्रयुक्त होने वाली शब्दावली का प्रयोग किया है, जिसके कारण वर्णनात्मक शैली में लिखे होने के बावजूद उपन्यास में रोचकता बनी रहती है। हालाँकि लेखक ने विवरण को प्रभावी बनाने के लिए यत्र-तत्र तत्सम (मातृत्व, कटाक्ष, यद्यपि, वृत्ताँत, कृपण आदि) और उर्दू (मुफ्त, बर्ताव, शुक्रिया, शर्मिन्दा आदि) की शब्दावली का भी प्रयोग किया है, जिसे बाल पाठकों को समझने में थोड़ी दिक्कत हो सकती है। लेकिन चूँकि साहित्य का एक अहम उद्देश्य पाठकों के भाषाई ज्ञान का संवर्धन भी होता है, इसलिए इस तरह के बिन्दु दाल में नमक के बराबर होने के कारण आलोचना के कारक नहीं बनाए जाने चाहिए।

लेखक ने आलोच्य उपन्यास में छोटे-छोटे वाक्यों का प्रयोग करके एक विशिष्ट प्रभाव उत्पन्न किया है। बाल साहित्य में छोटे वाक्यों के प्रयोग को ‘नंदन' के पूर्व सम्पादक जय प्रकाश भारती ने बढ़ावा दिया था। किन्तु यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि उन्हें यह सूत्र लखनऊ स्थित राज्य संसाधन केन्द्र की ‘सरल लेखन प्रशिक्षण कार्यशाला' से प्राप्त हुआ था। इस प्रकार एक कार्यशाला से निकला प्रभावी लेखन का सूत्र आज इस उपन्यास के द्वारा पूरे हिन्दी समाज में फैल रहा है, जोकि निश्चय ही प्रसन्नता का विषय है।

अपने जादुई पात्र, मानवीय भावनाओं के प्रभावोत्पादक चित्रण और सरल-सहज भाषा-शैली के कारण सात खण्डों में प्रस्तावित इस वृहद उपन्यास का यह पहला खण्ड पठनीयता की कसौटी पर खरा उतरता है। लेखक ने एक ओर जहाँ सौतेली माँ के जुल्म, सूदखोर साहूकार, शातिर चोर और लालची बनिया के द्वारा कथानक को यथार्थ का धरातल प्रदान किया है, वहीं सतरंगी की विस्मित करने वाली विशेषताओं के द्वारा रोचकता का ऐसा ताना-बाना बुना है, जो पाठक को अंत तक सिर्फ बाँधे ही नहीं रखता, अब ‘आगे क्या होगा’, सोचने के लिए भी विवश करता रहता है।

लेकिन इसके साथ ही साथ इस उपन्यास की कुछ अपनी सीमाएँ भी हैं। जैसे कि सतरंगी पक्षी कौन है, कैसे पैदा हुआ और कहाँ से उसमें इंसानी बातों को बोलने और समझने की शक्ति आई? लेखक ने उपन्यास के प्रथम खण्ड में इसका कहीं जिक्र नहीं किया है। हालाँकि लेखक ने सावधानी बरतते हुए पक्षी वैज्ञानिकों के सम्मेलन के द्वारा यह संभावना व्यक्त की है कि यह पक्षी दो भिन्न प्रजातियों के मिलन से उत्पन्न हो सकता है। लेकिन वैज्ञानिक विवेचन यह कहता है कि यह परिकल्पना भी सतरंगी के वैशिष्ट्य को तर्कसंगत सिद्ध करने में पूरी तरह से सक्षम नहीं है। क्योंकि यह एक सर्वज्ञात तथ्य है दो नमकीन पदार्थों के मिलन से बनने वाला तीसरा पदार्थ भी नमकीन ही होगा, न कि मीठा।

यदि लेखक के इस सम्भावित तर्क पर विचार किया जाए और यह मान भी लिया जाए कि सतरंगी पक्षी दो भिन्न प्रजातियों के मिलन से उत्पन्न हुआ है, तो वर्तमान वैज्ञानिक समझ यह कहती है कि इस विधि के द्वारा जन्मे पक्षी के भौतिक आकार-प्रकार और रंगों में तो आशातीत परिवर्तन हो सकता है, लेकिन इससे पक्षी के भीतर मनुष्यों की भाषा समझने/बोलने और कठिन परिस्थितियों में सटीक निर्णय लेने की क्षमता किस प्रकार उत्पन्न हो सकती है, यह समझ से परे है।

यह एक ज्ञात तथ्य है कि धरती पर पाए जाने वाले समस्त जीवों में विचारशीलता सिर्फ मनुष्यों में ही पाई जाती है। मनुष्यों में यह गुण उनके मस्तिष्क की बेहद जटिल/विशिष्ट संरचना के कारण ही सम्भव हो सका है, जिसमें मस्तिष्क में पाए जाने वाले तमाम तरह के हारमोनों की भी अहम भूमिका होती है। हम यह भी जानते हैं कि मनुष्य का मस्तिष्क असंख्य कोशिकाओं के सटीक युग्म के कारण ही अपने वर्तमान स्वरूप में पहुँच सका है। और जैसे ही इस युग्म में जरा सी भी गड़बड़ी होती है, उसकी समस्त विचारशीलता और समझदारी धराशायी हो जाती है। यही कारण है कि इस गड़बड़ी का शिकार व्यक्ति ‘विक्षिप्त‘ की उपाधि से विभूषित कर दिया जाता है। ऐसे में यह प्रश्न बेहद गम्भीर हो जाता है कि मनुष्य ने वैचारिक समझ की जो विशेषता लाखों-करोड़ों वर्षों के क्रमिक विकास के बाद अपने लगभग डेढ़ किलो के मस्तिष्क के द्वारा अर्जित की है, वह दो अलग-अलग प्रजातियों के मिलन से जन्में किसी क्रासबीड़ पक्षी के नन्हें से दिमाग में कैसे समा सकती हैं?

हो सकता है कि उन लोगों को यह सवाल उतना विचलित न करे, जो परी कथाओं की जादुई दुनिया में रहने के आदी हों या फिर जो लोग इक्कीसवीं सदी में रहने के बावजूद 16वीं सदी की विचारधारा के पोषक हों, किन्तु आज के बच्चे वैज्ञानिक सोच के संवाहक हैं। वे क्या, क्यों, कैसे युग के प्राणी हैं और अपनी हर जिज्ञासा का समाधान चाहते हैं। ऐसे में यह देखना बेहद दिलचस्प होगा कि लेखक उपन्यास की आगामी कड़ियों में इस अद्भुत रहस्य को उसकी तार्किक परिणति तक कैसे पहुँचाता है।

लेखक ने ‘अपनी बात' के अन्तर्गत आज के बच्चों की विशेषता बताते हुए लिखा हैः ‘...वैज्ञानिक सोच के साथ उनकी पढ़ने और कल्पना की क्षमता काफी बढ़ गयी है।' किन्तु इस स्वीकारोक्ति के बावजूद उपन्यास में कुछ ऐसी घटनाएँ सामने आई हैं, जो लेखक की वैज्ञानिक सोच पर सवाल खड़े करती हैं। उपन्यास में अनेक स्थानों पर ‘निमृत' नामक आयुर्वेदिक औषधि का जिक्र किया गया है। निमृत के बारे में लेखक ने अपने एक पात्र से कहलाया है- ‘पेट दर्द में जब किसी दवा से आराम न आए, तो इसके दो बीज खा लेने से रोगी को चैन आ जाता है।'(पृष्ठ-17)

आधुनिक विज्ञान ही नहीं सामान्य अध्ययन भी हमें यह बताता है कि पेट में दर्द अपच, गैस, अल्सर, चोट, कैंसर आदि किसी भी वजह से हो सकता है। ऐसे में एक दवा सभी मर्जों में कैसे फायदा कर सकती है? स्पष्ट है कि इस तरह के चित्रण किसी ‘परी कथा‘ में तो चल सकते हैं, पर सामाजिक पृष्ठभूमि वाले उपन्यासों में नहीं। इसलिए लेखक को ऐसे प्रसंगों में बहुत सोच-समझ कर कलम चलाने की आवश्यकता होती है।

उपन्यास में सतरंगी पक्षी और गुल्लू की भेंट से पहले लेखक ने एक स्वप्न का वर्णन किया है, जिसमें गुल्लू की सतरंगी से मुलाकात होती है। इस घटना का सृजन लेखक ने सम्भवतः इसलिए किया है, जिससे यह बताया जा सके कि सतरंगी भी गुल्लू की तरह अपनी माँ का सताया हुआ है। किन्तु भविष्य में घटने वाली घटना को स्वप्न में दिखाकर लेखक ने अनजाने में ही उस धारणा को पुख्ता करने का काम किया है, जिसमें कहा जाता है कि सुबह के समय दिखने वाले स्वप्न प्रायः सच होते हैं। यह धारणा अंजाने में ही एक प्रकार के अंधविश्वास का पोषण करती है, जो काफी खतरनाक है।

यह कोई कहने की बात नहीं है कि आज का लगभग प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में तरह-तरह के झंझावातों से जूझता रहता है। और प्रायः ये झंझावात अपनी प्रखरता और निरंतरता के कारण मनुष्य को इस तरह से तोड़ देते हैं कि वे उसके अवचेतन मस्तिष्क में बस जाने के बाद किसी दुखद स्वप्न के रूप में उनके सामने अवतरित होते हैं। ऐसे में मानसिक रूप से टूटा और भयभीत व्यक्ति स्वप्न में देखे गये भावी सच से बचने के लिए पाखंडी बाबाओं की शरण में जा पहुँचता है और नतीजतन वह बुरी तरह से ठगा जाता है।

इसमें कोई दोराय नहीं कि साहित्य सामाजिकों की विचारधारा को निर्मित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता आया है। यही कारण है कि हीरा के चाटने से मृत्यु हो जाने, स्वाति नक्षत्र की पहली बूँद सीप में गिरकर मोती बनने, चंदन के वृक्ष में साँपों के लिपटने और मंत्रों द्वारा साँप के विष का उपचार करने जैसी बातें पूर्णतः असत्य होने के बावजूद जन-सामान्य में फैली हुई हैं। दुःखद यह है कि जनसामान्य में फैली इन मिथ्या धारणाओं को पुख्ता बनाने का काम जाने-अनजाने में हमारे साहित्यकारों ने ही किया है। इसीलिए यह कहा जाता है कि बाल साहित्य लेखन बेहद सर्तकता से किया जाने वाला कार्य है। इसमें जरा सी भी असावधानी न सिर्फ नन्हें पाठकों के मन में गलत धारणा को बैठा सकती है, वरन साहित्य की प्रासंगिकता पर भी सवाल उठा सकती है।

यदि उपरोक्त सूक्ष्म तकनीकी बिन्दुओं को नजर अंदाज कर दिया जाए, तो यह कहा जा सकता है कि पठनीयता की दृष्टि से ‘गुल्लू और एक सतरंगी' का पहला खण्ड एक रोचक एवँ सफल बाल उपन्यास है। लेखक ने इस उपन्यास के द्वारा जो प्रयोग किया है, वह सम्पूर्ण बाल साहित्य जगत के लिए उत्सुकता का कारक बना हुआ है। यदि यह प्रयोग सफल होता है, तो निश्चय ही इससे बाल उपन्यासों को मुख्य धारा में अवसर प्राप्त होगा। और यदि यह प्रयोग सफल नहीं भी होता है, तो भी इसी बहाने साहित्य जगत में बाल साहित्य और बाल उपन्यास को तो चर्चा में आने का मौका मिलेगा ही।

पुस्‍तक: गुल्‍लू और एक सतरंगी (खण्‍ड एक)
लेखक: श्रीनिवास वत्‍स
प्रकाशक: किताबघर प्रकाशन, 4855-56/24, दरियागंज, नई दिल्‍ली-02
मूल्‍य: 115 रू0 मात्र

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COMMENTS

BLOGGER: 8
  1. बहुत ही संतुलित और सार्थक समीक्षा लिखी है जाकिर जी आपने। बधाई और शुभकामनाऍं।

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  2. bahut upyogi jankari bal sahity ke sambandh me aapne nape tule shabdon me prastut ki hai .sat khandon me prakashit bal upanyas ki sameeksha bhi sarahniy hai .aabhar

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  3. स्तरीय, संतुलित और सारगर्भित समीक्षा.

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  4. कथावस्तु बहुत ही रोचक लग रही है।

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  5. समीक्षा निःसन्देह मेहनत से लिखि गई है। वैज्ञानिक आपत्तियॉ भी उचित हैं। किंही भी दो जातियों के मिलने से उपन्यास में वर्णित सतरंगी पक्षी पैदा नहीं हो सकता और नहीं सुपरहिरों के कारनामें दिखा सकता है । समझ नहीं आता जाकिर अली इसे परी कथा क्यों नहीं स्वीकार रहे हैं।

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    उत्तर
    1. विष्‍णु प्रसाद जी, ये परीकथा नहीं है। लेखक ने उपन्‍यास के पूर्व में 'अपनी बात' में इसे सामाजिक उपन्‍यास बताया है। इसके साथ ही साथ इसका सम्‍पूर्ण कथानक सामाजिक उपन्‍यासों जैसा ही है, जिसमें वर्तमान समाज की विद्रूपताआं पर विस्‍तार से प्रकाश डाला गया है।

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  6. परिचय कराने के लिये आप को धन्यवाद...

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  7. अत्यंत सारगर्भित और तत्वभिनिवेशी दृष्टि से सम्पन्न है आपकी यह समीक्षा।
    भाई, मेरी भी बधाई स्वीकार करें।

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आपके अल्‍फ़ाज़ देंगे हर क़दम पर हौसला।
ज़र्रानवाज़ी के लिए शुक्रिया! जी शुक्रिया।।

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गुल्‍लू और एक सतरंगी: सात खण्डों में प्रकाशित होने वाला हिन्दी का पहला बाल उपन्यास।
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