बाल साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर 'बाल वाटिका' के सम्पादक डॉ. भैरूलाल गर्ग के साथ एक बेबाक इंटरव्यु।
('जनसंदेश टाइम्स' में 15 जनवरी, 2012 को प्रकाशित)
डॉ0 भैरूंलाल गर्ग मूल रूप से ‘बाल वाटिका’ के सम्पादक के रूप में जाने जाते हैं। मार्च 1196 से निरंतर प्रकाशित होने वाली यह एक अव्यवसायिक बाल पत्रिका है, जिसके कलेवर में जून 2011 से आमूलचूल परिवर्तन आया है। बच्चों के लिए निकलने वाली यह पत्रिका अब किशोरोपयोगी सामग्री के साथ प्रकाशित हो रही है। इसके साथ ही पत्रिका के द्वारा समालोत्मक/आलोचनात्मक लेखन को भी बढ़ावा दिया जा रहा है। ‘बाल वाटिका’ में आए इस परिवर्तन ने जहाँ पत्रिका को एकाएक बाल साहित्यकारों के बीच चर्चा में ला दिया है, वहीं इसने बहुत से सवालों को भी जन्म दिया है। इन्हीं सवालों और बाल साहित्य के विभिन्न मुद्दों पर पत्रिका के सम्पादक डॉ0 भैरूंलाल गर्ग से विस्तार से चर्चा हुई। प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश-
प्रश्न: बच्चों की चर्चित पत्रिकाओं बालहंस, नंदन, चंपक, सुमन सौरभ, चकमक, बाल भारती, नन्हे सम्राट, चंदामामा के रहते आपको ‘बाल वाटिका’ की आवश्यकता क्यों महसूस हुई थी?
उत्तर: आपने जितनी भी पत्रिकाओं के नाम गिनाए हैं, ये सारी की सारी व्यवसायिक पत्रिकाएँ हैं। इन्हें कोई न कोई व्यवसायिक घराना निकाल रहा है। ये पत्रिकाएँ इसलिए नहीं निकल रही हैं कि इन्हें बच्चों से कुछ लेना-देना है, ये इसलिए निकल रही हैं, क्योंकि ये बच्चों की पत्रिका के रूप में व्यवसायिक सम्भावनाएँ देख रही हैं। इनकी मुख्य दृष्टि बाजार के उत्पादों पर रहती है। बड़ी-बड़ी मल्टी नेशनल कम्पनियों के विज्ञापन इनके लक्ष्य होते हैं। चूँकि इन पत्रिकाओं को उन कम्पनियों से विज्ञापन लेने होते हैं, इसलिए वे उनके निर्देशानुसार संचालित होती हैं। यही कारण है कि ये पत्रिकाएँ सिर्फ शहरी पाठकों को लक्ष्य करके निकाली जाती हैं। इससे ग्रामीण और कस्बाई बच्चों की उपेक्षा होती है। इस उपेक्षा को ध्यान में रखते हुए तथा बाल साहित्य के समग्र रूप को प्रोत्साहन देने के लिए ‘बालवाटिका’ के प्रकाशन की योजना बनी थी।
प्रश्न: सुनने में आया है पहले आप किसी और नाम से पत्रिका निकालने की योजना बनी थी?
उत्तर: जी हाँ, पहले पहल मैंने एक मित्र के साथ ‘बाल मंजरी’ नाम से रजिस्ट्रेशन कराया था। जब पत्रिका का टाइटल मिल गया, तो मित्र महोदय से इस बारे में विचार-विमर्श हुआ। तब वे बताने लगे कि हम लोग पत्रिका का कार्यालय यहाँ पर खोलेंगे, उसमें इस आदमी को संपादक बनाएँगे, इन लोगों को विज्ञापन व्यवस्था का काम सौंपेंगे आदि-आदि। मित्र महोदय की बातें सुनकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। मैं उनकी तमाम योजनाओं के हिसाब से फिट नहीं बैठ रहा था, इसलिए उनसे अलग हो गया। बाद में स्वतंत्र रूप से ‘बाल वाटिका की योजना बनी और यह आप सबके सामने है।
प्रश्न: पिछले 15 वर्षों में डॉ0 भैरूलाल गर्ग की छवि एक कुशल सम्पादक के रूप में बनी है, जबकि आप स्वयं रचनाकार हैं। ऐसा क्यों?
उत्तर: आपने सही कहा, वैसे तो मेरे 10 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं। कविताओं के भी कुछ संग्रह आए हैं। लेकिन प्रचार-प्रसार के अभाव में उनपर कभी कोई चर्चा नहीं हुई। मैं चाहता, तो पत्रिका के माध्यम से उनपर चर्चा करवा सकता था, पर यह मुझे पसंद नहीं। पत्रिका निकालने का मेरा उद्देश्य बाल साहित्य को बढ़ावा देना था, अपने साहित्य को बढ़ावा देना नहीं, इसीलिए मैं एक सम्पादक के रूप में जाना जाता हूँ।
प्रश्न: क्या 15 वर्षों के सतत प्रकाशन से उस लक्ष्य को हासिल करने में सफलता मिली?
उत्तर: नहीं। क्योंकि अक्सर यह विचार मन में घुमड़ते रहते थे कि क्या बच्चों को रास्ता खोजो और रंग भरो की जरूरत रह गयी है? स्पष्ट रूप से नहीं। क्योंकि आज का बच्चा जल्दी प्रौढ़ हो रहा है, उसके सामने आज ज्यादा गम्भीर चुनौतियाँ हैं। इसलिए सोच-विचार के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि पत्रिका को किशोर पाठकों के रूप में परिवर्तित किया जाए, साथ ही इसमें बाल साहित्य की अन्य विधाओं पर भी सामग्री दी जाए, समीक्षात्मक और आलोचनात्मक सामग्री को बढ़ावा दिया जाए। और प्रसन्नता का विषय है कि इसका अच्छा परिणाम सामने आ रहा है। पत्रिका के बदले हुए स्वरूप को लोगों ने पसंद किया है। अब प्रौढ़ साहित्य लिखने वाले रचनाकार भी पत्रिका से जुड़ रहे हैं।
प्रश्न: आपकी दृष्टि में आज कैसे बाल साहित्य की आवश्यकता है?
उत्तर: यूँ तो बाल साहित्य को मनोरंजन का साधन माना गया है। पिछले 100 सालों से लगातार राजा-रानी, हाथी-घोड़ा की कहानियाँ सुनाई जा रही हैं। आज भी ज्यादातर ऐसी ही रचनाएँ रची जा रही हैं। जबकि आज का समय काफी बदल गया है। आज व्यक्ति आत्मकेन्द्रित हो गया है, भौतिकता ने समाज से संवदेनाओं का सफाया कर दिया है। आज के माँ-बाप भी बच्चों के कैरेक्टर की तुलना में कैरियर पर ज्यादा ध्यान देते हैं। यही कारण है कि बच्चों की संवेदनाएँ मर रही हैं, वे समाज से कट रहे हैं। इसी का दुष्परिणाम है कि समाज में स्वार्थपरता बढ़ रही है, वृद्धावस्था आश्रमों में भीढ़ बढ रही है। ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि बच्चों को चिंतनपरक साहित्य परोसा जाए। साहित्य ऐसा हो, जो बच्चों के भीतर संवेदनाओं को जगाए, साथ ही उसके आसपास के वातावरण को, समाज को समझने में मदद करे और उसके भीतर समाज की विसंगतियों से जूझने की शक्ति पैदा करे। तभी बच्चे का समग्र विकास संभव है, तभी स्वस्थ समाज का निर्माण सम्भव है।
प्रश्न: कुछ लोग बाल साहित्य में मनोरंजन को प्रमुखता देते हैं, कुछ लोग शिक्षा को। आपकी नजर में बाल सहित्य कैसा होना चाहिए?
उत्तर: बच्चे स्वभाव से चंचल होते हैं। वे एक जगह शान्त होकर नहीं बैठते। ऐसे में साहित्य के सामने यह चुनौती तो रहती ही है कि वह बच्चों को किस प्रकार एक जगह रोक कर रख सके। जाहिर सी बात है कि इसके लिए रोचकता या मनोरंजकता बाल साहित्य की पहली शर्त है। लेकिन साहित्य में यदि खाली मनोरंजन होगा, तो फिर उसकी उपयोगिता क्या रह जाएगी। इसी प्रकार यदि साहित्य में खाली शिक्षा या संदेश होगा, तो वह उबाऊ हो जाएगा। इसलिए साहित्य में दोनों का सामंजस्य होना चाहिए। अब यह संदेश साहित्य में किस तरह से दिया जाए, यह साहित्यकार के विवेक पर निर्भर करता है। कुछ लोग इसे अपनी कहानियों में इस तरह भिड़ाते हैं ‘इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है कि...’। स्पष्ट सी बात है कि ऐसे साहित्य को बच्चे भी रिजेक्ट कर देते हैं। लेकिन कुछ लोग संदेश को अपनी रचना में इस तरह उतार देते हैं, जैसे पानी में घुली हुई जीवन दायिनी ऑक्सीजन। पानी को देखो, तो वह दिखाई नहीं पड़ती। जब साहित्यकार में इतनी कुशलता आ जाती है, तभी उसकी कलम से ‘ईदगाह’ और ‘पंच परमेश्वर’ जैसी रचनाएँ निकलती हैं।
प्रश्न: कहा जा रहा है कि ये उत्तर आधुनिकता का दौर है, जिसमें विचारधाराएँ मर रही हैं, साहित्य समाप्त हो रहा है। ऐसे में बाल साहित्य का क्या भविष्य है?
उत्तर: प्रौढ़ साहित्य में इस तरह के शिगूफे अक्सर छोड़े जाते रहे हैं। कहाँ साहित्य मर रहा है? मुझे तो ऐसा कहीं नहीं दिखाई देता। आज पहले की तुलना में ज्यादा पत्रिकाएँ निकल रही हैं। हाँ, ये सच है कि साहित्य का ट्रेंड बदल गया है, लोगों की रूचि में बदलाव आया है। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि बच्चे अब किताबें पसंद नहीं करते। ऐसे लोगों की बातें सुनकर हंसी आती है, क्योंकि वे लोग या तो बच्चों को नहीं जानते, या फिर किताबों को नहीं पढ़ते। आप बच्चों को किताबें दे कर देखिए। वे आज भी पढ़ते हैं। ये अलग बात है कि अभिभावक कोर्स में पिछड़ जाने के डर से उन्हें कविता-कहानी की किताबें दिलाने से डरते हैं। अगर दिलाते भी हैं, तो सिर्फ आईक्यू बढ़ाने वाली किताबें। इसका मतलब यह नहीं है कि बच्चे साहित्य को पसंद नहीं करते। हम सब जानते हैं कि बच्चों के ऊपर आज माता-पिता की की अपेक्षाओं का ज्यादा बोझ है। इस बोझ के कारण वे चिड़चिड़े हो रहे हैं, क्रोधी हो रहे हैं। ऐसे में बच्चों के लिए साहित्य की आवश्यकता पहले से अधिक बढ़ गयी है। अगर बच्चों के भीतर संवेदनाओं को बचाए रखना है, उनमें इन्सानियत के भाव जगाए रखना है, तो उन्हें साहित्य से जोड़कर रखना ही होगा।
प्रश्न: आजकल पत्र-पत्रिकाओं में जो साहित्य देखने में आता है, उसमें मौलिकता और नवीनता के दर्शन बहुत कम होते हैं। इसके पीछे क्या वजह है?
उत्तर: इसके मुख्य रूप से दो कारण हैं। पहला यह कि बाल साहित्य में गुरू-शिष्य जैसी कोई परम्परा विकसित नहीं हो पाई है। इसलिए ज्यादातर लोग पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाली रचनाओं को देखकर ही उसे असली साहित्य समझ लेते हैं और उसी के जैसी रचनाएँ लिखने लगते हैं। दूसरी वजह यह है कि बाल साहित्य में आलोचनात्मक अथवा समालोचनात्मक लेखन न के बराबर हुआ है। इसलिए बाल सहित्य में जो स्तरीय लेखन हुआ भी है, उसकी चर्चा नहीं हो पाती है, उसके बारे में सभी लोगों को जानकारी नहीं हो पाती है। इस तरह की कमी को बाल साहित्य की स्तरीय कृतियों पर चर्चा करा के दूर किया जा सकता है। पर दुर्भाग्यवश बाल साहित्य में ऐसी भी कोई परम्परा नहीं है। इसलिए भी अच्छी कृतियाँ आम पाठकों के सामने आने से रह जाती हैं और नवोदित लेखक बहुतायात में लिखी जाने वाली रचनाओं को ही असली साहित्य समझ कर उसी के जैसा लेखन करने लगते हैं। इससे एक ओर लेखक की प्रतिभा पूर्ण रूप से विकसित होने से रह जाती है, दूसरी ओर बाल साहित्य भी उस लेखक का सर्वोत्तम पाने से रह जाता है।
प्रश्न: हिन्दी बाल साहित्य में आलोचनात्मक लेखन का विकास न हो पाने के क्या कारण हैं?
उत्तर: इसके कई कारण हैं। पहला कारण तो यही है कि लोगों में इसकी समझ ही नहीं है। इस वजह से जो आलोचनात्मक लेखन हुआ भी है, उसमें या तो सिर्फ प्रशंसा है, या फिर सिर्फ आलोचना। दूसरा कारण यह है कि इस तरह के लेखन के प्रकाशन के लिए माध्यम नहीं हैं। अगर लेखक लिखे भी, तो वह प्रकाशित कहाँ हो? बिना प्रकाशन के लेखन व्यर्थ हो जाता है। तीसरी समस्या यह भी है कि अधिकतर लेखक आत्ममुग्धता से ग्रस्त हैं। वे अपने लेखन को सर्वश्रेष्ठ समझते हैं। वे स्वयं नहीं चाहते कि उनकी कृतियों पर आलोचनात्मक लेखन हो। और अगर कोई गल्ती से किसी व्यक्ति पर लिख भी दे, तो वे उससे दुश्मनी गाँठ लेते हैं, उसे अपना दुश्मन समझने लगते हैं।
प्रश्न: बाल साहित्य पर यह भी आरोप लगते रहे हैं कि उसमें जीवंतता का अभाव है, वह पाठकों से रागात्मक सम्बंध नहीं बना पाता है। क्या यह सच है? अगर हाँ, तो इसकी क्या वजह है?
उत्तर: देखिए, हम सब यह तो जानते ही हैं कि पिछले दो दशकों से समाज में जबरदस्त बदलाव आया है, समाज से नैतिकता, मानवता, संवेदनात्मकता, ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता जैसे गुणों का ह्रास हुआ है। अब चूँकि साहित्यकार भी समाज का अंग है, तो उसमें भी यह कमी परिलक्षित होती है। इसी वजह से साहित्यकारों में समर्पण की भावना में कमी हुई है, वे लेखन के प्रति उतने ईमानदार नहीं रहे। जाहिर सी बात है कि इस सबका उनके लेखन पर असर तो पड़ेगा ही। लेकिन यह सिर्फ बाल साहित्यकारों की समस्या नहीं है, यह समस्या शेष साहित्य में भी विराजमान है। इसीलिए अब आम जनता साहित्य से उतना जुड़ाव नहीं महसूस करती। यह सचमुच गम्भीर समस्या है। लेकिन इसका हल भी साहित्यकारों के पास है। जिस दिन वे जैसा लिखते हैं, वैसा जीवन जीने लगेंगे, उनके साहित्य में फिर से वह जीवंतता आ जाएगी और वे फिर से पाठकों के अधिक निकट पहुँच सकेंगे।
प्रश्न: बाल साहित्य के उन्नयन के लिए क्या किया जाना चाहिए?
उत्तर: असली समस्या यह है कि बच्चों की किसी को चिन्ता ही नहीं है। न अभिभावक बच्चों की आवश्यकताएँ समझ रहे हैं, न सरकार इस ओर ध्यान दे रही है। आज देश में बच्चों का प्रतिशत कुल आबादी का 25 प्रतिशत है। लेकिन सरकारी स्तर पर देखिए तो केन्द्र से सिर्फ एक पत्रिका निकल रही है बच्चों के लिए। मध्य प्रदेश में अवश्य इस दिशा में अच्छा काम हो रहा है। जबकि सरकार ने ढ़ेर सारी अकादमियाँ बना रखी हैं। हर प्रदेश में ऐसी अकादमियाँ हैं। इन अकादमियों से बड़ों की पत्रिकाएँ तो निकल रही हैं, पर बच्चों के साहित्य पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। जबकि ये बच्चे ही कल के भविष्य हैं, इनके ही हाथों में कल राष्ट्र की बागडोर होगी। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि हर अकादमी से बच्चों के लिए एक बाल पत्रिका का प्रकाशन हो, जिनमें बच्चों के लिए साहित्य का प्रकाशन हो और उनकी आवश्यकताओं और समस्याओं पर चर्चा की जाए। इसके अलावा सभी स्कूलों की लाइब्रेरी अनिवार्य की जाए और बच्चों तक किताबों की पहुँच सुनिश्चित की जाए। इससे बाल साहित्य को बढ़ावा मिलेगा और ज्यादा से ज्यादा लोग बाल साहित्य से जुड़ सकेंगे।
बड़ी खरी खरी बात कर दी डाक्टर साब ने. अच्छा लगा पढ़ कर.
जवाब देंहटाएंसाक्षात्कार के बहाने बालसाहित्य के वर्तमान परिदृश्य पर सार्थक चर्चा हुई है. डॉ. गर्ग ने कई ज्वलंत मुद्दों को छुआ है. बालसाहित्य के सूचना प्रधान होने से उसमें संवेदन तत्व घटा है. डॉ. गर्ग की चिंता वाजिब है.
जवाब देंहटाएंसार्थक साक्षात्कार प्रस्तुत किया है जाकिर जी आपने. बाल साहित्य को आजकल कोई सीरिअस नहीं ले रहा ऐसे में आपकी सोच और पकड़ कुछ जरूर नया रंग लाएगी शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंसामयिक और गहन आलेख..
जवाब देंहटाएंसार्थक साक्षात्कार .......
जवाब देंहटाएंअधिकतर साहित्यकार आत्ममुग्धता से ग्रस्त हैं .
जवाब देंहटाएं''पर बच्चों के साहित्य पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। जबकि ये बच्चे ही कल के भविष्य हैं, इनके ही हाथों में कल राष्ट्र की बागडोर होगी। ''
जवाब देंहटाएंसही कहाआपनें
bahut hi sundar blog aur sarthak prvishti .....abhar jakir sahab.
जवाब देंहटाएंउत्तर: प्रौढ़ साहित्य में इस तरह के शिगूफे अक्सर छोड़े जाते रहे हैं। कहाँ साहित्य मर रहा है? मुझे तो ऐसा कहीं नहीं दिखाई देता। आज पहले की तुलना में ज्यादा पत्रिकाएँ निकल रही हैं। हाँ, ये सच है कि साहित्य का ट्रेंड बदल गया है, लोगों की रूचि में बदलाव आया है। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि बच्चे अब किताबें पसंद नहीं करते। ऐसे लोगों की बातें सुनकर हंसी आती है, क्योंकि वे लोग या तो बच्चों को नहीं जानते, या फिर किताबों को नहीं पढ़ते। आप बच्चों को किताबें दे कर देखिए। वे आज भी पढ़ते हैं। ये अलग बात है कि अभिभावक कोर्स में पिछड़ जाने के डर से उन्हें कविता-कहानी की किताबें दिलाने से डरते हैं। अगर दिलाते भी हैं, तो सिर्फ आईक्यू बढ़ाने वाली किताबें। इसका मतलब यह नहीं है कि बच्चे साहित्य को पसंद नहीं करते। हम सब जानते हैं कि बच्चों के ऊपर आज माता-पिता की की अपेक्षाओं का ज्यादा बोझ है। इस बोझ के कारण वे चिड़चिड़े हो रहे हैं, क्रोधी हो रहे हैं। ऐसे में बच्चों के लिए साहित्य की आवश्यकता पहले से अधिक बढ़ गयी है। अगर बच्चों के भीतर संवेदनाओं को बचाए रखना है, उनमें इन्सानियत के भाव जगाए रखना है, तो उन्हें साहित्य से जोड़कर रखना ही होगा।
जवाब देंहटाएंबाल वाटिका का प्रकाशन वर्ष ठीक कर लें और 'आलोचनात्मक 'शुद्ध रूप लिख लें .बहुत सटीक विस्तृत सार्थक समीक्षा प्रस्तुत की है आपने .शुक्रिया .
गहन सटीक आलेख..
जवाब देंहटाएंअफ़सोस,कि जो हमारी भावी पीढ़ी है,उसके लिए एक ढंग की पत्रिका भी नहीं है हमारे यहां!
जवाब देंहटाएंसुखद आश्चर्य हुआ की ऐसी सोच वाले लोग हैं आज कल। आज जो भी बाल साहित्य लिखा जा रहा है वह दो दृष्टियों से लिखा जा रहा है। लेखक या तो विज्ञापनों के लिए लिख रहा है या फिर माता पिता के लिए। विज्ञापनों के लिए लेखन उसी का होता है जो बिकता है - हिंसा, अश्लीलता । माता पिता खुश होते हैं अगर किताब जीके, अङ्ग्रेज़ी या गणित की जानकारी बढ़ाए। हम छोटे थे तो पिता ने चेखोव की लाखी, टोल्स्तोय की हिरनौटा, प्र्म्चंद की ईदगाह, पाँच परमेश्वर हरमन मेल्विल की मोबि डिक, रॉबर्ट स्टीवेंसन के उपन्यास आदि दिये थे। टीवी नहीं था तो हम इन्हीं को पढ़ते रहते थे। आज भी मैं बच्चों को पढ़ता हूँ तो साथ में अभिभावकों को भी पढ़ा देता हूँ। जब उन्हें यह कहानियाँ पढ़ायीं तो वे भी कायल हुये।
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