हास्‍य-व्‍यंग्‍य : फिल्‍मों की देन!

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('जनसंदेश टाइम्स', 06 नवम्‍बर, 2011 ) हिन्‍दुस्‍तानी परिप्रेक्ष्‍य में ‘फिल्‍म’ शब्‍द अपूर्ण माना जाता है। क्‍योंकि यहाँ पर ‘...

('जनसंदेश टाइम्स', 06 नवम्‍बर, 2011)
हिन्‍दुस्‍तानी परिप्रेक्ष्‍य में ‘फिल्‍म’ शब्‍द अपूर्ण माना जाता है। क्‍योंकि यहाँ पर ‘फीचर’ शब्‍द का जुड़ाव उसी प्रकार जरूरी है, जिस प्रकार राजनीति में अपराधियों का। इसीलिए चलचित्रों के लिए जो शब्‍द उभर कर सामने आता है, वह है ‘फीचर फिल्‍म’। इसका तात्‍पर्य है ऐसा कथानक, जिसमें दो कहानियाँ एक साथ चल रही हों। जिस प्रकार भक्तिकाल में सूफी कवियों द्वारा लिखे गये महाकाव्‍यों में एक साथ दो कहानियाँ चलती थीं, उसी प्रकार आज की फीचर फिल्‍म में भी दो-दो (ही क्‍या, कई-कई) कहानियाँ एक साथ चलती हैं। एक कहानी तो आमतौर पर वह होती है, जिसे दर्शक सामने पर्दे पर देखता है। दूसरी कहानी वह होती है, जो अश्‍लील शब्‍दों, द्विअर्थी संवादों/गानों और देह प्रदर्शन के द्वारा सांस्‍कृतिक ह्रास का इतिहास रच रही होती है। और एक कहानी वह होती है, जो अर्थ की भूमि पर टिकी होती है और जिसके सूत्र सीधे दाऊद इब्राहीम तक जाते हैं। इसके अतिरिक्‍त भी कई कहानियाँ जैसे किसी नवोदित तारिका के सम्‍पूर्ण समर्पण के बाद मिली उस फिल्‍म की सफलता के द्वारा उसे कैरियर के निर्धारण की कहानी या अपने पुत्र/पुत्री को लाँच करके उसे बेड़ा पैर लगाने की कहानी आदि-इत्‍यादि।

हम भारतीयों पर फिल्‍म वालों के बड़े-बड़े एहसान हैं। अगर उन एहसानों की श्रेष्‍ठता सूची बनाई जाए, तो जो नम्‍बर वन आएगा, वह है प्रेम तत्‍व का प्रसार। एक जमाना था जब बृज की गोपिकाएं सारे काम छोड़कर चाबीसों घण्‍टे प्रेम में लीन रहा करती थीं। किन्‍तु वह युग गया, मानों प्रेम गया। रह गया, तो सिर्फ मंत्रियों, संत्रियों और अफसरों के पास। ईश्‍वर से मनुष्‍य की यह दशा देखी नहीं गयी और उसने हम दुखीजनों को फिल्‍मों का उपहार दे दिया। जो कुछ जगत में असम्‍भव था, वह सम्‍भव हो गया। यही कारण है कि आज के कलियुगी दौर में भी हर पार्क, सिनेमाहाल और रेस्‍त्रां में दो युगल-प्रेमी तो मिल ही जाएँगें और सीना तान कर चोंच में चोंच लड़ाते दिख जाएँगे। 

विद्वान लोग कहते हैं कि प्रत्‍येक व्‍यक्ति के जीवन में कम से कम एक बार लवेरिया के कीटाणु का अटैक जरूर होता है। खासकर विश्‍वविद्यालय आदि के ज्‍वाइंट क्‍लासों में यह कीटाणु बड़ी तेजी से फैलता है। आगे टीचर खड़ा पद्मावती का नख-शिख वर्णन पढ़ रहा है और पीछे विद्यार्थी बैठा उसका साक्षात दर्शन कर रहा है। लेकिन इसमें आप विद्यार्थियों को दोष नहीं दे सकते। जब कीटाणु ने हमला कर दिया, तो फिर वे अपना काम तो करेंगे ही। यही गीता में भी लिखा है और यही वैज्ञानिकों ने भी सिद्ध किया है।

लेकिन फिल्‍मवाले प्रेम को इसके बहुत आगे तक ले जाना चाहते हैं। तभी तो वे अपनी फिल्‍मों में माता-पिता के सामने से लेकर क्‍लास रूम तक डुएट साँग फिल्‍माते हैं और मंदिरों तक में नायिका के दिव्‍य शरीर का प्रदर्शन करवाते हुए मनमोहक डाँस करवाते हैं। वास्‍तव में यही प्रेम की पराकाष्‍ठा है। जिस प्रकार साधक अपनी अखण्‍ड साधना के द्वारा जब चरम पर पहुंच जाता है, तो उसे दीन-दुनिया की खबर नहीं रहती, उसी प्रकार प्रेमयोगी भी जब उद्दात्‍त अवस्‍था में पहुंचते हैं, तो उन्‍हें परिस्थितियों का ध्‍यान ही नहीं रहता। किन्‍तु आजकल का प्रेम थोड़ा सा डिफरेंट हो गा है। इसीलिए उस उद्दात्‍त अवस्‍था के बाद अक्‍सर प्रेमीजन डॉक्‍टरों के पास दौड़ लगाते पाए जाते हैं।

प्रेम के बाद फिल्‍मों ने जो चीज सर्वाधिक मात्रा में दी है, वह है फाइटिंग फैक्‍टर। यह एक ऐसा तत्‍व है, जिसका प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक बराबर महत्‍व रहा है। पहले लोग लाठी-डन्‍डे लेकर चलते थे, फिर धीरे-धीरे तलवार आई और अब तो बात रिवाल्‍वर तक पहुंच गयी है। इन आविष्‍कारों से लोगों को मरने-मारने में सुविधा हुई है और इस प्रक्रिया में अभूतपूर्व तेजी आई है।

अब जमाना बहुत आगे जा चुका है। सच बात कहें तो व्‍यक्ति नैतिकता, आदर्श, मूल्‍य, ईश्‍वर सब कुछ खा चुका है। अब सिर्फ व्‍यक्ति को अपना पेट दिखाई देता है, इसलिए वह हर खाने वाल चीज दूसरों के जबड़ों से घसीट लेता है। फिल्‍में इस पुनीत भावना के प्रसार में बड़ा योगदान देती हैं। वे डकैती, हत्‍या, स्‍मगलिंग और यौन-शोषण के नए-नए तरीके सिखाती हैं। और सबसे बड़ी बात तो यह कि वे बच्‍चों को रचनात्‍मकता जैसे 16वीं सदी के कार्यों से छुड़ा कर इन बहादुरी के कार्यों की ओर ले जाती हैं। इसके अलावा भी फिल्‍मों ने बहुत कुछ दिया है, बदले में सिर्फ हाथ के मैल को ही तो लिया है?

COMMENTS

BLOGGER: 10
  1. निश्चय ही हास्य व्यंग को स्थापित किया है फिल्मों ने।

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  2. किसी भी विधा को आमजन से जोड़ देती हैं फ़िल्में ....

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  3. इश्क लडाना और लड़ना लड़ाना दोनों ही फिल्मों से ही प्रचारित हुआ है. इसके अलावा भी वे सभी बातें हैं जिनका उल्लेख आपने किया है.

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  4. sahi likha hai aaj kal ki peedhi par filmo ka hi to poora prabhaav hai badi tatparta se anusaran bhi karte hain.bahut sateek vyang va haasya ras dono ka maja liya.

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  5. शत प्रतिशत सत्य ....

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  6. sateek v sarthak tathyon se bhara hai aapka aalekh .badhai

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  7. प्रेम के बाद फिल्‍मों ने जो चीज सर्वाधिक मात्रा में दी है, वह है फाइटिंग फैक्‍टर।



    बहुत रोचक लेख...बधाई स्वीकारें



    नीरज

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  8. मुझे फिल्मों का बहुत शौक है और मेरा मानना है की फिल्में बहुत कुछ सिखाती हैं। यह आप पर निर्भर करता है की आप किसी भी फिल्म के किस भाग को ग्रहण करते हो अतः आपको मेरे ब्लॉग में भी ज्यादा तर हिन्दी फिल्मी गीत ज़रूर देखने को मिलेंगे...मिनका जी की बात से पूर्णतः सहमत हूँ किसी भी विधा को बहुत ही आसानई से आमजन से जोड़ देती हैं फ़िल्में....

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  9. सार्थक संदेशों के साथ फ़िल्में कम ही बनती है , जो बनती है , चलती भी हैं (तारे जमीन पर , स्वदेश , रंग दे बसंती आदि )मगर पता नहीं क्यों अधिकांश फिल्मकार इस पर ध्यान नहीं देते !

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आपके अल्‍फ़ाज़ देंगे हर क़दम पर हौसला।
ज़र्रानवाज़ी के लिए शुक्रिया! जी शुक्रिया।।

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