Prakash Manu Interview on Bal Sahitya (Hindi)
(जनसंदेश टाइम्स, दिनांक 13 नवम्बर, 2011 के साप्ताहिक परिशिष्ट के पेज 22 पर प्रकाशित)
सन 1882 में ‘बाल दर्पण’ के प्रकाशन से लेकर आज तक के बाल साहित्य के इतिहास को लिखने की ओर अगर पहली बार किसी ने गम्भीर प्रयास किया है, तो वे हैं सुधी रचनाकार और समीक्षक श्री प्रकाश मनु। ‘यह जो दिल्ली है’ तथा ‘कथा सर्कस’ जैसे चर्चित उपन्यासों के रचयिता प्रकाश मनु बच्चों की लोकप्रिय पत्रिका ‘नंदन’ के सम्पादकीय विभाग के साथ-साथ बाल साहित्य से भी गहरे से जुड़े रहे हैं। उन्होंने बाल कविता और बाल कहानी के क्षेत्र में उत्कृष्ट लेखन के साथ ही साथ बाल साहित्य को आलोचनात्मक स्तर पर भी समृद्धि प्रदान की है। कुछ समय पहले उन्होंने ‘हिन्दी बाल कविता का इतिहास’ लिखने का गौरव हासिल किया है। वर्तमान में वे उससे भी बड़ा मील का पत्थर रखने का प्रयास कर रहे हैं ‘समग्र हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास’ लिख कर। यह महत्वपूर्ण ग्रन्थ सम्पादन की प्रक्रिया में है और उम्मीद की जा रही है कि फरवरी 2012 में प्रस्तावित ‘विश्व पुस्तक मेला’ में पाठकों के हाथों में होगा। अपने लम्बे साहित्यिक जीवन में प्रकाश मनु ने बाल साहित्य के विभिन्न पहलुओं को गम्भीरता से देखा, छुआ और परखा है। प्रस्तुत है उनसे बाल साहित्य के विभिन्न मुद्दों पर की गयी बातचीत के प्रमुख अंश-
प्रश्न : बाल साहित्य का नाम आते ही हिंदी के लेखक आज भी अजीब सा मुँह बनाते हैं। उसे बचकाना साहित्य माना जाता है, उसे अनुपस्थित करार दिया जाता है। इस बारे में आपके क्या विचार हैं?
उत्तर : हिंदी बाल साहित्य की इस हालत के लिए मेरे खयाल से दो चीजें जिम्मेदार हैं। इनमें एक तो है नाजानकारी या कहें कि नासमझी, जिसे अकसर बड़ी भारी विद्वत्ता के लबादे में छिपाने की कोशिश की जाती है। पर उसके भीतर की पोल छिपती नहीं है। इसलिए जो सच्चाई को जानने की कोशिश करता है, उसे देर-सबेर बाल साहित्य की सही स्थिति पता चल जाती है। फिर जो ऊपर-ऊपर से सिर्फ दिखाऊ बातें करते हैं और सभा में एकाध चुटीली बात कहकर ताली पिटवाने की कोशिश करते हैं, वे अकसर बाल साहित्य को बचकाना कहकर खुश हो जाते हैं। इससे हम सभी लेखकों पर बच्चों के लिए लिखने की जो चुनौती है, उससे वे बच जाते हैं या कन्नी काटने की कोशिश करते हैं। हालाँकि वे नहीं जानते कि ऐसा कहकर वे उन सभी लेखकों का कितना अपमान कर रहे हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन अच्छे और सार्थक बाल साहित्य के सृजन में खपा दिया।
सच तो यह है बाल साहित्य के नामचीन लेखकों के अलावा हिंदी के प्रसिद्ध और दिग्गज लेखकों ने भी बाल साहित्य लिखा है। इनमें एक ओर प्रेमचंद, अमृतलाल नागर, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, भवानी भाई, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना सरीखे लेखक हैं, तो दूसरी ओर कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी और फरीश्वरनाथ रेणु सरीखे चर्चित नाम। कितने दु:ख की बात है कि प्रेमचंद की ‘कुत्ते की कहानी’ और ‘जंगल की कहानियाँ’ ही लोगों को याद नहीं हैं। तो फिर भला बाल साहित्य की अन्य रचनाओं के बारे में उऩ्हें क्या जानकारी होगी? पर बिना जानकारी के भी धड़ल्ले से बोलना हमारे यहाँ कुछ लोगों का सर्वाधिकार है। बेशक इन चीजों की वजह से बाल साहित्य की सही छवि नहीं बन पा रही है।
प्रश्न : वर्तमान में बाल साहित्य की जो स्थितियाँ हैं, उसके लिए कौन सी परिस्थितियाँ जिम्मेदार रही हैं?
उत्तर : बाल साहित्य में आज जो स्थितियाँ हैं, उनके लिए कुछ तो वे परम विद्वान जिम्मेदार हैं जो बाल साहित्य का क-ख-ग भी नहीं जानते। न उऩ्होंने कुछ पढ़ा है और न उनमें पढ़ने लायक धैर्य है, जबकि बड़े भारी विद्वान तो हैं और इस नाते कुछ भी उलटा-सीधा कहने और उस पर लज्जित न होने का उन्हें अधिकार है। बेशक ऐसे महाभट्टों ने अपने पूवाग्रहों से बाल साहित्य का बहुत नुकसान किया। दूसरे, वे लोग भी बाल साहित्य की मौजूदा विस्थितियों के लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं जो बाल साहित्य के नाम पर बिना किसी विवेक के कुछ भी उलटा-सीधा लिख रहे हैं और साधारण या तीसरे-चौथे दर्जे की रचनाओं का बड़ा ढेर लगाए जा रहे हैं। ऐसे लेखकों के लिए बाल साहित्य लिखना सिर्फ एक व्यसन है। उन्हें न बच्चों से सरोकार है, न आज के समय और साहित्य से। यहाँ तक कि बाल साहित्य के शिखर लेखकों द्वारा जो महत्वपूर्ण लिखा गया या लिखा जा रहा है, उसे पढ़ने या उलटने-पलटने की जरा सी तकलीफ भी वे नहीं करना चाहते।
प्रश्न : बांग्ला में यह धारणा है कि जिस लेखक ने बाल साहित्य नहीं रचा, वह संपूर्ण साहित्यकार नहीं है। हिंदी में ऐसा माहौल क्यों नहीं बन पाया?
उत्तर : जाकिर भाई, जैसा मैंने पहले कहा, शुरू में ऐसा नहीं था। हिंदी के सब बड़े लेखकों ने बच्चों के लिए लिखा है और किसी को इसमें शर्म नहीं महसूस हुई। रामनरेश त्रिपाठी, दिनकर, सुभद्रा जी, मैथिलीशरण गुप्त, यहाँ तक कि निराला, पंत और महादेवी ने भी बच्चों के लिए लिखा है। इसी तरह प्रेमचंद ने बच्चों के लिए बहुत महत्वपूर्ण उपन्यास, कहानियाँ और जीवनियाँ लिखीं। हिंदी का पहला बाल उपन्यास ‘कुत्ते की कहानी’ प्रेमचंद ने 1936 में अपने निधन से कुछ ही अरसा पहले लिखा था। बाद में सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय, भवानी भाई, प्रभाकर माचवे, कमलेश्वर, मोहन राकेश, भीष्म साहनी, राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी, रेणु तक ने बच्चों के लिए लिखा और खूब लिखा। इसी तरह श्रीलाल शुक्ल, पंकज बिष्ट, अमर गोस्वामी, हरिपाल त्यागी, विनोदकुमार शक्ल, ध्रुव शुक्ल, रमेशचंद्र शाह, राजेश जोशी, नवीन सागर सभी ने बच्चों के लिए लिखा।
लेकिन इधर जो अपेक्षाकृत छोटे कद के बड़े लेखक हैं, वे बेचारे इस बात को लेकर कुछ ज्यादा ही कांशस और शुद्धतावादी हैं और सोचते हैं कि बाल साहित्य लिखकर कहीं हम अस्पृश्य न समझ लिए जाएँ। पर इन पर सिर्फ तरस ही खाया जा सकता है। इससे बाल साहित्य का कारवाँ रुक जाएगा या कि बाल साहित्य की अहममियत कम हो जाएगी, ऐसा मुझे नहीं लगता।
प्रश्न : ज्यादातर बाल साहित्यकार शहरी मध्यवर्ग को ही केंद्र में रखकर लेखन करते हैं। उसमें भी लड़कियों, कमजोरों और दलित समाज की उपस्थिति बहुत कम है। इसकी क्या वजह हो सकती है?
उत्तर : मेरे विचार में ज्यादातर लेखक मध्यवगीर्य पृष्ठभूमि के हैं तो वही अनुभव उऩके पास बहुलता से हैं और दुर्भाग्य से अनुभव-विस्तार की कोशिश वे नहीं करते। इसी तरह कमजोर वर्गों और लड़कियों को भी जितना फोकस में आना चाहिए, उतना दुर्भाग्य से नहीं हुआ। पर ऐसा भी नहीं है कि इन वर्गों के पात्रों पर महत्वपूर्ण रचनाएँ नहीं लिखी गईं। इस लिहाज से मुझे बहुत सी अच्छी कहानियाँ याद आ रही हैं। तुम्हारे संपादन में निकले संचयन ‘इक्कीसवीं सदी की बाल कहानियाँ’ में ही एक कहानी है, गोपीचंद श्रीनागर की ‘पानी वाली लड़की’। ऐसी बहुत सी और भी कहानियाँ हैं। इसी तरह नागेश पांडेय ‘संजय’ ने ‘बालिकाओं की कहानियाँ’ नाम से एक संचयन निकाला है, जिसमें ऐसी कहानियाँ हैं जिनमें स्त्रियाँ या लड़कियाँ ही मुख्य किरदार हैं। मैं समझता हूँ, खुद मेरी डेढ़-दो दर्जन से अधिक कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें लड़कियाँ मुख्य चरित्र के रूप में हैं। ऐसे ही औरों की भी बहुत सी कहानियाँ हैं। इनमें सुरेखा पणंदीकर और क्षमा शर्मा का नाम खास तौर से ध्यान में आ रहा है। खुद तुम्हारे यहाँ, मुझे याद आ रहा है, कई ऐसी कहानियाँ हैं जो एक छोटी और अबोध बच्ची की सरलता को बड़े अनोखे ढंग से चित्रित करती हैं। तो यह तो ठीक है कि कि इस तरह के पात्रों पर कम कहानियाँ लिखी गईं और यह अच्छी स्थिति नहीं है, पर हिंदी के बाल साहित्य में ऐसे पात्रों पर कहानियों का एकदम अकाल है, यह भी नहीं कहा जा सकता। मुझे लगता है, हम लोग लेखों और आलोचनात्मक टिप्पणियों में इन मुद्दों पर लगातार फोकस करें तो और भी बहुत से लेखक इस तरह की कहानियाँ लिखने के लिए प्रेरित होंगे और बात बन सकती है।
प्रश्न : कुछ लोगों का कहना है कि पत्र-पत्रिकाएँ एक ढ़र्रे वाली रचनाओं को ही प्रोत्साहन देती हैं। क्या इस प्रवृत्ति ने बाल साहित्य का नुकसान किया है?
उत्तर : जहाँ तक मेरा खयाल है, ज्यादातर बच्चों की अच्छी पत्रिकाएँ यह काम नहीं कर रहीं। इस लिहाज से ‘नंदन’, ‘बाल भारती’, ‘चकमक’, ‘बालवाटिका’ का नाम तो मैं ले सकता हूँ, क्योंकि मैं इनका निरंतर पाठक हूँ और अकसर मुझे इनमें अच्छी और याद रह जाने वाली रचनाएँ मिल जाती हैं। अगर इनमें ढर्रे की ही रचनाएँ छप रही होतीं, तो भला ऐसा क्यों होता? न सिर्फ ये पत्रिकाएँ बाल रुचियों का खयाल करके रचनाएँ दे रही हैं, बल्कि अपनी कुछेक सीमाओं के बावजूद बच्चे और बाल साहित्य के सरोकारों से भी गहरे जुड़ी हैं। हाँ, इसमें शक नहीं कि बड़ों के साहित्य की तरह बाल साहित्य में भी बहुत सी भरती की पत्रिकाएँ हैं। पर चूँकि इन्हें निकालने का उद्देश्य ही यह नहीं है कि बाल साहित्य में कोई अच्छा और यादगार काम किया जाए, तो भला इनकी क्या चिंता करना? ये पत्रिकाएँ जाहिर है, बाल साहित्य की सेवा के लिए नहीं, किसी और तरह की सेवा के लिए निकल रही हैं। वो तो ये कर ही रही हैं तो करती रहें। उनकी भी क्या चिंता करना?
प्रश्न : ज्यादातर बाल साहित्यकार शहरी मध्यवर्ग को ही केंद्र में रखकर लेखन करते हैं। उसमें भी लड़कियों, कमजोरों और दलित समाज की उपस्थिति बहुत कम है। इसकी क्या वजह हो सकती है?
उत्तर : मेरे विचार में ज्यादातर लेखक मध्यवगीर्य पृष्ठभूमि के हैं तो वही अनुभव उऩके पास बहुलता से हैं और दुर्भाग्य से अनुभव-विस्तार की कोशिश वे नहीं करते। इसी तरह कमजोर वर्गों और लड़कियों को भी जितना फोकस में आना चाहिए, उतना दुर्भाग्य से नहीं हुआ। पर ऐसा भी नहीं है कि इन वर्गों के पात्रों पर महत्वपूर्ण रचनाएँ नहीं लिखी गईं। इस लिहाज से मुझे बहुत सी अच्छी कहानियाँ याद आ रही हैं। तुम्हारे संपादन में निकले संचयन ‘इक्कीसवीं सदी की बाल कहानियाँ’ में ही एक कहानी है, गोपीचंद श्रीनागर की ‘पानी वाली लड़की’। ऐसी बहुत सी और भी कहानियाँ हैं। इसी तरह नागेश पांडेय ‘संजय’ ने ‘बालिकाओं की कहानियाँ’ नाम से एक संचयन निकाला है, जिसमें ऐसी कहानियाँ हैं जिनमें स्त्रियाँ या लड़कियाँ ही मुख्य किरदार हैं। मैं समझता हूँ, खुद मेरी डेढ़-दो दर्जन से अधिक कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें लड़कियाँ मुख्य चरित्र के रूप में हैं। ऐसे ही औरों की भी बहुत सी कहानियाँ हैं। इनमें सुरेखा पणंदीकर और क्षमा शर्मा का नाम खास तौर से ध्यान में आ रहा है। खुद तुम्हारे यहाँ, मुझे याद आ रहा है, कई ऐसी कहानियाँ हैं जो एक छोटी और अबोध बच्ची की सरलता को बड़े अनोखे ढंग से चित्रित करती हैं। तो यह तो ठीक है कि कि इस तरह के पात्रों पर कम कहानियाँ लिखी गईं और यह अच्छी स्थिति नहीं है, पर हिंदी के बाल साहित्य में ऐसे पात्रों पर कहानियों का एकदम अकाल है, यह भी नहीं कहा जा सकता। मुझे लगता है, हम लोग लेखों और आलोचनात्मक टिप्पणियों में इन मुद्दों पर लगातार फोकस करें तो और भी बहुत से लेखक इस तरह की कहानियाँ लिखने के लिए प्रेरित होंगे और बात बन सकती है।
प्रश्न : कुछ लोगों का कहना है कि पत्र-पत्रिकाएँ एक ढ़र्रे वाली रचनाओं को ही प्रोत्साहन देती हैं। क्या इस प्रवृत्ति ने बाल साहित्य का नुकसान किया है?
उत्तर : जहाँ तक मेरा खयाल है, ज्यादातर बच्चों की अच्छी पत्रिकाएँ यह काम नहीं कर रहीं। इस लिहाज से ‘नंदन’, ‘बाल भारती’, ‘चकमक’, ‘बालवाटिका’ का नाम तो मैं ले सकता हूँ, क्योंकि मैं इनका निरंतर पाठक हूँ और अकसर मुझे इनमें अच्छी और याद रह जाने वाली रचनाएँ मिल जाती हैं। अगर इनमें ढर्रे की ही रचनाएँ छप रही होतीं, तो भला ऐसा क्यों होता? न सिर्फ ये पत्रिकाएँ बाल रुचियों का खयाल करके रचनाएँ दे रही हैं, बल्कि अपनी कुछेक सीमाओं के बावजूद बच्चे और बाल साहित्य के सरोकारों से भी गहरे जुड़ी हैं। हाँ, इसमें शक नहीं कि बड़ों के साहित्य की तरह बाल साहित्य में भी बहुत सी भरती की पत्रिकाएँ हैं। पर चूँकि इन्हें निकालने का उद्देश्य ही यह नहीं है कि बाल साहित्य में कोई अच्छा और यादगार काम किया जाए, तो भला इनकी क्या चिंता करना? ये पत्रिकाएँ जाहिर है, बाल साहित्य की सेवा के लिए नहीं, किसी और तरह की सेवा के लिए निकल रही हैं। वो तो ये कर ही रही हैं तो करती रहें। उनकी भी क्या चिंता करना?
प्रश्न : ‘नंदन’ पर भी इस तरह के आक्षेप लगते रहे हैं...
उत्तर : जाकिर भाई, ‘नंदन’ पत्रिका से मैं कोई पचीस साल तक जुड़ा रहा और मैंने अपने जीवन का एक बड़ा या कहिए सर्वोत्तम हिस्सा ‘नंदन’ में बिताया है। शायद तुम्हें पता नहीं कि ‘नंदन’ का एक-एक पेज कम से कम दस-दस बार पढ़ा जाता है और एक-एक शब्द के लिए वहाँ कई बार तो लंबी चर्चा होती है ताकि जो कुछ लिखा जाए, वह बहुत आसान शब्दों में हो और बच्चों की रुचियों के एकदम अनुकूल हो। कई बार रुचियों की सीमा हो सकती है, पर मैं पूरे यकीन से कह सकता हूँ कि ‘नंदन’ ने हमेशा बाल रुचियों का ध्यान रखा है।
यह ठीक है कि भारती जी का जोर फैंटेसी और परीकथाओं पर अधिक था, पर उसमें भी नयापन और ताजगी हो, यह कोशिश लगातार होती थी। यों भारती जी के समय में भी आधुनिक कहानियाँ ‘नंदन’ में छपी हैं और उनमें से कई तो कमाल की थीं। और इधर तो ‘नंदन’ में यह कोई पूर्वाग्रह है ही नहीं कि आधुनिक कहानियाँ नहीं छपेंगी। पर हाँ, ‘नंदन’ में एक बात पर शुरू से लेकर अब तक जोर रहा कि उसमें जो भी कहानी छपे, उसमें कहानीपन यानी किस्सागोई जरूर हो और वह बच्चों के मन को बाँध ले। साथ ही वह आधुनिक हो या परीकथा, पर उसमें कोई नई बात या ताजगी जरूर हो। मैं समझता हूँ यह कोई बुरी बात नहीं है। इनमें हरिकृष्ण देवसरे की ‘जूतों का अस्पताल’ कहानी मुझे याद आ रही है, जो आधुनिक ढंग की, लेकिन बड़ी ही दिलचस्प कहानी है। यों ऐसी और भी बहुत सी कहानियाँ हैं, पर उनकी चर्चा करूँ तो जवाब बहुत लंबा हो जाएगा।
प्रश्न : आज विज्ञान का युग है, बावजूद इसके कहानीकार अभी भी परियों, राक्षसों में अपना वजूद तलाशते मिलते हैं। इसके क्या कारण हैं?
उत्तर : तुम्हें शायद पता नहीं, आजकल तो बड़ों की दुनिया में भी फैंटेसी पर खासा जोर दिया जा रहा है और फैंटेसी यथार्थ से दूर करने वाला कोई हौआ हो, यह कतई जरूरी नहीं है। बल्कि कई बार फैंटेसी यथार्थ को और अधिक गहरा और असरदार बना देती है। और ऐसी फैंटेसी कथाएँ या परी कथाएँ भी इधर लिखी जा रही हैं जिनमें परियाँ आज की दुनिया की संवेदना और समस्याओं से गहराई से जुड़ी हैं। खुद मेरी कई कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें बच्चा होमवर्क न हो पाने की मुसीबत में फंसा है, या कि उसे गाना नहीं आता या कोई और मुसीबत है, वह अकेला और बुरी तरह परेशान है। तब परी या ऐसा ही कोई पात्र सामने आता है और उसके अंदर हिम्मत भर जाता है।
प्रश्न : आज विज्ञान का युग है, बावजूद इसके कहानीकार अभी भी परियों, राक्षसों में अपना वजूद तलाशते मिलते हैं। इसके क्या कारण हैं?
उत्तर : तुम्हें शायद पता नहीं, आजकल तो बड़ों की दुनिया में भी फैंटेसी पर खासा जोर दिया जा रहा है और फैंटेसी यथार्थ से दूर करने वाला कोई हौआ हो, यह कतई जरूरी नहीं है। बल्कि कई बार फैंटेसी यथार्थ को और अधिक गहरा और असरदार बना देती है। और ऐसी फैंटेसी कथाएँ या परी कथाएँ भी इधर लिखी जा रही हैं जिनमें परियाँ आज की दुनिया की संवेदना और समस्याओं से गहराई से जुड़ी हैं। खुद मेरी कई कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें बच्चा होमवर्क न हो पाने की मुसीबत में फंसा है, या कि उसे गाना नहीं आता या कोई और मुसीबत है, वह अकेला और बुरी तरह परेशान है। तब परी या ऐसा ही कोई पात्र सामने आता है और उसके अंदर हिम्मत भर जाता है।
प्रश्न : लेकिन देखने में यह आता है कि अक्सर परी कथाओं की आड़ में अनैतिक, वीभत्स और दमनकारी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया जाता है। उदहरण स्वरूप दो कहानियाँ मुझे याद आ रही हैं ‘सिर पर गदा’, जिसमें नारी उत्पीड़न एवं दलित उत्पीड़न को महिमामण्डित किया गया है। दूसरी कहानी है ‘राजू और जादूगर रिगैम्बो’, जिसमें जंगली जानवरों की हत्या करके जादुई शक्तियाँ हासिल करते हुए दिखाया गया है।
उत्तर : तुमसे सही कहा, अक्सर परी कथाओं अथवा पारम्परिक कथाओं के नाम पर ऐसी आपत्तिजनक कहानियाँ भी लिखी जाती हैं। इस तरह की रचनाओं की भर्तस्ना की जानी चाहिए, साथ ही रचनाकारों को फैंटेसी और कुविचार के बीच के फर्क को भी बताया जाना चाहिए। यह काम आलोचनात्मक लेखन के द्वारा ही हो सकता है।
साथ ही मैं एक बात और कहना चाहूँगा कि बाल कहानियाँ ऐसी हों, जो फैंटेसीपरक हों साथ ही साथ मौलिक भी हों। जो लोग ऐसी कहानियों का पुनर्लेखन करते हैं, उससे भी बहुत गलत संदेश जाता है। इससे रचनाकारों को बचना चाहिए। इसके साथ ही बच्चों के लिए आधुनिक युग बोध की रचनाएँ भी परोसी जानी चाहिए। इनमें बच्चों से जुड़े माहौल पर केन्द्रित रचनाएँ भी हो सकती हैं और विज्ञान पर आधारित फैंटेसी भी।
प्रश्न : बाल साहित्य में आलोचनात्मक लेखन की कैसी स्थिति है?
उत्तर : बाल साहित्य में आलोचनात्मक लेखन हुआ तो है और हो भी रहा है पर बाल साहित्य के विमर्श या आलोचना का कोई सही मंच या माध्यम न होने से उसकी जितनी चर्चा होनी चाहिए, उतनी नहीं हो पा रही। देवसरे जी ने निस्संदेह बाल साहित्य की आलोचना में बहुत महत्वपूर्ण काम किया है। इसी तरह मस्तराम कपूर ने कुछ बड़े ही सुंदर और समझदारी भरे लेख लिखे हैं। मैंने जो ‘हिंदी बाल कविता का इतिहास’ लिखा, वह भी इतिहास के साथ-साथ प्रकारांतर से आलोचना का ही काम है। इधर कुछ युवा या युवतर आलोचक भी अपने काम में जुटे हैं। बीच-बीच में अच्छे लेख भी पढ़ने को मिल जाते हैं। पर सही मंच न मिल पाने से हिंदी बाल साहित्य में आलोचना-कर्म पर पर्याप्त चर्चा नहीं हो रही या उस काम को आगे बढ़ाने की कोशिशें नहीं हो रहीं।
प्रश्न : आपकी दृष्टि में अलग-अलग विधा में बाल साहित्य की 10 सर्वश्रेष्ठ कृतियाँ कौन सी हैं?
उत्तर : पिछले करीब सौ सालों में बाल साहित्य में इतना काम हुआ है कि बाल साहित्य की 10 सर्वश्रेष्ठ कृतियों के बारे में एकाएक बता पाना उतना आसान नहीं है। तो भी मेरे खयाल से हिंदी बाल साहित्य की 10 सर्वश्रेष्ठ कृतियाँ हैं, प्रेमचंद की पुस्तक ‘कुत्ते की कहानी’, अमृतलाल नागर की ‘बजरंगी नौरंगी’, भूपनारायण दीक्षित की ‘बाल राज्य’, सोहनलाल द्विवेदी की ‘गीत भारती’, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की ‘बतूता का जूता’, रेखा जैन की ‘गणित देश और अन्य नाटक’, कमलेश्वर की ‘कमलेश्वर के बाल नाटक’, कन्हैयालाल मत्त की ‘आटे-बाटे सैर-सपाटे’, शेरजंग गर्ग की ‘तीनों बंदर महा धुरंधर’ (51 बाल कविताएँ) तथा रमेश थानवी की ‘घड़ियों की हड़ताल’।
प्रश्न : बाल साहित्य में किस तरह का कार्य किये जाने की आवश्यकता अभी आप महसूस करते हैं?
उत्तर : बाल साहित्य में सबसे बड़ी चुनौती मेरे खयाल से यह है कि औसत या सामान्य रचनाओं की विशाल भीड़ में से सार्थक और महत्वपूर्ण रचनाओं को कैसे अलगाया जाए और उनकी सार्थक चर्चा हो। कारण यह है कि जब तक बाल साहित्य की महत्वपूर्ण रचनाओं पर बात नहीं होगी, तो न सिर्फ बाल साहित्य पर होने वाली हर चर्चा बेमानी होगी, बल्कि बाल साहित्य के भी उपेक्षित और निरादृत होने का खतरा बराबर बना रहेगा। ‘हिंदी बाल साहित्य का इतिहास’ इसी लिहाज से लिखा जा रहा है कि बाल साहित्य में जो भी लेखक या रचनाएँ महत्वपूर्ण हैं, उनकी अधिकतम चर्चा हो और वे फोकस में रहें।
प्रश्न : क्या आपको लगता है कि जिस तेजी से बच्चों का मस्तिष्क विकसित हो रहा है, बाल साहित्यकार उतनी तेजी से स्वयं को बदल पा रहे हैं?
उत्तर : यह ठीक है जाकिर भाई, कि बच्चे कंप्यूटर तकनीक के जमाने में जितना बदल रहे हैं, बच्चों के लेखक उतना नहीं बदले हैं। पर शायद वे उतना बदल भी नहीं सकते। उनके भीतर पीढ़ियों का अंतर है और बच्चों के लेखक आज के बच्चों के साथ-साथ उस युग की स्मृतियों और सोच-विचार से भी जुड़े हैं जिसमें वे जनमे और पले-बढ़े। ऐसा होना बिल्कुल स्वाभाविक है और इसमें कुछ भी गड़बड़ नहीं है। उनसे यह उम्मीद करना कि ‘स्विच आन, स्विच आफ’ की तरह वे झट एक युग से कटकर दूसरे में पहुँच जाएँ, मैं समझता हूँ कि ज्यादती है।
प्रश्न : क्या आपको लगता है कि जिस तेजी से बच्चों का मस्तिष्क विकसित हो रहा है, बाल साहित्यकार उतनी तेजी से स्वयं को बदल पा रहे हैं?
उत्तर : यह ठीक है जाकिर भाई, कि बच्चे कंप्यूटर तकनीक के जमाने में जितना बदल रहे हैं, बच्चों के लेखक उतना नहीं बदले हैं। पर शायद वे उतना बदल भी नहीं सकते। उनके भीतर पीढ़ियों का अंतर है और बच्चों के लेखक आज के बच्चों के साथ-साथ उस युग की स्मृतियों और सोच-विचार से भी जुड़े हैं जिसमें वे जनमे और पले-बढ़े। ऐसा होना बिल्कुल स्वाभाविक है और इसमें कुछ भी गड़बड़ नहीं है। उनसे यह उम्मीद करना कि ‘स्विच आन, स्विच आफ’ की तरह वे झट एक युग से कटकर दूसरे में पहुँच जाएँ, मैं समझता हूँ कि ज्यादती है।
फिर बच्चों के लेखक अपने-अपने ढंग और अंदाज से बदल भी रहे ही हैं। बहुत से लेखकों के अपने ब्लाग हैं और उन पर सार्थक काम वे कर रहे हैं। धीरे-धीरे इंटरनेट पर और भी ऐसे मंच सामने आ रहे हैं, जिन पर सार्थक बाल साहित्य और उसकी चर्चाएँ देखी जा सकती हैं। कई लोग ऐसे माध्यमों पर बड़ी सक्रियता से लिख रहे हैं। इनमें रमेश तैलंग हैं, आप हैं, नागेश सरीखे युवा हैं और आगे आ रही एक पूरी पीढ़ी है।
प्रश्न: बच्चों की एक आदर्श पत्रिका कैसी होनी चाहिए?
प्रश्न: बच्चों की एक आदर्श पत्रिका कैसी होनी चाहिए?
उत्तर: जाकिर भाई, मेरे खयाल से बच्चों की अच्छी पत्रिका वही हो सकती है जो बच्चों की सर्जनात्मक भूख को शांत करे और उनके जीवन की डगर में किसी हमसफर या आत्मीय दोस्त की तरह उनके कंधे पर हाथ रखकर उनके साथ-साथ चले। इसके साथ ही साथ मुझे हमेशा लगता है कि बच्चों की एक अच्छी पत्रिका में जानकारी देने वाली सामग्री की तुलना में सर्जनात्मक सामग्री निश्चित रूप से अधिक होनी चाहिए।
प्रश्न: आपने कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, आलोचनात्मक लेखन, संपादन लगभग सभी कार्य किये हैं। आपकी दृष्टि में इनमें से कौन सा रूप ज्यादा महत्वपूर्ण है?
उत्तर: जाकिर भाई, मुझे अपना कथाकार रूप कहीं अधिक पसंद है, यानी मेरी लिखी हुई कहानियाँ और उपन्यास। दूसरे नंबर पर मुझे अपना कवि रूप पसंद है। सच तो यह है कि आज मैं लिख भले ही आलोचना रहा होऊँ, पर वहाँ भी मूलतः होता मैं कवि या सर्जक ही हूँ। जो आलोचना सर्जनात्मक न हो, वह मैं लिख ही नहीं सकता। मेरे विचार में बच्चों के ही नहीं, किसी भी साहित्य में सर्जनात्मक लेखन ही सबसे बड़ी चीज है। बाकी चीजें बाद में आती हैं। और अगर ऐसा न हो, तो समझिए, कहीं कोई बड़ी गड़बड़ है।
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बाल साहित्य का योगदान भविष्य में जाकर ही दिखायी पड़ता है।
हटाएंएक विचारणीय साक्षात्कार के लिए आप और मनु जी दोनों ही बधाई के पात्र है. दरअसल बाल साहित्य के साथ बिडम्बना ही यह रही है कि लोग-बाग बिना जाने बूझे मैदान में कूद पड़ते हैं.वस्तुस्थिति से नितांत अनभिज्ञ रहते हुए कुछ भी बोल देना उनका धर्म है.
हटाएंप्रकाश मनु जी ने जिस निष्ठा के साथ बाल साहित्य को आगे बढ़ने में अपनी भूमिका निभाई है, उसके लिए उन्हें हमेशा याद रखा जाएगा. बाल दिवस पर ऐसे कर्म योगी को मेरा प्रणाम.
बाल-मंदिर
प्रकाश मनु जी से मिलवाने के लिये हार्दिक आभारी हूँ।
हटाएं@ ज़ाकिर अली रजनीश जी ,
हटाएंसाक्षात्कार बहुत अच्छा है पर इसकी सबसे बड़ी कमी यह है कि यह मुझसे नहीं लिया गया है जिसका मैं घोर विरोध करता हूं ,मुझे मनु जी से कोई शिकायत नहीं पर आपसे ये उम्मीद ना थी , इतनी घृणा आपने कहां छुपा के रखी थी जो मुझे इस इंटरव्यू से दूध की मक्खी की तरह से निकाल फेंका ! खैर मैं यह मान के जबाब दे रहा हूं कि ये सवाल आपने मुझसे ही पूछे हैं पर दिखावे के लिए मनु जी का नाम डाल दिया है
@ पहला सवाल ,
ज़ाकिर जी हिंदी लेखकों का क्या ? वे इसे बचकाना मानते हैं तो ठीक ही लगता है ! अब बच्चों का साहित्य बचकाना ही रहे तो सही है ना ! सठियाया हुआ साहित्य तो सठियाई उम्र के लोगों का शगल हुआ ना
@ दूसरा सवाल ,
अब तक स्थितियां क्या रहीं उसे छोडिये पर आगे से यह ध्यान रहे कि बाल साहित्यकार आज के बच्चों का मनोविज्ञान समझते हों ,यह शर्त रहे , वर्ना उनके वैचारिक विष्ठा विसर्जन को बाल साहित्य की श्रेणी में ना गिना जाये
@ तीसरा सवाल ,
सम्पूर्णता के चक्कर में इंसान कहीं का नहीं रहता सबको अपनी विशेषज्ञता के अंदर बेहतर से बेहतर देने की कोशिश करना चाहिए ! आपके द्वारा उल्लिखित बांग्ला धारणा विस्तृत प्रतिक्रिया चाहती है इसके लिए पृथक से साक्षात्कार करियेगा
@ चौथा सवाल ,
बाल्यकाल में वर्गीय विभाजन अनुचित है पर लेखकों की अपनी पृष्ठभूमि इसके लिए उत्तरदाई है यह भी सही है ! आशा है कि नारीवादी और दलित साहित्यकारों जल्द ही इस सेक्टर पे ध्यान देंगे
@ पांचवां सवाल ,
जी देखिये सही वजहों का आकलन अभी तक हो नहीं पाया है
@ छठा सवाल ,
कौन हैं वे लोग जो ऐसा कहते हैं ?
@ सातवाँ सवाल ,
हां , तो आप क्या कर लीजियेगा
@ आठवां सवाल ,
देखिये आपके इंटरव्यू का यह सबसे अच्छा सवाल है ! इसके लिए आपको बहुत बहुत साधुवाद
@ नौवां सवाल ,
जुगुप्सा , अनैतिकता , वीभत्सता ,उत्पीडन , परपीड़ा का अपना ही आनंद होता है ! यह आप कब समझियेगा
@ दसवां सवाल ,
बस यही बुराई है आप लोगों में ,थोड़ा कहा घसीटा ज्यादा वाली प्रवृत्ति ने बाल साहित्य को बहुत नुकसान पहुंचाया है ! यह विधा मूलतः सठियाये हुए साहित्य के लिए समीचीन है फिर आप क्यों इसे अनावश्यक ही बाल साहित्य के खीसे में डाल रहे हैं
@ ग्यारहवां सवाल ,
ये क्या लगा रखा है आपने ,परीक्षा फल घोषित करने जैसी प्रणाली बाल साहित्य को शोभा नहीं देती
@ बारहवां सवाल ,
पहले तो,जो लोग अपने आप को बाल साहित्यकार मानते हैं वे आपस में झगड़ा करना बंद करें
@ तेरहवां सवाल ,
सही है ,बाल साहित्यकारों को बच्चों से बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत है
@ चौदहवां सवाल ,
उसे बच्चों के लिए ही होना चाहिए
@ पन्द्रहवां सवाल ,
ऐसा तो मैंने कुछ भी नहीं किया है आप अनावश्यक ही मुझे चढा रहे हैं ! बाकी इंटरव्यू देना मुझे बहुत अच्छा लगा आशा करता हूं कि अगला इंटरव्यू भी आप मुझसे ही लेंगे वर्ना तो आप मुझे जानते ही हैं ,धन्यवाद
अली जी, क्या कभी सीरियस भी होते हैं आप?
हटाएंवैसे यह जबरदस्ती का इंटरव्यू भी बढिया है।
आशा है, मनु जी इसे अन्यथा नहीं लेंगे।
@ डाक्टर ज़ाकिर अली रजनीश जी ,
हटाएंअर्ज कर दूं कि पिछले दो महीने सीरियसली बीमार था अगर इस किस्म की सीरियसनेस से काम चल जाये तो
वर्ना खुदा ना करे कि मुझे और मेरे अपनों को कभी सीरियस होना पड़े ! ज़िन्दगी ज़रा सी , हराम क्यों गुज़रे ! वैसे भी दुनिया में सीरियस लोगों की कमी है क्या ?
मनु साहब का इंटरव्यू अपनी जगह मुकम्मल और शानदार है ! मौलिक है !
बाल साहित्य के गूढतम बिन्दुओं पर बहुत कुछ जानने को मिला। आभार।
हटाएंआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
हटाएंयदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
बालदिवस की शुभकामनाएँ!
बाल-साहित्य की भविष्यगत-संभावनाओं पर अच्छा आलेख.धन्यवाद.
हटाएंबाल साहित्य का अपना एक प्रमुख स्थान है,में एक युवा हू और हमेशा बाल कविता हे लिखना पसंद करता हू, अगर आज के युग में सभी युवा बाल साहित्य पर लिखना प्रारंभ कर दे , तो इसको आगे ले जाया जा सकता है .
हटाएंअत्यंत प्रेरणादायी बातचीत.....बधाई.......
हटाएंअत्यंत प्रेरणादायी बातचीत......बधाई!
हटाएंsir hindi baal sahitya ka itihas by praksh manu publish hua kya ..... please share the publisher name
हटाएंsir mera naam prashant mishra hai.mai baal sahitya par shodh karna chaahta hu,par samajh me nhi aa rha ki kispe kaur kisi lekhak pe ya ki hindi ki mukhya dhara ki kritiyo jaise aapka banti aur shekhar ek jeevani 1 part ko lekr.agr kisi ke paas kuch sujaav ho to plz muje de.
हटाएंiske alava AGR mukhya dhara ke gadya sihitya me baal chitran pe karu to kaisa rhega.
ek aur vishay socha hai hindi sinema ya dharavaahik pe shodh karu,kripya muje bataae kuch agr ho ske to
dhanyabad
prashant mishra
9795312876