इरादे रोज बनते हैं, मगर फिर टूट जाते हैं, वही अजमेर जाते हैं, जि न्हें ख्वाजा बुलाते हैं। किसी नामालूम शाय र का यह...
इरादे रोज बनते हैं, मगर फिर टूट जाते हैं,
वही अजमेर जाते हैं, जिन्हें ख्वाजा बुलाते हैं।
किसी नामालूम शायर का यह एक बेहद गहरा शेर है। सचमुच हम अपनी जिंदगी में कितने इरादे बनाते हैं, पर कभी वक्त, कभी हालात और कभी हमारी सीमाएँ आड़े आ जाती हैं और हम न चाहते हुए भी अपने इरादों की ताबीर होते हुए नहीं देख पाते। शायर ने मानव की इसी दशा को अमजेर के बहाने बखूबी बयाँ किया है।
इरादे तो बहुत बने लेकिन:
अजमेर मुख्य रूप से दो चीजों के लिए जाना जाता है, ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह और पुष्कर झील एवं उसके शीर्ष पर स्थित ब्रह्माजी के मंदिर के लिए। सिर्फ भारत में रहने वाले मुस्लिमों के लिए ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व के मुसलमानों में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के प्रति विशेष आस्था है। उन्हें संसार के सबसे बड़े औलिया का खिताब दिया गया है। एक मुस्लिम परिवार में जन्म लेने के कारण यह आकर्षण मेरे भीतर भी थी। इसीलिए इससे पूर्व जब मेरा दो बार जयपुर जाना (प्रथम बार 1997 में ‘बालहंस’ द्वारा आयोजित अखिल भारतीय बाल कहानी प्रतियोगिता का प्रथम पुरस्कार लेने और द्वितीय बार 2007 में राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित विज्ञान संचार/पत्रकारिता के स्पेशल पेपर निर्माण के लिए आयोजित राष्ट्रीय कार्यशाला में) हुआ, तो मन में यह चाह रही कि वहाँ से तीन घंटे की दूरी पर स्थित अजमेर भी हो लिया जाए। पर इंसान की हर इच्छा पूरी भी तो नहीं होती, तो ये इच्छाएँ भी अधूरी रह गयीं, 2011 तक के लिए।
इस बार अगस्त में जब यह पता चला कि भीलवाड़ा में आयोजित 1 और 2 अक्टूबर को आयोजित होने बाल साहित्य समारोह में मेरे बाल कथा संग्रह ‘मेरी प्रिय सामाजिक बाल कथाएँ’ को पुरस्कृत किया जा रहा है, तो 1997 से कुलबुला रही वह इच्छा फिर सिर उठाने लगी। पहले तो परिवार के साथ यह प्रोग्राम बना, पर फिर बच्चे के टेस्ट के कारण उसे मुल्तवी करते हुए अकेले ही यात्रा के लिए निकलना पड़ा।
विज्ञान कथाकार का ब्लॉगर में कायान्तरण:
अजमेर में विज्ञान कथाकार हरीश गोयल जी भी रहते हैं। उन्होंने साइंस फंतासी पर बच्चों और बड़ों दोनों के लिए सैकड़ों विज्ञान कथाएँ लिखी हैं। हरीश जी, फैजाबाद से प्रकाशित होने वाली ‘विज्ञान कथा’ त्रैमासिक पत्रिका के उप संपादक भी हैं। इससे भी बड़ी उनकी पहचान यह कि वे एक बेहद सरल और मिलनसार इंसान हैं। फोन पर जब मैंने उन्हें अपना प्रोग्राम बताया, तो वे बहुत खुश हुए और घर पर आने की दावत दी।
काफी दिनों से हरीश से मुलाकात नहीं हुई थी, इसलिए उनसे मिलने का आकर्षण भी था। 25, शास्त्री नगर स्थित हरीश जी के घर जब मैं सुबह-सुबह पहुँचा, तो उन्होंने बड़े उत्साह से मेरा स्वागत किया। विज्ञान कथा, विज्ञान कथाकारों, विज्ञान कथा संगठन और व्यक्तिगत जीवन की ढ़ेरों बातचीत के बीच सुस्वादु नाश्ता और स्नान वगैरह चलता रहा। इसी बीच मैंने उन्हें ब्लॉग के बारे में बताया, तो वे बहुत उत्साहित हुए। मैंने झटपट उनका ब्लॉग ‘Science Fiction Planet’ बनाया और उन्हें उसकी कार्यविधि समझाने लगा।
लगभग 11 बजे हम लोग दरगाह के लिए निकले। दरगाह उनके घर से ज्यादा दूर नहीं थी। हम लोग कुछ ही समय बाद वहाँ पहुँच गये। उस रोज शुक्रवार था। इसलिए दरगाह में बहुत भीड़ थी। दरगाह के आसपास जमा भाँति-भाँति के भिखारियों के बारे में बताते हुए और पर्स को सुरक्षित रखने की हरीश जी की हिदायतों को लेते हुए हम लोग दरगाह के गेट पर पहुँचे। लेकिन जब वहाँ पहुँच कर पता चला कि कैमरा ले जाना मना है, तो थोड़ी निराशा हुई। पर इस बात का सुकून था कि मोबाइल ले जाना मना नहीं थी और उससे फोटो भी खींचे जा सकते थे।
चींटी के पैर रखने की जगह है?
आधा घण्टे की लाइन के बाद हम लोग ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के रौजे के अंदर पहुंचे। वहाँ पहुंच कर मुझे पहली बार पता चला कि ‘तिल रखने की जगह न होना’ का असली मतलब क्या होता है। रौजे के अंदर जाने के लिए दो गेट से लोग अंदर आ रहे थे और अंदर चींटी के लिए भी पैर रखने की जगह नहीं थी। उस पर वहाँ पहुंचने वाले व्यक्ति की धार्मिकता। हर व्यक्ति चाह रहा था कि वहाँ की हर चीज को छुए, उसे चूमे और वहाँ पर कम से कम एक घण्टे का समय बिता कर तिलावत वगैरह करे।
मैं ठहरा नास्तिक आदमी, एक पर्यटक की तरह वहाँ पहुँचा था। पर एक धर्मभीरू पत्नी का पति होने के नाते उसकी एक मन्नत का बोझ मेरे सिर पर था। लिहाजा उस बोझ को वहाँ पर हल्का किया और हरीश जी की रौजे की एक परिक्रमा करने की इच्छा को मुल्तवी करते हुए अगले गेट से ही बाहर निकल आया।
भीड़ में महिलाओं की दुर्दशा:
इतने से काम में एक घण्टे का और समय लगा। इस दौरान शरीर पसीने से तर-बतर हो गया हो गया। भीड़ की दशा देखकर वहाँ मौजूद महिलाओं पर मुझे बहुत तरस आया। रौजे के भीतर आदमी इस तरह से पिस रहा था, जैसे दो पाटों के बीच में गेहूँ का दाना। ऐसे में औरतों और लड़कियों की क्या दशा हो रही होगी, आप इसका अंदाजा लगा सकते हैं। पुरूष एक तो वैसे ही मौके की तलाश में रहता है, उसपर उसे अगर ऐसी भीड़ मिल जाए, तो...। धार्मित स्थलों पर भी वह क्या ऐन्द्रिकता से मुक्त हो पाता है?
मुझे तो उन औरतों पर भी क्रोध आ रहा था, क्या जरूरत है इतनी भीड़ में अंदर जाने की। अगर आपको अपनी श्रद्धा ही प्रकट करनी है, तो बाहर से कर लो। पर नहीं, अंदर तो जाना ही है और रौजे को चूम कर, उसके चारों ओर घूम कर वहाँ पर खड़े होकर फातेहा पढ़ना/मन्नत मांगनी है। तो भई झेलो धक्के और पुरूषों के कुत्सित स्पर्श। आपको किसने रोका है?
मन्नत माँगने का नया ट्रेन्ड:
रौजे से बाहर निकलने के बाद मैंने एक नई चीज देखी है। धार्मिक स्थलों पर मन्नत माँगने के साथ धागा बांधने का रिवाज होता है। लोगों का ऐसा विश्वास होता है कि ऐसा करने से उनकी मन्नत पूरी हो जाती है। मन्नत पूरी होने पर लोग जाते हैं और अपना धागा खोल आते हैं। लेकिन धागे तो सभी एक जैसे होते हैं। अपना धागा कैसे पहचान में आए, इसलिए लोगों ने अब जालियों में अपने ताले लगाने शुरू कर दिये हैं। इसके पीछे विश्वास यही होगा कि मेरा ताला मैं ही आकर खोलूँगा। और शायद यह सोच भी हो कि ताला बड़ा होता है, दूर से दिखता है, इसलिए ख्वाजा को बार बार मन्नत की याद दिलाता रहेगा। धन्य हैं हमारे देश के धार्मिक विश्वास।
वसूली के पूरे इंतजामात:
धार्मिकता का कितना दोहन किया जा सकता है, यह देखने के लिए भारत के किसी भी धार्मिक स्थल पर जाया जा सकता है। अजमेर की दरगाह भी इससे अछूती नहीं है। हालाँकि उत्तर प्रदेश के धार्मिक स्थ्लों की तुलना में वहाँ अभी तक काफी राहत है, पर जगह-जगह वसूली के लिए काउंटर तो खुल ही गये हैं। चाहे दरगाह के मुख्य द्वार के दाईं ओर डेरा जमाए मुजाविर हों, चाहे मुख्य गेट से अंदर घुसते ही खड़ा मुजाविर या फिर रौजे के नीचे स्थित मोइनुद्दीन चिश्ती की कब्र पर तैनात लोग या फिर बाहर शाम को चढ़ने वाली डेग पर डेरा जमाए कारकून, हर जगह भावनाओं को कैश कराने के पूरे इंतजामात देखने को मिलते हैं।
पुष्कर का ब्रह्मा मंदिर:
हिन्दू माइथालॉजी में यूँ तो ब्रह्मा सृष्टि के रचयिता के रूप में जाने जाते हैं, पर उनकी एक गल्ती के कारण उन्हें भी ऐसा श्राप मिला हुआ है, जिसकी वजह से सिर्फ पुष्कर में ही उनकी पूजा होती है। पुष्कर मुख्य शहर से अलग एक पहाड़ी पर बसा हुआ है और शहर से बस द्वारा जाने पर लगभग एक घंटे का समय लगता है।
शाम के समय जब हम लोग पुष्कर पहुँचे, तो वहाँ पर अपेक्षाकृत सन्नाटा था। लेकिन मंदिर की ओर जाते हुए यह स्पष्ट हो गया कि यहाँ ज्यादातर विदेशी ही आते हैं। क्योंकि बस स्टैण्ड से लगभग एक किमी0 दूर मंदिर तक के रास्ते में ज्यादातर विदेशी लोगों की रूचि की ही दुकनें नजर आईं। मंदिर में पहुंचकर सुरक्षाकर्मियों ने कैमरा तो जमा कराया ही, साथ ही मोबाइल से भी फोटो खींचने पर पाबंदी लगा दी। एक ऊँचे से चबूतरे पर स्थित छोटे से मंदिर में दर्शन करने के बाद मैं हरीश गोयल जी के साथ नीचे आ गया।
पुष्कर झील का गऊ घाट:
नीचे की ओर पुष्कर का गऊ घाट है। पर वहाँ भी सन्नाटा पसरा हुआ था। हरीश जी ने मान्यता के अनुसार वहाँ पर अपने पैर धुले और सिर पर भी थोड़ा सा पानी डाला। झील काफी बड़ी थी, पर आउट सीजन होने के कारण किसी मरघट की तरह शान्त लग रही थी। घाट पर एक ओर कुछ कबूतरों का झुण्ड नजर आया, जिसे देखकर थोड़ी जीवंतता महसूस हुई। घाट पर घुसते समय ही जिस चीज ने मेरा ध्यान सबसे पहले मेरा ध्यान खींचा, वह थे, रास्ते के बीच में जगह-जगह लगे हुए दान पात्र, जोकिर आकार में काफी बड़े थे और थोड़ी-थोड़ी दूर पर लगे हुए थे।
चित्र में लौटते हुए हम लोग रास्ते में पड़ने वाले कृष्ण जी के मंदिर भी गये। यह मंदिर काफी भव्य बना हुआ था। पर यहाँ भी फोटो खींचने की मनाही थी। मंदिर के प्रबंधकों की यह मनाही समझ से परे थी। क्योंकि मंदिर के बाहर उसके फोटो फुटपाथ पर खुलेआम बिक रहे थे। ऐसे में मोबाइल से भी फोटो खींचने की मनाही करना समझ से परे है। रास्ते में जगह-जगह पड़ने वाले रेस्टोरेंट में और सड़क पर चहलकदमी करते हुए खूबसूरत विदेशी जोड़े भी दिखे, जो अलमस्त होकर हंसी-मजाक में डूबे हुए थे। इनमें से ज्यादातर जोड़े 35-40 की उम्र के थे।
पुष्कर से लौट कर मेरा भीलवाड़ा की ओर कूच करने का प्रोग्राम था। इसलिए हरीश जी के परिवार से विदा लेकर मैं भीलवाड़ा की ओर रवाना हो गया, जो दो राजस्थान साहित्य अकादमी और बालवाटिका द्वारा संयुक्त रूप से दो दिवसीय बाल साहित्य समारोह था। लौटते समय मन में वही शेर एक बार फिर गूँजा। साथ ही एक सवाल भी- हाँ हो सकता है कि ख्वाजा अपने भक्तों को अजमेर अवश्य बुलाते होंगे, पर मुझ जैसे नास्तिक को क्या उन्होंने इस योग्य समझा होगा?
ज्ञान व जानकारी भरी यात्रा।
जवाब देंहटाएंख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह और पुष्कर झील एवं उसके शीर्ष पर स्थित ब्रह्माजी के मंदिर के लिए।
जवाब देंहटाएंबधाई ||
कल 18/10/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
वाह खूब सैर करवाई डाक्टर साहब ... आप के साथ साथ हमें भी दर्शन मिल गए !
जवाब देंहटाएंआपकी दरगाह यात्रा के दौरान हुई पीड़ा को मैं समझ सकता हूँ...मुझे भी वहां के हालात देख कर बहुत दुःख हुआ था और वहां के कार्यकर्ताओं द्वारा महिलाओं से हो रही खुले आम बदतमीजीयों को देखने के बावजूद नकारने के रवैय्ये को देख कर गुस्सा भी आया था...आज अधिकतर मंदिर दरगाहें या और धार्मिक स्थल पैसा कमाने का जरिया बनते जा रहे हैं और इनका व्यवसायी करण होता जा रहा है...अंध भक्त चाहे ये सब देख आँखें मूंदे लेकिन आँखों वाले लोग ये सब देख दुखी जरूर होते हैं...
जवाब देंहटाएंनीरज
आपकी पोस्ट भी मेरी जगन्नाथ पुरी की अनआध्यात्मिक यात्रा से मिलती जुलती है. अपनी अस्मत को बचाना धार्मिक स्थलों में मुश्किल होता जा रहा है ख़ास कर भीड़ भाड़ के दिनों में.
जवाब देंहटाएंआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार के चर्चा मंच की जी रही है!
जवाब देंहटाएंयदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
गाली शब्द की अति मौलिक व्यंग्य परक परिभाषा आपने दी है .मजा आ गया .खुली बेबाक समीक्षा के लिए आपका आभार .तमाम तीर्थ इसी बदमिजाजी और बदइन्तजामी का हाल बयाँ करतें हैं बेशक कुछ अपवाद भी हैं तिरुपति तिरुमाला देवस्थानम से अन्यत्र भी होंगें लेकिन हमारी अतृप्त देह कामना सब जगह यकसां हैं .
जवाब देंहटाएं.मजा आ गया .खुली बेबाक समीक्षा के लिए आपका आभार .तमाम तीर्थ इसी बदमिजाजी और बदइन्तजामी का हाल बयाँ करतें हैं बेशक कुछ अपवाद भी हैं तिरुपति तिरुमाला देवस्थानम से अन्यत्र भी होंगें लेकिन हमारी अतृप्त देह कामना सब जगह यकसां हैं
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ जाना आपकी यात्रा के ज़रिये .. आभार
जवाब देंहटाएंउस धर्मभीरू पत्नी की मन्नत के बारे में जानने की ख्वाहिश है बशर्ते उसके नास्तिक पति ये राज बताना चाहें तो :)
जवाब देंहटाएंशायद आस्तिक पत्नी के तुफैल से नास्तिक पति का बुलावा आया हो :)
शुक्र है कि आप उन कुत्सित स्पर्शों को महसूस कर पाये / देख पाये :)
आगे और भी टिपियाते पर सुब्रमनियन जी की अनाध्यत्मिकता , मामला यहीं खत्म करने को प्रेरित कर रही है :)
बिल्कुल सही हर धार्मिक स्थान पर केवल यही होता है फ़िर वह किसी भी धर्म का हो, परंतु इस पर नकेल कसेगा कौन, इसकी पहल तो हमको ही करना होगी।
जवाब देंहटाएंनई जानकारियों से भरपूर पोस्ट ।
जानकारियों और चित्रों से भरे लेख के लिए आपका आभार...
जवाब देंहटाएंGud
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