('जनसंदेश टाइम्स', 05 अक्टूबर, 2011 के 'ब्लॉगवाणी' कॉलम में प्रकाशित ब्लॉग समीक्षा) दुनिया के समस्त धर्म ग्रन्...
('जनसंदेश टाइम्स', 05 अक्टूबर, 2011 के
'ब्लॉगवाणी' कॉलम में प्रकाशित ब्लॉग समीक्षा)
दुनिया के समस्त धर्म ग्रन्थ मुक्त कंठ से ईश्वर की प्रशंसा के कोरस में मुब्तिला नजर आते है। उनका केन्द्रीय भाव यही है कि ईश्वर महान है। वह कभी भी, कुछ भी कर सकता है। एक क्षण में राई को पर्वत, पर्वत को राई। इसलिए हे मनुष्यो, यदि तुम चाहते हो कि सदा हंसी खुशी रहो, तरक्की की सीढि़याँ चढ़ो, तो ईश्वर की वंदना करो, उसकी प्रार्थना करो। और अगर तुमने ऐसा नहीं किया, तो ईश्वर तुम्हें नरक की आग में डाल देगा। और लालच तथा डर से घिरा हुआ इंसान न चाहते हुए भी ईश्वर की शरण में नतमस्तक हो जाता है।
लेकिन दुनिया में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं, जो ईश्वरवादियों के रचाए इस मायाजाल को समझते हैं। ऐसे लोग वैचारिक मंथन के बाद इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि ईश्वर आदमी के मन की उपज है और कुछ नहीं, जिसे मनुष्य ने अपने स्वार्थ के लिए, अपनी सत्ता चलाने के लिए सृजित किया है। ऐसे लोग विश्व प्रसिद्ध दार्शनिक नीत्शे के सुर में सुर मिलाते हुए कहते है- ‘मैं ईश्वर में विश्वास नहीं कर सकता। वह हर वक्त अपनी तारीफ सुनना चाहता है। ईश्वर यही चाहता है कि दुनिया के लोग कहें कि हे ईश्वर, तू कितना महान है।’ नास्तिकता का दर्शन भारत में ‘लोकायत’ के नाम से प्रचलित रहा है। ‘लोकायत’ के अनुयायी ईश्वर की सत्ता पर विश्वाश नही करते थे। उनका मानना था की क्रमबद्ध व्यवस्था ही विश्व के होने का एकमात्र कारण है, एवं इसमें किसी अन्य बाहरी शक्ति का कोई हस्तक्षेप नही है। कहा जाता है कि भारतीय दर्शन की इस परम्परा को बलपूर्वक नष्ट कर दिया गया। उसी परम्परा, उसी दर्शन को आगे बढ़ाने क काम कर रहा है ‘नास्तिकों का ब्लॉग’ (http://nastikonblog.blogspot.com), जोकि एक सामुहिक ब्लॉग है।
‘नास्तिकों का ब्लॉग’ एक ऐसे लोगों का समूह है, जो नास्तिकता में विश्वास करता है। इस ब्लॉग के संचालकों का मानना है कि नास्तिकता सहज स्वाभाविक है, प्राकृतिक है। उनका कहना है कि हर बच्चा जन्म से नास्तिक ही होता है। धर्म, ईश्वर और आस्तिकता से उसका परिचय इस दुनिया में आने के बाद ही कराया जाता है, इसी दुनिया के कुछ लोगों के द्वारा। ब्लॉग के संचालक इसके निर्माण के पीछे का उद्देश्य बताते हुए कहते हैं- ‘हमारा प्रयास मानवतावादी दृष्टिकोण को उभारने का रहेगा, जो किसी सम्प्रदाय अथवा धर्म के हस्तक्षेप से मुक्त हो।’ साथ ही वे यह भी कहते हैं कि अगर आप ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं रखते हैं, तो आपका इस ब्लॉग में स्वागत है। लेकिन अगर आप आस्तिक हैं, तो भी आप हमसे इस ब्लॉग पर आकर तर्क-वितर्क कर सकते हैं। यहाँ पर शर्त सिर्फ इतनी है की भाषा अपशब्द एवं व्यक्तिगत आक्षेपों से मुक्त होनी चाहिए।
यह हिन्दी का इकलौता ब्लॉग है, जहाँ पर तर्क-वितर्क होता है और वाद-विवाद भी होता है पर सब कुछ बेहद संयमित और जीवंत रूप रूप में। ईश्वर के समर्थन और विरोध में जितने तर्क हो सकते हैं, वे यहाँ देखने को मिलते हैं। कोई व्यक्ति भावनाओं के सहारे, कोई विज्ञान के सहारे, तो कोई धर्म के सहारे ईश्वर को प्रामाणिक बनाने का प्रयत्न करता है तो कोई नास्तिकता के फायदों को गिनाता हुआ नजर आता है। और कुछ लोग तो नास्तिका के पूरे सौन्दर्यशास्त्र को रचने की प्रक्रिया में रत दिखाई पड़ते हैं- ‘नास्ितकता का सबसे बड़ा सौंदर्य इस बात में है कि यह व्यक्ति को घोर जिम्मेवार बनाती है, स्वयं के प्रति। अतीत से भारमुक्त नास्तिक सहज होता है, जब तक कि वह नास्तिकता को ही न ढ़ोने लग जाए।’
इसी के साथ कुछ लोग यहाँ ऐसे भी मिल जाएँगे, जो आस्तिक और नास्तिक के बीच की श्रेणी के हैं। वे ज्यादा मजेदार और व्यवहारिक होने की बातें करते हैं। ऐसे लोग कहते हैं कि अगर ईश्वर कहीं मिल गया, तो कह दूँगा- ‘नमस्ते ताऊ, कैसे हो और क्या चल रहा है? नहीं आया, तो कौन सा आसमान टूट पड़ेगा? आखिर उस ईश्वर (जो है भी और नहीं भी) ने कौन सा मेरा या दुनिया का भला किया है?’ और लगे हाथ वे एक मजेदार सवाल और उछालते हैं कि आखिर इस दुनिया की रचना किसने की? भाई, मैंने तो नहीं की। और जिसने की है वो सामने आके बताए की उसने की। मैं भी लगे हाथ सवाल करने के मुड में हूँ की भाई जब संभालना नहीं था तो रचना क्यों की?
आस्तिकता और नास्तिकता का यह संघर्ष आदिकालीन है, जो हमेशा चलता रहा है और चलता रहेगा। समय बदलने के साथ-साथ इस शास्त्रार्थ में नए तर्क नए विचार शामिल होते रहे हैं। यदि आप तर्क-वितर्क और वैचरिक बहस में रूचि रखते हैं और आस्तिक तथा नास्तिक दोनों की सीमाओं के बारे में जानने के उत्सुक हैं, तो नि:संदेह आपके लिए ‘नास्तिकों का ब्लॉग’ एक रोचक ठिकाना हो सकता है।
इस समीक्षा के लिए शुक्रिया ! बहुत बढ़िया ब्लॉग है यह !
जवाब देंहटाएंलोकायत का अर्थ था लोकषु+आयतः अर्थात् लोगों में प्रचलित दर्शन। निस्सन्देह यह भौतिकवादी दर्शन था। वस्तुतः यह जनसाधारण का दर्शन था और वह हमारे जन इतिहास के साथ अविभाज्य रूप से जुड़ा था। वह हमारे आज के जन के साथ भी अविभाज्य रूप से जुड़ा है।
जवाब देंहटाएंआस्तिकता और नास्तिकता के द्वन्द सराहनीय है.
जवाब देंहटाएंतार्किक प्रस्तुति.
जैसे लोग आस्तिकता का ढोंग करते हैं और लोग उन्हें आस्तिक समझ लेते हैं, ऐसे ही कुछ लोग नास्तिकता का ढोंग करते हैं और लोग उन्हें नास्तिक समझ लेते हैं।
जवाब देंहटाएंकुछ लोग आस्तिक होने का दावा करते हैं और काम नास्तिकता के करते हैं, ऐसे ही कुछ लोग नास्तिक होने का दावा करते हैं लेकिन धार्मिक परंपराओं का पालन करते हैं।
किसी भी बूढे नास्तिक के बच्चों के जीवन साथियों को देख लीजिए, अपने बच्चों का विवाह वह उसी रीति के अनुसार करता है, जो कि उसके पूर्वजों का धर्म सिखाता है और जिसके इन्कार का दम भरकर वह बुद्धिजीवी कहलाता है।
नास्तिकों को भी आजीवन अपने बारे में यही भ्रम रहता है कि वे नास्तिक हैं, जब कि वे भी उसी तरह के पाखंड का शिकार होते हैं, जिस तरह के पाखंड का शिकार वे आस्तिकता के झूठे दावेदारों को समझते हैं।
जाकिर अली 'रजनीश' जी ! आपको अब यह भी जान लेना चाहिए कि ऐसे कई ब्लॉग हैं जहां संयमित भाषा में तर्क-वितर्क होता है।
धन्यवाद !
नास्तिकता का ढोंग रचाते हैं कुछ बुद्धिजीवी
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जवाब देंहटाएंDharm sirf apni kamjori ko chhupane ka jariya hai,,, jahan hum kamjor pad jate hai wahan ishwar ki marji kah kar taal dete hai... main jaanana chahta hun ki agar bhagwaan ki marji se hi sabkuchh hota hai to fir bekaar mein humne kasaab aur afjal guru ko pakad rakha hai aur kayi kaidiyon ko jo jail mein suraksha prapt kar rahe hai... akshardham, delhi, mumbai ya aur koi bhi ghatna bhagwaan ki marji se hui hai... to dosh fir sarkaar ya aatankvaadioyon ko... kya bhagwaan sirf achhe kaam ka hi teka le rakhe hai...
जवाब देंहटाएंThanks for sharing...
जवाब देंहटाएंI loved it.
खूबसूरत प्रस्तुति ||
जवाब देंहटाएंबधाई ||
नास्तिक शब्द का संधि-विच्छेद करके देखिए। उसमें न उपसर्ग स्वरूप है। अर्थात्,मूल शब्द आस्तिक अथवा अस्ति ही है,जिसका अर्थ है-होना।
जवाब देंहटाएंबहुधा,ईश्वर को व्यक्ति समझने वाले लोग ही खुद को आस्तिक बताते हैं अथवा नास्तिकता की बहस में पड़ते हैं। धर्मकथाओं के वर्णन की भांति,ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है।
एक अच्छी बात यह है कि आस्तिकता का ढोंग करने वालों की तुलना में नास्तिक ज्यादा अच्छे हैं क्योंकि उनके ही आस्तिक होने की संभावना सर्वाधिक होती है।
सुंदर ब्लॉग समीक्षा आभार ....
जवाब देंहटाएंआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
जवाब देंहटाएंअधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
kisi bhi baat ko accept ya reject karne se pehle uske do hi nahi sabhi pehluon ko bilkul theek se samajhna zaruri hai.. bahut zaruri...
जवाब देंहटाएंisliye ek badhiya blog...
सही ही है किसी भी तथ्य के दो पहलों होते हैं ...पक्ष में या विपक्ष में .....परन्तु इससे यह बात तो निश्चित होती है कि वह 'तथ्य' उपस्थित है इसीलिये तो बहस हो रही है ....
जवाब देंहटाएं-----नास्तिक लोग कहते हैं कि मैं ईश्वर को नहीं मानता...ईश्वर कहीं नहीं है....तो वह ईश्वर का स्मरण कर रहा होता है ...यदि कोई कहीं है ही नहीं तो उसे नकारा कैसे जा सकता है .... बस उसे माना या न माना जा सकता है....
जकिर भाई, समीक्षा के लिए आपकी दृष्टि की मैं सराहना करता हूं.
जवाब देंहटाएंअसल में ‘नास्तिक’ शब्द का ईश्वर की अवधारणा से कोई लेना-देना नहीं है. दार्शनिकों का एक वर्ग रहा है, जो वेदों को अनादि, अनश्वर, स्वतः प्रामाण्य और आप्तवचन मानता रहा है. इस धारा के प्रवर्त्तन के फलस्वरूप जो दर्शन सामने आए, वे आस्तिक कहलाए. जबकि वेदों को मनुष्यकृत तथा अप्रामाण्य मानने वाले दर्शनों को ‘नास्तिक’ माना गया. भारतीय दर्शन परंपरा में ऐसे दर्शन हैं, जो ईश्वर को नहीं मानते, परंतु उन्हें ‘आस्तिक’ कहा गया है, क्योंकि वे वेदों को आप्तवचन मानते हैं. ‘न्याय’ और ‘वैशेषिक’ दर्शन इसी परंपरा के हैं. कालांतर में जब दर्शन की जगह धर्म का संयोग हुआ और उसने राजनीति के साथ गठजोड़ कर समाज के बहुसंख्यक वर्ग के श्रम-संसाधनों पर अनाधिकार कब्जा कर, उसका शोषण करना आरंभ किया तो समाज के बहुसंख्यक वर्ग को फुसलाए रखने, शोषण के वास्तविक कारणों से उसको अनभिज्ञ बनाए रखने के लिए दर्शन की जगह धर्म ने ले ली. स्वार्थी लोग उसके सहारं एक के बाद एक पाखंड रचते गए. निश्चित रूप से धर्म के कुछ लाभ भी हुए. विश्व-इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब धर्म के नाम पर लोगों ने एकजुट होकर आततायी सत्ता का मुकाबला किया तथा अपनी सभ्यता और संस्कृति को बचाए रखा. लेकिन कुल मिलाकर धर्म सामाजिक शोषण और बौद्धिक जड़ता का ही बहाना बना. डाॅ अनवर जमाल मानव स्वभाव के जिस सामान्यीकरण की ओर संकेत कर रहे हैं, वह असल में ‘अध्यात्म’ है. जिसका सीधा संबंध जीवन, बृह्मांड आदि से जुड़ी मनुष्य की स्वाभाविक जिज्ञासाओं से है. अध्यात्म दार्शनिक ‘प्रत्यय’ है, इसका आस्तिक, नास्तिक अथवा किसी धर्म विशेष से कोई संबंध नहीं है. किसी भी व्यक्ति की जीवन और सृष्टि को लेकर कुछ धारणाएं हो सकती हैं. यह उसके विवेक की पहचान है. उसके आधार पर उसकी आस्था अथवा अनास्था का निर्धारण करना अनुचित है.
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जवाब देंहटाएंकोई समीक्षा ब्लॉग जगत में किसी सार्थक संवाद का कारक भी बन सकती है, ऐसा होते हुए संभवत: पहली बार देख रहा हूं। इसी बहाने आस्तिकता और नास्तिकता के जुडे अनेक विचार सामने आए हैं, जिनमें बहुत सी बातें पहली बार सुनने-पढ़ने को मिली हैं।
जवाब देंहटाएंओमप्रकाश जी, आपका इस ब्लॉग पर आना विशेष रूप से अच्छा लगा। अपनी गम्भीर दृष्टित से लाभान्वित कराने के लिए, आभार।
हमें किसने बनाया?
जवाब देंहटाएंयदि इसका उत्तर है "हम खुद ही क्रियेट हुए " है तो हम अपनी मर्जी से क्यों नहीं जीवन गुज़ारते? क्यों हमें मौत आ जाती हैं? तो क्यों कोई इन्सान लंगड़ा / लुला/ काना / मतिमंद / कमजोर / बलवान / गोरा व काला / बद-सुरत व खुबसूरत पैदा हुआ?
उसी तरह यदि उत्तर है " मॉ ने बनाया " है तो फिर भी यही प्रश्न खड़े होते है, और साथ में यह प्रश्न भी कि, फिर कोई मॉ बांझ क्यों होती ? कोई मॉ लड़के के लिए क्यों तड़प जाती है, जबकि उसे लड़कियां बहुत हैं ?
यदि कोई इसे साईन्टेफीक रिझ़न कहता है तो साईन्स के तरक्की के पश्चात् इसके द्वारा इसका इलाज क्यों संभव नहीं ?
इस संसार में कई जिव आज भी है लेकिन हम उन्हें देख नही पाते, जब निर्मिति को हम देखने ताकत नहीं रख सकते तो क्या निर्माता को देखना संभव है ?
मनुष्य हो या कोई और, हम देखते हैं कि कभी कभी वह अचाकन से मर (Death ) जाता, जो हमारे सामने चल-फिर रहा था वह अब पुर्ण खामोश हो गया है, क्यों? क्या उसके शरीर की आत्मा नहीं निकली? यदि कोई यह कहे कि वे आत्मा नहीं तो फिर उसके शरीर का इलाज करके उसे वापस अपनी स्थिति में क्यों कोई लाता नहीं? यदि कोई आत्मा तो कहे लेकिन इश्वर नहीं है कहता तो फिर उस आत्मा को रोकने का उपाय क्यों नहीं किया गया?
मनुष्य द्वारा बनाई गई कोई मशीन जैसे फेन,ऐरोप्लँन, इत्यादि को नहीं मालूम के उसका बनाने वाला कौन हैं? कैसा दिखता है? है भी या नहीं? क्योंकि उसके प्रोग्राम में जो चिज़ ऐड होगी बस वह वही तक काम करेंगी।
बिना संचालक के मशीन नही चलती, सोसायटी नहीं चलती,देश नहीं चलता तो पुरा ब्रह्माण्ड कैसे चलेगा??
और भी बहुत example है ईश्वर के अस्तित्व के...