‘ओझा उवाच’ यानि जिन्‍दगी की बात!

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  ('जनसंदेश टाइम्स', 29 जून, 2011 के 'ब्लॉगवाणी' कॉलम में प्रकाशित ब्लॉग समीक्षा) बच्‍चा जब पैदा होता है, तो छल-फ...

 ('जनसंदेश टाइम्स', 29 जून, 2011 के
'ब्लॉगवाणी' कॉलम में प्रकाशित ब्लॉग समीक्षा)
बच्‍चा जब पैदा होता है, तो छल-फरेब और ऊँच-नीच से परे होता है। उसके लिए जिंदगी कुदरत का दिये हुए एक तोहफे की तरह होती है। किसी ऑटोमैटिक सिस्‍टम के तहत उसकी देखभाल, खानपान, रहन-सहन की सारी व्‍यवस्‍था पहले से मौजूद रहती है। दुनिया के झमेलों से दूर रहकर वह सिर्फ खेलता है और खाता-पीता है। लेकिन इसके साथ ही वह साथ वह इस अजूबी दुनिया को देखता और समझता भी जाता है। जैसे-जैसे उसकी समझ विकसित होती है, वैसे-वैसे उसे दुनिया की पहचान होती जाती है। तब उसे लगता है कि यह दुनिया वास्‍तव में वैसी है नहीं, जैसी कि दिखती है। दुनिया बाहर से जितनी सरल, सहज और मिलनसार प्रतीत होती है, दरअसल अंदर से यह उतनी ही जटिल और क्रूर है। ऐसे में उसके सामने दो ही विकल्‍प होते हैं या तो वह दुनिया को भाड़ में झोंक दे और अपने मस्‍तमौला अंदाज में जिंदगी को जीता रहे, या फिर वह भी दुनियावालों की तरह हो जाए, भीतर से चालाक और शातिर किन्‍तु ऊपर से बेहद मिलनसार और सरल।

हम जब अपने चारों ओर नजर डालते हैं, तो हमें यह दुनिया ऐसे ही लोगों से भरी हुई दिखाई पड़ती है, जहाँ संवेदनाओं का कोई मूल्‍य नहीं होता और मानवता कोई अर्थ नहीं रखती। लगता है कि जैसे इस दुनिया में सब कुछ स्‍वार्थ और षडयंत्र से ही परिचालित हो रहा है। ऐसे में कभी-कभी दम घुटता सा प्रतीत होता है और साँसे थमती सी। लेकिन तभी सहसा कोई मलय पवन का झोंका सा सामने से आकर टकराता है और हमारी धारणा खण्‍ड-खण्‍ड कर जाता है। और तब सामने खड़ी दिखती है मुस्‍कराती हुई जिंदगी। जिंदगी के ऐसे ही मुस्‍कराते स्‍वरूप का एक नाम है ‘ओझा उवाच’ (http://uwaach.aojha.in)।

यह कोई झाड़-फूँक करके दु:ख-तकलीफ को दूर भगाने का दावा करने वाले किसी ढ़ोंगी-पाखण्‍डी का ब्‍लॉग नहीं है, यह उस शख्‍श के ब्‍लॉग का नाम है, जो भौतिकता के चरम पर पहुँच चुके न्‍यूयॉर्क जैसे शहर में रहता है, लेकिन इसके बावजूद स्‍वयं को भारत माँ का बेटा कहता है। उस सीधे, सरल और दिलचस्‍प व्‍यक्तित्‍व का नाम है अभिषेक ओझा। बलिया, उत्‍तर प्रदेश में जन्‍में और राँची, झारखण्‍ड में पले-बढ़े अभिषेक बचपन से पढ़ने के शौकीन रहे हैं। वे अपनी इस रूचि को एक ऐसी बीमारी मानते हैं, जिसका आज तक इलाज नहीं खोज पाए हैं। यही कारण है कि रोजी-रोटी, घूमने-फिरने और फिल्‍मों के बाद उनके पास जो भी समय बचता है, वे उस पुस्‍तकों में खर्च करना पसंद करते हैं। वे ब्‍लॉग जगत में आने का श्रेय भी अपने पठन-पाठन के शौक को देते हैं और इसे अलग-अलग तरह के लोगों और क्षेत्रों के बारे में बताने वाले जरिये के रूप में लेते हैं।

अपनी जिंदगी को किसी दार्शनिक की तरह देखते हुए अभिषेक अक्‍सर बुदबुदा उठते हैं: ‘किस्मत अब तक जहाँ भी ले गई... लगता है उसी के लिए बना था।’ बावजूद इसके वे स्‍वयं को एक आम इंसान से अधिक कुछ नहीं मानते। यही कारण है कि उनके ब्‍लॉग पर जीवन के वे छोटे-छोटे किस्‍से पढ़ने को मिलते हैं, जिन्‍हें अति साधारण समझ कर हम प्राय: अनदेखा कर जाते हैं। अभिषेक उन्‍हीं किस्‍सों को अपनी पूँजी बताते हैं और बेहद अपनेपन के साथ हमें सुनाते हैं। एक ओर उनके इन किस्‍सों में अपने आप से ऊब चुके आम आदमी की रूकी-रूकी की लाइफ है, तो दूसरी ओर सम्‍बंधों की ठन्‍डी पड़ती ऊष्णता। दूसरों को दोष देने एवं स्‍वयं को तुर्रमखाँ समझने की मानवीय प्रवृत्ति को उन्‍होंने बहुत करीब से देखा है। यही कारण है कि जहाँ उन्‍हें मौका मिलता है, वे मनुष्‍य के इस स्‍वाभाविक गुण की खिंचाई कर उठते हैं: 'सालों ने देश बर्बाद कर रखा है। मैं होता तो दिखा देता कैसे बदला जाता है सिस्टम दो दिनों में... सब के सब साले करप्ट हैं!'

गणित में सामान्‍य से अधिक रूचि रखने वाले अभिषेक मानवीय कमजोरियों को बहुत बारीकी से देखते हैं। वे उन्‍हें रेखांकित करते हुए वे कहते हैं कि मनुष्‍य के पास जो है, उससे वह दूर-दूर भागता है, लेकिन दूसरे के पास जो है वह उसे जरूर चाहिए। अभिषेक अक्‍सर फुर्सत के लम्‍हों में मानवीय रिश्‍तों को भी समीकरणों की भांति हल करते से नज़र आते हैं। और इस प्रयत्‍न में उनके हाथ अनायास ही जीवन के कुछ महत्‍वपूर्ण सूत्र भी लग जाते हैं- ‘अपनी भूल/गलती कभी गलती नहीं लगती’, ‘किसी के बारे में सोची गयी बातें और वास्तविकता में बहुत फर्क होता है।’ सूक्तियों की मानिन्‍द इन वचनों को पाठकों तक पहुँचाने वाले अभिषेक अपनी बात कहने के लिए कृत्रिमता से परहेज करते हैं और अपनी माटी से जुड़े देशज अनुभवों को बेबाक रूप में पाठकों के समक्ष रखते हैं। इस क्रम में वे अक्‍सर भाषा के प्रति लापरवाह से भी नजर आते हैं। लेकिन यही बिंदास अभिव्‍यक्ति अभिषेक की मौलिक पहचान है। और शायद इसी कारणवश उनके ब्‍लॉग पर जिंदगी अपने सम्‍पूर्ण कलेवर में विद्यमान है।
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COMMENTS

BLOGGER: 14
  1. अभिषेक जी के लेख पढ़ना बहुत ही अच्छा लगता है।

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  2. रटी रटाई लीक पीटने वालों की भीड में अभिषेक ओझा का मौलिक और रचनात्मक लेखन पढना वाकई सुखद है।

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  3. अभिषेक हिन्दी ब्लाग जगत में मेरी पहली पसंद के ब्लागरों में से एक हैं।

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  4. सही है,अभिषेक जी की लेखनी को मैं भी बहुत पसंद करता हूँ.

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  5. बेनामी6/29/2011 8:05 pm

    अभिषेक जी के व्यक्तित्व की जानकारी देता आलेख
    आभार

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  6. ओझा जी ने ब्लॉग पर कई लोगों में गणित का प्यार जगा दिया है.

    ड्रामा द ग्रेट डिक्टेटर्स

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  7. अभिषेक ओझा जी के बारे में आपने जो भी लिखा है उससे एकदम सहमत । एक अलग सी मुस्कुराहट आ जाती है चेहरे पे ये लेख पढ कर ।

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  8. अभिषेक का यहाँ जिक्र देख कर अच्छा लगा.

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  9. ek mahan vyaktitv ka parichaye karane ke liye thanks

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  10. अभिषेक जी का चिट्ठा बेहतरीन चिट्ठो मेम से एक है।

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  11. सुन्दर प्रस्तुति. इस ब्लॉग पर pahle bhi visit करता रहा हूँ,,,,

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  12. व्यक्ति परिचय और उसे प्रगाढ़ और आत्मीय बनाती आपकी पोस्ट के लिए शुक्रिया .

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  13. अब तलक अभिषेक ओझा जी से अपरिचित थे.आपने बखूबी परिचय कराया,शुक्रिया.....

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आपके अल्‍फ़ाज़ देंगे हर क़दम पर हौसला।
ज़र्रानवाज़ी के लिए शुक्रिया! जी शुक्रिया।।

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