('जनसंदेश टाइम्स', 15 जून, 2011 के 'ब्लॉगवाणी' कॉलम में प्रकाशित ब्लॉग समीक्षा) जो चीज मनुष्यों को जानवरो...
('जनसंदेश टाइम्स', 15 जून, 2011 के
'ब्लॉगवाणी' कॉलम में प्रकाशित ब्लॉग समीक्षा)
जो चीज मनुष्यों को जानवरों से अलग करती है, वह है उसकी वैचारिकता। लेकिन ज्यादातर मामलों में यह देखा गया है कि व्यक्ति अपनी वैचारिकी के प्रति रूढ़ होता है। जिस विषय अथवा व्यक्ति के सम्बंध में मनुष्य एक बार जो धारणा बना लेता है, जल्दी से उससे पीछा नहीं छुड़ा पाता। कुछ लोग जहाँ अपनी इस वैचारिक सोच की सीमाओं को विनम्रतापूर्वक स्वीकार करते हैं, वहीं अधिकतर लोग इसके विपरीत आक्रामकता की हद तक स्वयं को सही साबित करने के लिए प्रतिबद्ध दिखते हैं। ऐसे लोग अपनी सोच को अपने व्यक्तित्व के साथ जोंक की तरह चिपका लेते हैं और उसके विखण्डन को अपने व्यक्तित्व पर होने वाले आघात के रूप में देखते पाए जाते हैं। लेकिन इसके साथ ही साथ कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो वैचारिक स्तर पर ज्यादा व्यवहारिक होते हैं। वे वैचारिक विमर्श में न सिर्फ शालीनता का निवर्हन करते हैं, वरन अपने पक्ष में पर्याप्त तर्कों का इस्तेमाल करते हैं और साथ ही साथ विरोधी पक्ष की तार्किक बातों का भरपूर स्वागत भी। तार्किकता से भरपूर एक ऐसा ही ब्लॉग है ‘संवाद घर’ (http://samwaadghar.blogspot.com/)।
‘संवाद घर’ दिल्ली निवासी संजय ग्रोवर का ब्लॉग है। बालगीत, कविता, गजल, कार्टून, सामाजिक लेख एवं व्यंग्य में समान दखल रखने वाले संजय हिन्दी की तमाम पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। ‘खुदाओं के शहर में आदमी’ (गजल संग्रह) व ‘मरा हुआ लेखक सवा लाख का’ (व्यंग्य-संग्रह) के लेखक के रूप में स्थापित सजंय 15-16 वर्ष की उम्र में ‘निर्माण’ नाम हस्तलिखित बाल पत्रिका का संपादन, चित्रांकन भी कर चुके हैं। बावजूद इसके उन्हें प्रकाशन हेतु बार-बार रचनाएँ भेजना नए सिरे से संघर्ष करने जैसा लगता है। यही कारण था कि जब उन्हें ब्लॉग के बारे में पता चला, तो उन्हें लगा कि उनके भीतर के लेखक का नवीनीकरण/ पुनर्जन्म हो गया। वे ब्लॉग को विज्ञान और तकनीक द्वारा प्रदत्त (अगर उसके पास एक अदद पीसी और ब्रॉडबैण्ड कनेक्शन है) एक अखबार के रूप में देखते हैं, जिसकी पहुँच दुनिया के हर कोने तक है। संजय चमत्कार को नहीं मानते, पर बावजूद इसके वे ब्लॉग की खूबियों के कारण उसे तकनीक के दिये एक वैज्ञानिक चमत्कार के रूप में देखते हैं।
संजय घोषित रूप में एक नास्तिक हैं और ‘नास्तिकों का ब्लॉग’ के प्रमुख लेखक भी। वे विचारों और परम्पराओं को तर्कों की कसौटी पर कसने के हिमायती हैं और अतार्किक बातों के घोर विरोधी। साथ ही ये यह भी मानते हैं कि अगर आपके पास नए तर्कों, नए अंदाज़ के साथ अपनी बात समझाने की क्षमता है, तो विपरीत विचारों के लोग भी उसे सुनने को तैयार हो जाते हैं। इसके समर्थन में वे अपने ब्लॉग की चर्चित पोस्टों ‘नास्तिकता सहज है’, ’उदारता क्या है’ व ‘क्या ईश्वर मोहल्ले का दादा है?’ का उदाहरण देते हैं। वे उन सवालों से टकराने में बेहद रूचि रखते हैं, जिनके सहारे अक्सर आस्तिक लोग ईश्वर होने का प्रमाण देते हैं। वे ईश्वरवादियों को चुनौती देते हुए कहते हैं कि चूंकि दुनिया में इतना ज़ुल्म, अत्याचार, अन्याय और असमानता है, जोकि भगवान के रहते संभव ही नहीं था, अतः इससे स्वयं सिद्ध है कि भगवान नहीं है। साथ ही वे आस्तिकों पर यह कहकर व्यंग्य करने से भी नहीं चूकते कि भगवान को मानने वालों की भी न मानने वालों की तरह मृत्यु हो जाती है, इसका मतलब भी यही निकलता है कि भगवान नहीं है।
भाग्यवादियों के कट्टर आलोचक संजय जीवन के व्यवस्थित रूप के हामी हैं और अपने ब्लॉग को भी अपने घर के रूप में देखते हैं। यही कारण है कि वे अपने ब्लॉग को भी मुख्य द्वार, बैठक, मेरा कमरा, खिड़कियाँ, आंगन और पतली गली के रूप में सजाते हैं। इसके साथ ही साथ वे अपनी रचनाओं को स्तंभों और प्रतीक-चित्रों के तहत प्रकाशित करना पसंद करते हैं। जैसे ‘व्यंग्य-कक्ष’ में व्यंग्य, ‘ग़ज़ल-गैलरी’ में ग़ज़ल, ‘सवालचंद के चंद सवाल’ में प्रश्नाकुल करने वाले महत्वपूर्ण मुद्दे, ‘छोटा कमरा बड़ी खिड़कियां’ में कम शब्दों में बड़ी बात और दूसरों की महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ।
संजय स्वस्थ संवाद और बराबरीपूर्ण जीवन के समर्थक के रूप में जाने जाते हैं। यही कारण है कि वे सिर्फ अपने विचारों को ही नहीं, बल्कि अक्सर अपने ब्लॉग पर आने वाली टिप्पणियों को भी पोस्ट के रूप में स्थान प्रदान करते हैं और उसपर स्वस्थ बहस का आवाहन करते हैं। वे उन समस्त सामाजिक मुद्दों पर बहस के हामी हैं, जो व्यक्ति के जीवन से जुड़े हैं और प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से समाज को प्रभावित करते हैं। वे समयानुकूल और विषयानुकूल विधा का चुनाव करने की दृष्टि से भी खरे उतरते हैं और अक्सर अपने ब्लॉग पर गजल, कविता, लेख एवं व्यंग्य के द्वारा विविध रंग भरते हैं। संक्षेप में अगर कहें तो ‘संवाद घर’ ब्लॉगिंग का एक सार्थक स्वरूप दिखाता है शायद यही कारण है कि वह हर वैचारिक और तार्किक व्यक्ति को बेहद भाता है।
बहुत - बहुत धन्यवाद ...जाकिर भाई .
जवाब देंहटाएंइन दिनों एक पुस्तक को पूरा कर रहा हूँ -- "बाल साहित्य : सृजन और नेपथ्य ".नवीनतम सूचनाएं भेजिए .
स्वागतम
अच्छा आलेख है।
जवाब देंहटाएंजाकिर भाई संजय जी के बारे में जानकारी दे के लिए आभार
जवाब देंहटाएंहालाँकि मैं संवाद घर से परिचित था फिर भी आपका शुक्रिया, आपका प्रयास सराहनीय होता है
जवाब देंहटाएंAchcha parichay diya aapne ..... abhar
जवाब देंहटाएंSundar post dwara sundar parichay
जवाब देंहटाएंअच्छा आलेख/अच्छी समीक्षा
जवाब देंहटाएंbehtreen Aalekh ...........
जवाब देंहटाएंअच्छी समीक्षा...
जवाब देंहटाएंsundar post shukriya dost :)
जवाब देंहटाएंसंजय भाई को नियमित पढ़ना होता है और ‘खुदाओं के शहर में आदमी’ संग्रह भी मेरे पास है...यहाँ यह आलेख देख प्रसन्नता हुई.
जवाब देंहटाएंइंसान की मौत ही बताती है कि इस दुनिया में एक व्यवस्था काम कर रही है। मौत हरेक इंसान को आती है। इसी तरह इंसान की पैदाइश एक व्यवस्था का पता देती है। उसी व्यवस्था को जानने के बाद आज वैज्ञानिक कृत्रिम प्रजनन आदि में सफल हो पाए हैं। यह भी एक सर्वविदित तथ्य है कि व्यवस्था ख़ुद से कभी नहीं होती बल्कि उसे स्थापित करने वाला और उसे बनाए रखने वाला कोई होता ज़रूर है। प्रकृति की व्यवस्था को देखकर हम आसानी से जान सकते हैं कि यह सुव्यवस्थित सृष्टि किसी सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ हस्ती का काम है, इसी को ईश्वर, अल्लाह और गॉड कहते हैं। जो इसे मानता है और उसके विधान का पालन करता है उसे आस्तिक कहते हैं और जो इस सत्य का इन्कार करता है उसे नास्तिक कहते हैं। सत्य का इन्कार करने वाला कभी अपनी असल मंज़िल को पा नहीं सकता।
जवाब देंहटाएंयह बात सभी नास्तिकों को जान लेनी चाहिए।
विश्व शांति और मानव एकता के लिए हज़रत अली की ज़िंदगी सचमुच एक आदर्श है
अच्छा आलेख....
जवाब देंहटाएंअच्छा आलेख है।
जवाब देंहटाएंमै पहली बार आपके ब्लाग पर आया आप बेहद अच्छा कार्य कर रहे है आगे भी आपके माध्यम से अच्छे लेखको से परिचय होता ही रहेगा
जवाब देंहटाएंसंवाद घर के खिड़की दरवाज़े दिखलाए .हर दरीचे से ठंडी हवा आई .कसाव दार प्रस्तुति व्यक्ति चित्र को साकार करती .बधाई .
जवाब देंहटाएंआपका लेख पढ कर यहां कुछ लिखने के पूर्व मैंने Sambaadghar.blogspot.com जाकर नज्म पढी । आपके आलेख से अन्य लेखकों वाबत भी जानकारी मिली । धन्यवाद
जवाब देंहटाएंis blog se parichit the hi..
जवाब देंहटाएंaap ke dara kee gayee sameeksha achchhee lagi.
......
abhaar.
बहुत सुंदर समीक्षा,
जवाब देंहटाएंविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
बेहतर होता कि जलाल जी कोई टिप्पणी करने से पहले पूरी पोस्ट पढ़ लेते। लिंक दे रहा हूं:
जवाब देंहटाएंक्या ईश्वर मोहल्ले का दादा है !?
http://samwaadghar.blogspot.com/2009/06/blog-post_16.html
छोटा कमरा बड़ी खिड़कियां
http://samwaadghar.blogspot.com/2009/09/blog-post_16.html
नास्तिकता सहज है
http://nastikonblog.blogspot.com/2010/04/blog-post_24.html
अलवर जमाल साहब कहते या लिखते कम, घोषणाएं या आकाशवाणियां ज़्यादा करते हैं। तर्क और यथार्थ से इन्हें ख़ासी नफ़रत मालूम होती है। फ़रमाते हैं:
जवाब देंहटाएं"प्रकृति की व्यवस्था को देखकर हम आसानी से जान सकते हैं कि यह सुव्यवस्थित सृष्टि किसी सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ हस्ती का काम है,"
कैसे भाई ? कौन-सी आसानी से ? इस तथाकथित ‘आसानी’ के बारे में खुलकर बताएंगे ज़रा ?
आगे फ़रमाते हैं:
"और जो इस सत्य का इन्कार करता है उसे नास्तिक कहते हैं।"
जिसके होने के कोई भी सबूत नहीं उसे ये ताल ठोंककर ‘सत्य’ घोषित किए दे रहे हैं।
आगे कह रहे हैं:
"सत्य का इन्कार करने वाला...."
यानि जो इनके ‘सत्य’ को ‘सत्य’ न माने वह ‘सत्य’ से इंकार करता है। अद्भुत सोच है।
अभी और देखिए:
"...कभी अपनी असल मंज़िल को पा नहीं सकता। "
अब इनसे पूछिए यह ‘असल मंज़िल’ होती क्या है ? क्या दूसरों की ‘असल मंज़िलें’ भी इनकी डायरेक्टरी में दर्ज़ हैं ? इन्हें ख़ुद मिल गयी है ‘असल मंज़िल’ ? अगर मिल गयी है तो अब किसका टाइम खोटा कर रहे हैं ?
और भी देखिए:
"यह बात सभी नास्तिकों को जान लेनी चाहिए।"
क्या धमका रहे हैं ? अपने-आप दो-चार टेढ़ी-सीधी बाते लिखीं, फ़िर अपने-आप निष्कर्ष निकाले और धमकीनुमा पटाक्षेप कर दिया।
सच तो यह है कि इनकी अंतिम आठ पंक्तियां सिर्फ़ आत्म-मुग्धता और अहंकार का परिचय देतीं हैं। अगर इन्हें ही उदाहरण मानकर धार्मिक व्यक्ति के बारे में कोई राय क़ायम करनी हो तो जो हाथ लगेगा, निराशाजनक तो होगा ही..