('जनसंदेश टाइम्स', 23 फरवरी, 2011 में 'ब्लॉगवाणी' कॉलम में प्रकाशित ब्लॉग समीक्षा) प्रथम गणतंत्र दिवस (26 जनवरी, 19...
('जनसंदेश टाइम्स', 23 फरवरी, 2011 में 'ब्लॉगवाणी' कॉलम में प्रकाशित ब्लॉग समीक्षा)
प्रथम गणतंत्र दिवस (26 जनवरी, 1950) की पूर्व संध्या पर अपने विचारों को व्यक्त करते हुए बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने भारतीय समाज के संदर्भ में कहा था कि कल से हम विरोधाभासों के युग में प्रवेश करने जा रहे हैं। एक तरफ़ हमारा संविधान लागू होगा जो स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा, न्याय और सामाजिक समरसता के सिद्धांतो पर बना हुआ है और दूसरी तरफ़ तमाम वर्गों में बँटा और जाति, धर्म, संप्रदाय, परंपरा आदि से पैदा हुई कुरीतियों से अँटा पड़ा समाज होगा जो इन सिद्धांतों को अपनाने में मुश्किल पैदा करेगा।
संवैधानिक अधिकारों और सामाजिक कुरीतियों के बीच चलने वाली इस रस्साकस्सी को सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी के ब्लॉग ‘सत्यार्थ मित्र’ (http://satyarthmitra.blogspot.com/) पर भलीभांति देखा जा सकता है। सिद्धार्थ पेशे से भले ही महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा, नागपुर में बतौर आंतरिक सम्प्रेक्षक का कार्य करते हों, पर उनका हृदय सच्चे अर्थों में एक संवेदनशील भारतीय है। ‘सत्यार्थ मित्र’ पर इसके प्रमाण जगह-जगह देखे जा सकते हैं।
वर्धा विश्वविद्यालय में धर्मनिरपेक्षता पर आयोजित चर्चा को उन्होंने अपने ब्लॉग पर ‘सांप्रदायिकता और तुष्टिकरण के बीच पिसता आम मुसलमान’ शीर्षक से जगह दी है। अपनी इस रपट में वे गांधी संग्रहालय पटना के सचिव डॉ. रज़ी अहमद के बहाने भारत में धर्मनिरपेक्षता के तथाकथित मॉडल को कटघरे में खड़ा करते हुए कहते हैं ‘यदि हम आज़ाद भारत के इतिहास पर नज़र डालें तो शुरुआत से ही धर्मनिरपेक्षता का उल्लंघन हमारे हुक्मरानों द्वारा किया जाता रहा है। राजाराम मोहन राय ने जो सबसे पहला स्कूल रामपुर में खोला उसका नाम ‘हिंदू स्कूल’ रखा था लेकिन उन्हें भारतीय पुनर्जागरण का अग्रदूत कहा गया। सन् 1916 ई. में बनारस हिंदू वि.वि. की स्थापना करने वाले मालवीय जी को ‘महामना’ की उपाधि दी गयी और शिक्षा का सबसे बड़ा प्रचारक कहा गया, लेकिन 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी स्थापित करने वाले सर सैयद को भारत की एकता का दुश्मन मान लिया गया।’
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी गांव की मिट्टी से जुड़े हुए व्यक्ति हैं। यही कारण है कि उनके भीतर बसा हुआ ‘आम आदमी’ सर्वत्र अपने जैसे चरित्रों की खोज करता दीख पड़ता है। उनकी यह खोज ‘राम दुलारे जी नहीं रहे’ और ‘ठाकुर बाबा’ में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। रामदुलारे एक प्रतीक पुरूष है, जो प्रत्येक गांव में पाया जाता है। लोगों को परेशान करने में उसे आनन्द आता। यह उसका ‘फुलटाइम जॉब’ है। रामदुलारे की व्याप्ति एक प्रकार से सर्वकालिक है। वह हर काल हर क्षेत्र में किसी न किसी रूप में मौजूद रहा है। लोगों ने उसकी मौजूदगी को एक प्रकार से अपनी नियति मान ली है। यही कारण है कि उसके निधन पर लोगों को एक प्रकार का झटका सा लगता है और वे बाद की स्थितियों की कल्पना करने लगते हैं: ‘उनके चले जाने के बाद गाँव में अजीब सा खालीपन आ जाएगा। उनके द्वारा थाने में की गयी शिकायतों की पोटली भी गठियाँ कर टांग दी जाएगी। गाँव में ‘सम्मन’ भी नहीं आएगा। पड़ोसी लम्बी तान कर बेखटक सोने लगेंगे। उनका साहचर्य खो देने के बाद उनकी पत्नी भी तत्काल बूढ़ी हो जाएंगी। फिर उनके सूने घर की खाली जमीन पर कब्जा करने वालों को कौन रोकेगा? कुछ लोग डरने लगे हैं कि कहीं उनका प्रेत न आ जाय…।’ प्रेमचंद की कहानियों सा एहसास कराता यह सामाजिक यथार्थ लोगों को आकर्षित ही नहीं करता, बांधता भी है। समाज के इस यथार्थ को उनकी ‘ठाकुर बाबा’, ‘तिल ने जो दर्द दिया’ एवं ‘बाप बेटी के बीच फंसी एक उलझन’ जैसी पोस्टों (लेखों) में भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
मशीनीकरण ने जहां एक ओर मनुष्य की सुख समृद्धि में इजाफा किया है, वही उसने मनुष्यों को कई ऐसे कार्यों से निजात भी दिलाई है, जिसमें जानवरों की तरह उसका दोहन किया जाता था। गांवों में धान की कुटाई और गेंहूँ की पिसाई भी ऐसे ही हाड़तोड़ कार्य हुआ करते थे। अपनी पोस्ट ‘ऎ बहुरिया साँस लऽ, ढेंका छोड़ि दऽ जाँत लऽ’ में यूँ तो सिद्धार्थ लोकोक्तियों एवं कहावतों की बात करते हैं, पर संकेत रूप में वे यह भी बता जाते हैं कि धान की कुटाई के लिए ‘ढ़ेंका’ से जूझ रही बहू को जब भी थोड़ा आराम दिया जाता था, तो उसे गेंहू पीसने के लिए हाथ से चलने वाली चक्की ‘जाँता’ में जोत दिया जाता था। किन्तु अब न वे मशीनें हैं, न वे उक्तियां और न वह मजबूरियां। समय ने सब कुछ बदल दिया है।
पता नहीं यह भी समय का प्रभाव है अथवा बाजारवाद का असर कि हम अपनों और गैरों को कभी एक नज़रिए से देख ही नहीं पाते। दूसरों की ज़रा सी त्रुटि भी हमें पहाड़ जैसी लगती है लेकिन अपनों की पर्वत जैसे गल्ती भी हमें नज़र नहीं आती। मनुष्य की इस सर्वव्यापी कमजोरी को सिद्धार्थ ने ‘सच्चाई की परख सबमें है... पर करते क्यों नहीं? में बखूबी उठाया है। वे अपनी एक अन्य पोस्ट ‘ये प्रतिभाशाली बच्चे घटिया निर्णय क्यों लेते हैं?’ में सामाजिक बदलावों को नये नज़रिये से प्रस्तुत करते हैं। वे इंजीनियरिंग के विद्यार्थियों की मैनेजमेंट एवं आई0ए0एस0 में बढ़ती रूचि को नकारात्मक प्रवृत्ति बताते हुए कहते हैं- ‘सरकार का करोड़ो खर्च कराकर ये अर्जित ज्ञान का प्रयोग वैज्ञानिक परियोजनाओं के निर्माण और क्रियान्वयन के लिए नहीं करेंगे। ये अपनी प्रतिभा का प्रयोग उत्कृष्ट शोध द्वारा आधुनिक मशीनों के अविष्कार, निर्माण और संचालन की दक्ष तकनीक विकसित करने में भी नहीं करेंगे। इनकी निगाह या तो सरकारी प्रशासनिक कुर्सी पर है या आगे मैनेजमेण्ट की पढ़ाई करके निजी क्षेत्र के औद्योगिक/व्यावसायिक घरानों मे मैनेजर बनकर मोटी तनख्वाह कमाने की ओर है जिसकी अर्हता कोई सामान्य कला वर्ग का विद्यार्थी भी रखता है। यह एक नये प्रकार का प्रतिभा पलायन नहीं तो और क्या है?’
सिद्धार्थ कहीं-कहीं एक दर्शनशास्त्री की भूमिका में नजर आते हैं, तो कहीं-कहीं एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले वैज्ञानिक के रूप में। और कहीं-कहीं उनके यह दोनों रूप एक साथ देखे जा सकते हैं। ‘लो मैं आ गया…सिर मुड़ा कर!’ एक ऐसी ही महत्वपूर्ण पोस्ट है, जिसमें उन्होंने तर्क और आस्था के अन्तर्दन्द्व को बखूबी चित्रित किया है। वे अपने बाबाजी के निधन पर किये जाने वाले कर्मकाण्डों में घिर जाने पर अपने विचारों के प्रकट करते हुए कहते हैं- ‘मैं अपनी पढ़ाई और ज्ञान मन में दबाए रह गया कि ईसा पूर्व छठी-सातवीं सदी में हिन्दू धर्म में प्रचलित कठिन कर्म-काण्डों की वजह से एक आम गृहस्थ पुरोहितों के हाथों किस प्रकार शोषित व प्रताड़ित होता था। मृतक की आत्मा को प्रेत-योनि से छुटकारा दिलाने और पितरों को बैकुण्ठ पहुंचाने के फेर में पड़कर कैसे गरीब परिवार लोभी पुरोहितों के हाथों अपना सर्वस्व लुटा कर भी उन्हें तृप्त नहीं कर पाते थे। मृत्युलोक में जीवनपर्यंत भयंकर पाप व दुष्कर्म करने वाले धनवान सेठ साहुकार, राजे-महराजे व जमींदार किस प्रकार पुरोहितों की निष्ठा खरीदकर खर्चीले यज्ञ-अनुष्ठान व कर्म-काण्ड के बल पर अपने स्वर्गलोक वासी होने के प्रति आश्वस्त हो जाते थे।’
ये आख्यान सिर्फ इस बात का द्योतक नहीं हैं कि उनके भीतर एक संवेदनशील हृदय निवास करता है, ये इस बात का भी प्रमाण है कि धार्मिकता के नाम पर जो परम्पराएं समाज के ऊपर लाद दी गयी हैं, उनके औचित्यों की तलाश की जाने लगी है। भले ही अभी सामाजिक परम्पराओं के दबाव में व्यक्ति इनसे उबर नहीं पाया है, पर आस्था की दीवारें तो दरक ही रही हैं। और ये दरारें कभी न कभी तो अपना असर दिखाएंगी ही।
सिद्धार्थ कविता नहीं लिखते, लेकिन बावजूद इसके उनके भीतर एक कवि हृदय मौजूद है। यही करण है कि वे कभी-कभी रोजमर्रा की जिंदगी से भी भावनाओं को चुरा लेते हैं। मन को झंकृत कर देने वाली उनकी एक ऐसी ही पोस्ट है ‘नहारी, यूँ अचानक’। इस पोस्ट में यूँ तो उन्होंने अपनी सामान्य सी रूटीन लाइफ का जिक्र किया है, जिसमें मंगलवार के व्रत के अवसर पर महरी के द्वारा बनाया हुआ हलवा उन्हें पसंद नहीं आता। इस कारण वे उसे बिना खाए ही आफिस चले जाते हैं। लेकिन इस घटना की परिणति इतनी सुंदर है, जो उसे काव्यात्मक स्वरूप प्रदान कर देती है- ‘लाईन धीरे-धीरे छोटी होती जाती है। आखिरी बुजुर्ग को निपटाने के बाद डिब्बे पर हाथ रखता हूँ। अभी भी गरम है। शायद ‘एल्यूमिनियम फ़ॉएल’ का प्रयोग हुआ है। अर्दली इशारा पाकर पीछे वाले कमरे में पानी लगा देता है। डिब्बे का ढ़क्कन खोलने पर वहाँ फैलने वाली सुगन्ध बता देती है कि इसे ‘रचना’(पत्नी) ने जरूर अपने हाथों से बनाया होगा…’
‘सत्यार्थ मित्र’ की एक अन्य पोस्ट ‘प्रकृति ने औरतों के साथ क्या कम हिंसा की है...?’ सिद्धार्थ की संवेदनशीता का एक अन्य सशक्त प्रमाण है, जिसमें उन्होंने बड़ी बेबाकी से ऋषभ देव शर्मा की कविता ‘औरतें औरतें नहीं हैं’ के बहाने प्रकृति द्वारा प्रदत्त कष्टों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि दु:ख इस बात का नहीं है कि हम इन कष्टों को कम नहीं कर सकते, दु:ख तो इस बात का है कि समाज के नर-नारी अपनी नासमझी, पिछड़ेपन, ईर्ष्या, द्वेष, स्वार्थ, काम, क्रोध, मद, लोभ, उन्माद, महत्वाकांक्षा, आदि विकारों के वशीभूत होकर इन कष्टों को बढ़ाने का ही काम करते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि भले ही आर्थिक अथवा वैज्ञानिक स्तर पर हम प्रगति की असंख्य सीढि़यां चढ़ चुके हों, पर वास्तव में हम सभ्यता के सोपान पर बहुत नीचे खड़े हैं।
सभ्यता के इसी निचले पायदान पर चिपकी होने का एहसास आज की राजनीति भी कराती है। औरों की तरह यह दु:ख सिद्धार्थ को भी सालता है। ‘लोकतन्त्र के भस्मासुर’ में उन्होंने अपनी इस पीड़ा को खुलकर प्रकट किया है। वे कहते हैं कि हमारा समाज आज भी जाति, धर्म, कुल, गोत्र, क्षेत्र, रंग, रूप, अमीर, गरीब, अगड़े, पिछड़े, दलित, सवर्ण, निर्बल, सबल, शिक्षित, अशिक्षित, शहरी, ग्रामीण, उच्च, मध्यम, निम्न, काले, गोरे, स्त्री, पुरुष, आदि के पैमानों पर खण्ड-खण्ड विभाजित है। भले ही हम दिखावे में स्वयं को कितना भी राष्ट्रवादी सिद्ध करें, पर वास्तव में हम राष्ट्र-राज्य की परिकल्पना से कोसों दूर हैं। यही कारण है हमारी राजनीति में बहुमत का अर्थ मात्र दस-पन्द्रह प्रतिशत मतों तक सिमट जाता है। और यही कारण है कि जो राजनेता इस गणित को ठीक से समझ लेता है वह उन्हीं दस-पन्द्रह प्रतिशत मतों के हितों की रक्षा के लिए सारे नियम-कायदे ताख़ में रख देता है।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सारी जनता इन तमाशों की मूक दर्शक भर है। कुलदीप नैयर के शब्दों के बहाने वे समाज को चेताते हुए स्पष्ट रूप में कहते हैं- ‘देश किसी भी नेता से बड़ा है। देश के प्रति ग़लतियाँ मत करो। देश का नेता जब ग़लती करता है तो देश को उसका ख़ामियाजा भुगतना पड़ता है। हम कुछ ऐसा करें कि एक व्यक्ति की ग़लती का ख़ामियाजा देश को न भोगना पड़े।’
अपनी इस संवेदनशीलता और सजगता के कारण सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ‘लोकचेतना के कुशल प्रहरी’ के रूप में हमारे सामने आते हैं। उनका ब्लॉग ‘सत्यार्थ मित्र’ सचमुच अपने नाम को सार्थक करता है।
hardik bdhai
हटाएंregards
बहुत अच्छा लगा इस ब्लॉग के बारे में जान कर.
हटाएंसादर
बढ़िया ब्लॉग,उत्तम समीक्षा।
हटाएंसिद्धार्थ जी को बधाई!!
हटाएंसमतोल समिक्षा!!
बढ़िया प्रयास है आपका! शुभकामनाएं!
हटाएंउत्तम...
हटाएंबढ़िया ब्लॉग,उत्तम समीक्षा...
हटाएंयह पोस्ट बड़ी ही प्रेरक और संतुलित है। आभार।
हटाएंयह पोस्ट बड़ी ही प्रेरक और संतुलित है। आभार।
हटाएंबड़ी ही प्रेरक पोस्ट!!
हटाएंसिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी एक ऊर्जावान रचना कार हैं, उन्हें पढना हमेशा सुखद होता है।
हटाएंहमारी शुभकामनाएं भी स्वीकार करें.
हटाएंएक खूबसूरत ब्लॉग की बेहतरीन समीक्षा ! सिद्धार्थ जी का यह चिट्ठा मेरे प्रिय चिट्ठों में से एक है ! उल्लेख का आभार !
हटाएंअच्छे ब्लॉग की बेहतरीन समीक्षा .....
हटाएंप्रेरक पोस्ट,बेहतरीन समीक्षा ....
हटाएंसिद्धार्थ जी के लेख सदा प्रभावित करते हैं।
हटाएंपढ़ कर अच्छा लगा. धन्यवाद.
हटाएंसिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी उन चंद ब्लोगर्स में से एक हैं जिनके कारण ब्लॉग जगत में रहना अच्छा लगता है !
हटाएंआपने उन्हें याद कर एक बेहतरीन कदम उठाया है ! आभार !!
उत्तम समीक्षा।
हटाएंमेरे कुछ सुझाव हैं -
हटाएंब्लागवाणी नाम अंतर्जाल के मशहूर संकलक की याद दिलाता है -
क्या मानवीय कल्पनाशीलता का इतना टोटा पड़ गया है कि कोई नाय नाम नहीं सूझा ?
यह बात संपादक तक पहुंचायें -एकदम से ब्लागवाणी नाम ले लेना नैतिक नहीं है ,भले ही इसके पक्ष में अनेक तर्क ढूंढ लिए जायं ...
अगर पूरा स्तम्भ नाम बदलना अब भी संभव नहीं है तो ब्लागवाणी के साथ कोई तल्क्खुस -सफिक्स जोड़ दें जैसे अखबार का नाम ही .....या फिर ब्लागवाणी चयनिका ,ब्लागवाणी उद्घोष ,ब्लागवाणी रुझान या ऐसे ही कुछ भी
और इस स्तम्भ में समीरलाल अनूप शुक्ल ज्ञानदत्त पांडे सिद्धार्थशंकर त्रिपाठी आदि बड़े चर्चित नामों की बजाय नवोदित ब्लागरों को तरजीह दें -उन्हें इसकी ज्यादा जरुरत है ....किसी भी काम को तभी हाथ में लें जब उसमें मौलिकता हो और परिश्रम करने का संकल्प हो -इजी माल ज्यादा दिन नहीं चलता ...
बढ़िया ब्लॉग,उत्तम समीक्षा।
हटाएंश्री अरविन्दजी मिश्रा के विचारों से सहमत । आप बगैर किसी बडे परवर्तन के भी इसका नाम ब्लागवाणी की बजाय ब्लागरवाणी भी कर सकते हैं ।
हटाएंSujhavon ke liye dhanyavad.
हटाएंNaam ke samabndh men pahle bhi baat ho chuki kai, ye naam Akhbar kipasand se rakha gaya hai, jise badalna ve uchit nahi samajhte.
Jahan tak bloggers ke chunav ka bat hai, is collum ka maksad hai aam pathkon ko bloging ke bare men batana. Isiliye charchit lekhkon ko variyta di ja rahi hai. iski wajah ye hai ki unka lekhan stareey ke sath niymit bhi rahta hai.
श्री सुशील बाकलीवाल ने बहुत अच्छा नाम सुझा दिया है -ब्लागर वाणी .अब भी यदि अखबार और आपको यह नहीं जंचता तो आप दोनों की बुद्धि-अखबार और स्तंभकार पर तरस ही खाया जा सकता है .....गलती गलती है और वह सौ बार टोकी जायेगी ...
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