ब्लॉग जगत का अजब माहौल हो गया है। बाबरी मस्जिद/रामजन्मभूमि की सुनवाई क्या पूरी हुई, खाए-पिए-अघाए लोग अपनी-अपनी लंतरानी लेकर चालू हो गये...
ब्लॉग जगत का अजब माहौल हो गया है। बाबरी मस्जिद/रामजन्मभूमि की सुनवाई क्या पूरी हुई, खाए-पिए-अघाए लोग अपनी-अपनी लंतरानी लेकर चालू हो गये हैं। एक कह रहा है कि हिंदू सबसे अच्छा धर्म है, दूसरा कह रहा है मुस्लिम। एक अपने को सच्चा मुस्लिम सिद्ध कर रहा है, तो दूसरा अपने को असली हिंदू सिद्ध करने के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगा रहा है, एक अयोध्या को बाबरी मस्जिद सिद्ध करने के लिए नए-नए सुबूत जुटा रहा है, तो दूसरा काबा तक अपनी दावेदारी दर्ज करा रहा है। अभी तक इस जंग में मुख्य रूप दो ही खिलाड़ी आमने सामने थे, पर अब मैदान में नए-नए सूरमा आ गये हैं और एक दूसरे को जमीन चटाने के लिए नाड़ा बाँध कर टूट पड़े हैं।
पहले-पहल मुझे इस सबको देखकर थोड़ा क्रोध आता था, लेकिन बहुत जल्दी समझ में आ गया कि इन चक्करों में हासिल कुछ नहीं होना। यहाँ साले को इतनी बड़ी जिंदगी में अपने माँ-बाप, पत्नी, बच्चे, भाई, बहन को एक बात समझा नहीं सके, और लोग निकले हैं पूरे देश को समझाने। क्या इससे बड़ा अहमकपन हो सकता है?
अभी एक पोस्ट को पढ़ते-पढ़ते मुझे बचपन में पढ़ी हुई एक कविता याद आ गई- 'अगर दो खु़दा होते संसार में?' अरे दो की क्या बात करते हो भाई, यहाँ तो सैकड़ों-हजारों की दावेदारी है। और आश्चर्य यह कि दावेदार खुद तो गायब है और उनके एजेंट आपस में एक दूसरे का ख़ून बहाने पर उतारू हैं। पता नहीं उन खु़दाओं को भी इसकी ख़बर भी है या नहीं? और क्या पता, वे हैं भी या नहीं, वर्ना इतनी जूतमपैजार देखकर क्या वे हस्तक्षेप करने के जमीन पर नहीं आ जाते?
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