Divik Ramesh Ki Bal Kahaniyan
लू लू की निराली दुनिया
बाल कहानियों की दुनिया बड़ी निराली है। कहीं राजा-रानी के रोचक किस्से हैं, तो कहीं परियों के रोमांचक कारनामे। कहीं जासूसी और साहसिक घटनाओं का साम्राज्य फैला हुआ है, तो कहीं विज्ञान का हैरतअंगेज संसार विराजमान है। लेकिन इन सभी जगहों पर बच्चे तेजी से अपनी जगह बना रहे हैं। बाल कहानियों में बच्चों की यह उपस्थिति पिछले कुछ समय से खासी नोटिस की जा रही है। और शायद यही कारण है कि ये कहानियां बच्चों को बेहद भा रही हैं।
‘लू लू’ एक साधारण सा जिज्ञासु बच्चा है, जो बालसाहित्यकार दिविक रमेश की सृजनात्मक मस्तिष्क की कुशल उड़ान है। दिविक रमेश एक प्रतिष्ठित एवं कुशल रचनाकार हैं। उन्होंने जितनी सुंदर बाल कविताएं लिखी हैं, उतनी ही प्यारी बाल कहानियां भी। लू लू उनका एक प्रिय चरित्र है, जो अलग-अलग समय में अलग-अलग रूप में हमारे सामने आता है। दिविक रमेश लू लू का चरित्र गढ़ते हुए बेहद सजगता से काम लेते हैं। वे लू लू से हमारा परिचय एक बेहद बातूनी बच्चे के रूप में कराते हैं। वह जितना बोलता है, उतने ही उसके मन में सवाल होते हैं। यह एक अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है। और इसी के बीच कुछ ऐसा घटित होता है कि कब एक चुलबुली सी कहानी का जन्म हो जाता है, पता ही नहीं चलता।
दिविक रमेश सिर्फ लू लू की बाल सुलभ आदतों के द्वारा उसका चरित्र ही नहीं गढ़ते, जीवन की कटु सच्चाईयों से उसकी मुठभेड़ भी कराते हैं। इसी बहाने ‘लू लू’ का चरित्र विशिष्टता पाता है और पाठकों के मन-मस्तिष्क में छा जाता है। ‘लू लू’ की ये तमाम कहानियां दिविक रमेश की तीन पुस्तकों ‘लू लू का आविष्कार’, ‘मेरे मन की बाल कहानियां’ और ‘बचपन की शरारत’ संग्रहों में संग्रहीत हैं। ये पुस्तकें क्रमशः साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, दिल्ली पुस्तक सदन, नई दिल्ली और आलेख प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हैं तथा पाठकों के बीच सराही जाती रही हैं।
लू लू सीरीज की जिस कहानी की वजह से इस चरित्र पर सबसे पहले मेरा ध्यान गया, वह है ‘सॉरी लू लू’। यह एक बोल्ड कहानी है और यौन शोषण जैसे वयस्कों के लिए आरक्षित विषय को बाल कहानी के दायरे में लाने का साहस जुटाती है। निःसंदेह यह एक बेहद चुनौतीपूर्ण विषय है। इसपर बच्चों के लिए कहानी लिखना एवरेस्ट की चोटी फतेह करने के समान है। पर दिविक रमेश ने जिस सतर्कता के साथ इस विषय का निवर्हन किया है, वह अतुलनीय है।
‘सॉरी लू लू’ कहानी की शुरूआत लू लू के रूठने से होती है। मां उसे आवाज लगाती हैं। वह उसे सुनता है, पर अपनी नाराजगी के कारण अनसुना कर जाता है। लेकिन अंततः मां की प्यारी सी आवाज से उसका दिल पिघल जाता है और वह मां के पास चला जाता है।
घर में उसकी मां की एक सहेली भी आई हुई हैं। लू लू की मां अपनी सहेली को बताती हैं कि आज मेरे बेटे ने बड़ी बहादुरी का काम किया। इसके स्कूल के एक अंकल छोटी सी बच्ची को बहला के सुनसान जगह पर ले जाते हैं और उसे गलत तरह से छूते हैं और परेशान करते हैं। यह देखकर बच्ची सुबकने लगती है और अपने आप को छुड़ाने की कोशिश करती है। लू लू उस बच्ची की मदद करता है और प्रिंसिपल से जाकर सारी घटना बयान कर देता है। प्रिंसिपल लू लू की समझदारी की प्रशंसा करते हैं और उसे पुरस्कार देने की बात कहते हैं। यह बात सुनकर घर आई आंटी भी उसकी प्रशंसा करती हैं। इसपर लू लू कहता है कि वह यही बात बताने के लिए तो पहले भी आपके पास आया था, पर आप लोग अपनी बातों में व्यस्त थीं और बिना मेरी बात सुना मुझे भगा दिया था। यह सुनकर मां को अपनी गलती का एहसास होता है और वे आगे से उसकी बात सुनने का वादा करती हैं।
यह एक कटु सत्य है कि हमारे समाज में बच्चों का यौन शोषण तेजी से बढ़ रहा है। इसे रोकने के लिए जहां एक ओर कानूनों का कड़ाई से पालन कराना होगा, वहीं बच्चों को भी जागरूक करना होगा। निःसंदेह इस दिशा में ‘सॉरी लू लू‘ एक सराहनीय प्रयास है।
लू लू सिर्फ इन्सानों के बारे में ही नहीं पेड़ पौधों के बारे में भी सोचता है। जब वह पत्तियों को तोड़ने पर पेड़ को होने वाले दर्द के बारे में सोचता है, तो ‘मैं क्यों सोचूं’ जैसी कहानी का जन्म होता है। लेकिन कभी-कभी वह बच्चों के भौंड़े प्रदर्शन से प्रभावित हो जाता है और तब वह थोड़ा सा गुस्सा भी हो जाता है। पर लू लू की मां आखिर लू लू की मां है। वह बड़ी सहजता से न सिर्फ लू लू के गुस्से (लू लू का गुस्सा) का तोड़ निकालने में कामयाब हो जाती हैं, बल्कि बहुत चालाकी से लू लू को उसकी गलती का एहसास भी करा देती हैं। और ‘‘मां की समझदारी भरी बातें सुनकर लू लू मुतमईन हो जाता है और मां की चालाकी नहीं-नहीं समझदारी भी पकड़ लेता है। तभी तो ‘‘लू लू की आंखों में शरारत उतर आयी थी। बोला, ‘मां! आप बड़ी चालाक है, नहीं नहीं समझदार हैं’’ (बचपन की शरारत, पृष्ठ-28)
‘लू लू की मां’ इस श्रेणी की एक अन्य कहानी है, जिसमें हमें लू लू के बाल सुलभ व्यवहार की झलक देखने को मिलती है। होता यूं है कि लू लू को एक बार अपने काम मां से कराने का चस्का लग जाता है और वह दिन प्रतिदिन निठल्ला होता जाता है। ऐसे में लू लू की मां उसकी इस आदत का इलाज बेहद कुशलता से करती हैं- ‘‘ठीक है लू लू, आज से मैं तुम्हें एक भी काम नहीं करने दूंगी। तुम्हारी जगह मैं ही करूंगी।’’ मां ने कहा।
लू लू ने उछलकर कहा, ‘‘वॉव, एकदम ठीक।’’
‘‘तुम कुछ कहोगे तो नहीं न, मुझे करने दोगे न अपने सारे काम?’’
‘‘नहीं मां, कुछ नहीं कहूंगा, प्रॉमिस।’’
‘‘तो फिर सुनो, आज से तुम खेलने नहीं जाओगे। तुम्हारी जगह मैं ही खेलने जाउंगी। टीवी भी मैं ही देख लूंगी। तुम बस आराम करना।’’ मां ने प्यार से कहा। (बचपन की शरारत, पृष्ठ-15)
लू लू सिर्फ शरारती और समझदार ही नहीं है, उसके अंदर बड़प्पन भी है। उसके इस बड़प्पन की झलक ‘लू लू बड़ा हो गया’ जैसी कहानी में देखने को मिलती है। इस कहानी में एक ओर जहां वह अपने जन्मदिन में मिले उपहारों से नाखुश नजर आता है, दूसरी ओर मां के समझाने पर उसे ‘देने का सुख’ का एहसास होता है और वह बड़े जतन से अपने गुल्लक में जमा पैसों को अपनी मेड के बच्चे के जन्मदिन पर उसे भेंट में दे देता है।
एक अच्छे रचनाकार की पहचान यही है कि वह साधारण सी बात को भी इस सलीके से कहता है कि पढ़ने वाला मंत्रमुग्ध हो जाता है। यह बात दिविक रमेश की लू लू श्रृंखला की तमाम कहानियों में देखी जा सकती है। ऐसी ही एक कहानी है ‘लू लू बना जासूस’।
लू लू को बर्फ का पानी पीने की आदत है और जब उसको सर्दी या जुकाम हो जाता है, तो भी वह इससे बाज नहीं आता। ‘लू लू बना जासूस’ कहानी में लू लू की इस आदत को दूर करने की जिम्मेदारी उसकी नानी को सौंपी गयी है। वे इसके लिए लू लू के नाना द्वारा चोरी-छुपे ‘मीठू’ खाने का बहाना करके लू लू से उनकी जासूसी करने को कहती हैं। और लू लू जब उनसे इसका कारण पूछता है, तो वे उनके डायबेटिक होने की बात करके मीठे के नुकसानों को बताती हैं। ऐसे में लू लू को खुद-ब-खुद अपनी कमियों का एहसास हो जाता है-
‘‘सच्ची नानी? मुझे जब खाँसी और जुकाम होता है तो मम्मी आइसक्रीम भी खाने से मना करती है और बर्फ डालकर शरबत पीने से भी। पर मैं तो बहुत लड़ता हूं। मुझे दोनों ही चीज़े पसन्द हैं न। कभी-कभी तो चोरी-चोरी भी बर्फ निकाल कर पानी में डाल लेता हूं। मम्मी को पता भी नहीं चलता।’
’यह तो ठीक बात नहीं हुई न लू लू। इससे तो बिमारी और बढ़ सकती है। जुकाम और खांसी बढ़ सकती है। और डॉक्टर के पास जाना पड़ सकता है।’’ (मेरे मन की बाल कहानियां, पृष्ठ-106)
लू लू का दिमाग सिर्फ अपने आसपास की चीजों में ही नहीं लगता, वह दूर की चीजों में भी रुचि लेता है। और ऐसे में ‘लू लू का अंतरिक्ष’ और ‘लू लू का आविष्कार’ जैसी कहानियों का जन्म होता है। कहानी ‘लू लू का अंतरिक्ष’ में जहां अंतरिक्ष सम्बंधी जानकारियों को रोचक शैली में प्रस्तुत किया गया है, वहीं ‘लू लू का आविष्कार’ में उसकी खूबसूरत सोच को बहुत सुंदर ढ़ंग से बयां किया गया है।
लू लू सिर्फ इन्सानों के बारे में ही नहीं पेड़ पौधों के बारे में भी सोचता है। जब वह पत्तियों को तोड़ने पर पेड़ को होने वाले दर्द के बारे में सोचता है, तो ‘मैं क्यों सोचूं’ जैसी कहानी का जन्म होता है। लेकिन कभी-कभी वह बच्चों के भौंड़े प्रदर्शन से प्रभावित हो जाता है और तब वह थोड़ा सा गुस्सा भी हो जाता है। पर लू लू की मां आखिर लू लू की मां है। वह बड़ी सहजता से न सिर्फ लू लू के गुस्से (लू लू का गुस्सा) का तोड़ निकालने में कामयाब हो जाती हैं, बल्कि बहुत चालाकी से लू लू को उसकी गलती का एहसास भी करा देती हैं। और ‘‘मां की समझदारी भरी बातें सुनकर लू लू मुतमईन हो जाता है और मां की चालाकी नहीं-नहीं समझदारी भी पकड़ लेता है। तभी तो ‘‘लू लू की आंखों में शरारत उतर आयी थी। बोला, ‘मां! आप बड़ी चालाक है, नहीं नहीं समझदार हैं’’ (बचपन की शरारत, पृष्ठ-28)
‘लू लू की मां’ इस श्रेणी की एक अन्य कहानी है, जिसमें हमें लू लू के बाल सुलभ व्यवहार की झलक देखने को मिलती है। होता यूं है कि लू लू को एक बार अपने काम मां से कराने का चस्का लग जाता है और वह दिन प्रतिदिन निठल्ला होता जाता है। ऐसे में लू लू की मां उसकी इस आदत का इलाज बेहद कुशलता से करती हैं- ‘‘ठीक है लू लू, आज से मैं तुम्हें एक भी काम नहीं करने दूंगी। तुम्हारी जगह मैं ही करूंगी।’’ मां ने कहा।
लू लू ने उछलकर कहा, ‘‘वॉव, एकदम ठीक।’’
‘‘तुम कुछ कहोगे तो नहीं न, मुझे करने दोगे न अपने सारे काम?’’
‘‘नहीं मां, कुछ नहीं कहूंगा, प्रॉमिस।’’
‘‘तो फिर सुनो, आज से तुम खेलने नहीं जाओगे। तुम्हारी जगह मैं ही खेलने जाउंगी। टीवी भी मैं ही देख लूंगी। तुम बस आराम करना।’’ मां ने प्यार से कहा। (बचपन की शरारत, पृष्ठ-15)
लू लू सिर्फ शरारती और समझदार ही नहीं है, उसके अंदर बड़प्पन भी है। उसके इस बड़प्पन की झलक ‘लू लू बड़ा हो गया’ जैसी कहानी में देखने को मिलती है। इस कहानी में एक ओर जहां वह अपने जन्मदिन में मिले उपहारों से नाखुश नजर आता है, दूसरी ओर मां के समझाने पर उसे ‘देने का सुख’ का एहसास होता है और वह बड़े जतन से अपने गुल्लक में जमा पैसों को अपनी मेड के बच्चे के जन्मदिन पर उसे भेंट में दे देता है।
एक अच्छे रचनाकार की पहचान यही है कि वह साधारण सी बात को भी इस सलीके से कहता है कि पढ़ने वाला मंत्रमुग्ध हो जाता है। यह बात दिविक रमेश की लू लू श्रृंखला की तमाम कहानियों में देखी जा सकती है। ऐसी ही एक कहानी है ‘लू लू बना जासूस’।
लू लू को बर्फ का पानी पीने की आदत है और जब उसको सर्दी या जुकाम हो जाता है, तो भी वह इससे बाज नहीं आता। ‘लू लू बना जासूस’ कहानी में लू लू की इस आदत को दूर करने की जिम्मेदारी उसकी नानी को सौंपी गयी है। वे इसके लिए लू लू के नाना द्वारा चोरी-छुपे ‘मीठू’ खाने का बहाना करके लू लू से उनकी जासूसी करने को कहती हैं। और लू लू जब उनसे इसका कारण पूछता है, तो वे उनके डायबेटिक होने की बात करके मीठे के नुकसानों को बताती हैं। ऐसे में लू लू को खुद-ब-खुद अपनी कमियों का एहसास हो जाता है-
‘‘सच्ची नानी? मुझे जब खाँसी और जुकाम होता है तो मम्मी आइसक्रीम भी खाने से मना करती है और बर्फ डालकर शरबत पीने से भी। पर मैं तो बहुत लड़ता हूं। मुझे दोनों ही चीज़े पसन्द हैं न। कभी-कभी तो चोरी-चोरी भी बर्फ निकाल कर पानी में डाल लेता हूं। मम्मी को पता भी नहीं चलता।’
’यह तो ठीक बात नहीं हुई न लू लू। इससे तो बिमारी और बढ़ सकती है। जुकाम और खांसी बढ़ सकती है। और डॉक्टर के पास जाना पड़ सकता है।’’ (मेरे मन की बाल कहानियां, पृष्ठ-106)
लू लू का दिमाग सिर्फ अपने आसपास की चीजों में ही नहीं लगता, वह दूर की चीजों में भी रुचि लेता है। और ऐसे में ‘लू लू का अंतरिक्ष’ और ‘लू लू का आविष्कार’ जैसी कहानियों का जन्म होता है। कहानी ‘लू लू का अंतरिक्ष’ में जहां अंतरिक्ष सम्बंधी जानकारियों को रोचक शैली में प्रस्तुत किया गया है, वहीं ‘लू लू का आविष्कार’ में उसकी खूबसूरत सोच को बहुत सुंदर ढ़ंग से बयां किया गया है।
‘‘लू लू ने ही चुप्पी तोड़ी। बोला- ‘पापा मैं कोई ऐसी तरकीब या चीज का आविष्कार करना चाहता हूं कि आदमी के भीतर से गुस्सा ही खत्म हो जाए। जब गुस्सा ही नहीं रहेगा तो कुछ भी होता रहे गुस्सा आएगा ही नहीं। पापा मुझे गुस्सा अच्छा ही नहीं लगता। वह ठीक बात पर आए या गलत बात पर।’’ (लू लू का आविष्कार, पृष्ठ-17)
दिविक रमेश का यह स्पष्ट मानना है कि बाल साहित्य सिर्फ बच्चों के लिए नहीं है, वह बड़ों के लिए भी है। वे यह बात क्यों कहते हैं, इसे समझने के लिए उनकी लू लू श्रृंखला की एक अन्य महत्वपूर्ण कहानी ‘वे बच्चे क्यों नहीं हैं’ से हमें गुजरना होगा। यह कहानी परिवारों के टूटने की त्रासदी को बड़ी कुशलता से हमारे सामने रखती है। इस कहानी में लू लू अपने प्रिय मित्र टीलू के साथ इंटरवल में बातचीत करता है और बातों ही बातों में परिवार के टूटन का दर्द बयां हो जाता है-
‘‘लू लू ने सुना। कुछ देर चुप रहा। वह सोच नहीं रहा था। बस कुछ कहने की हिम्मत जुटा रहा था। बोला- ‘पर टीलू हम बच्चे अलग होने के लिए तो नहीं लड़ते न? हम तो लड़ कर फिर एक हो जाते हैं। फिर साथ-साथ खेलते हैं। फिर साथ-साथ खाते हैं। ये माता-पिता बच्चे क्यों नहीं होते टीलू?’ (लू लू का आविष्कार, पृष्ठ-10)
ये लू लू की शिकायत नहीं है, उसके भीतर जमा दर्द है, जो उसके माता-पिता के बहाने रिश्तों के विघटन को रेखांकित करता है-
‘‘मम्मी मुझे लेकर अब अलग घर में रहती हैं। किराए के घर में। मुझे तो मम्मी पापा दोनों चाहिए न टीलू। वे अलग हो गए हैं टीलू। टीलू वे बच्चे क्यों नहीं हैं?’ लू लू ने रुआंसा हो कर कहा।
टीलू ने लू लू को गले लगाया। बस इतना कह सका- ‘मैं प्रे करता हूं लू लू कि तेरे मम्मी-पापा बच्चे हो जाएं।’’ (लू लू का आविष्कार, पृष्ठ-13)
लू लू श्रृंखला की तमाम कहानियां सिर्फ अपनी विषय-वस्तु ही नहीं अपनी भाषा-शैली के कारण भी बेहद खास बन पड़ी हैं। कहां पर छोटे-छोटे शब्दों का इस्तेमाल करना है, कहां पर भाषा की रवानी का ध्यान रखना है और कहां पर संवेदनाओं को दरिया को हौले-हौले प्रवाहित करना है, लेखक ने इसका पूरा ध्यान रखा है। यही कारण है कि ये कहानियां न सिर्फ अपनी रोचकता के कारण पाठकों को पसंद आती हैं, वरन अपनी मार्मिक प्रस्तुति के कारण संवेदनाओं के तंतुओं को झंकृत करने में भी सफल रहती हैं।
न सिर्फ बच्चों के बहुमुखी विकास के लिए लू लू जैसे चरित्र पढ़े जाने चाहिए, वरन बाल साहित्य को समृद्ध बनाने के लिए ऐसे चरित्र अधिक से अधिक गढ़े भी जाने चाहिए।
दिविक रमेश का यह स्पष्ट मानना है कि बाल साहित्य सिर्फ बच्चों के लिए नहीं है, वह बड़ों के लिए भी है। वे यह बात क्यों कहते हैं, इसे समझने के लिए उनकी लू लू श्रृंखला की एक अन्य महत्वपूर्ण कहानी ‘वे बच्चे क्यों नहीं हैं’ से हमें गुजरना होगा। यह कहानी परिवारों के टूटने की त्रासदी को बड़ी कुशलता से हमारे सामने रखती है। इस कहानी में लू लू अपने प्रिय मित्र टीलू के साथ इंटरवल में बातचीत करता है और बातों ही बातों में परिवार के टूटन का दर्द बयां हो जाता है-
‘‘लू लू ने सुना। कुछ देर चुप रहा। वह सोच नहीं रहा था। बस कुछ कहने की हिम्मत जुटा रहा था। बोला- ‘पर टीलू हम बच्चे अलग होने के लिए तो नहीं लड़ते न? हम तो लड़ कर फिर एक हो जाते हैं। फिर साथ-साथ खेलते हैं। फिर साथ-साथ खाते हैं। ये माता-पिता बच्चे क्यों नहीं होते टीलू?’ (लू लू का आविष्कार, पृष्ठ-10)
ये लू लू की शिकायत नहीं है, उसके भीतर जमा दर्द है, जो उसके माता-पिता के बहाने रिश्तों के विघटन को रेखांकित करता है-
‘‘मम्मी मुझे लेकर अब अलग घर में रहती हैं। किराए के घर में। मुझे तो मम्मी पापा दोनों चाहिए न टीलू। वे अलग हो गए हैं टीलू। टीलू वे बच्चे क्यों नहीं हैं?’ लू लू ने रुआंसा हो कर कहा।
टीलू ने लू लू को गले लगाया। बस इतना कह सका- ‘मैं प्रे करता हूं लू लू कि तेरे मम्मी-पापा बच्चे हो जाएं।’’ (लू लू का आविष्कार, पृष्ठ-13)
लू लू श्रृंखला की तमाम कहानियां सिर्फ अपनी विषय-वस्तु ही नहीं अपनी भाषा-शैली के कारण भी बेहद खास बन पड़ी हैं। कहां पर छोटे-छोटे शब्दों का इस्तेमाल करना है, कहां पर भाषा की रवानी का ध्यान रखना है और कहां पर संवेदनाओं को दरिया को हौले-हौले प्रवाहित करना है, लेखक ने इसका पूरा ध्यान रखा है। यही कारण है कि ये कहानियां न सिर्फ अपनी रोचकता के कारण पाठकों को पसंद आती हैं, वरन अपनी मार्मिक प्रस्तुति के कारण संवेदनाओं के तंतुओं को झंकृत करने में भी सफल रहती हैं।
न सिर्फ बच्चों के बहुमुखी विकास के लिए लू लू जैसे चरित्र पढ़े जाने चाहिए, वरन बाल साहित्य को समृद्ध बनाने के लिए ऐसे चरित्र अधिक से अधिक गढ़े भी जाने चाहिए।
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