जाकिर अली 'रजनीश' की बाल कहानियां -डॉ0 मोहम्मद अरशद खान
आलेख: जाकिर अली 'रजनीश' की बाल कहानियां
-डॉ0 मोहम्मद अरशद खान
बाल साहित्य के क्षेत्र में जाकिर अली 'रजनीश' का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। उनकी प्रथम कहानी एक चित्रकथा के रूप में 1991 में मुम्बई से प्रकाशित होने वाली 'टिंकल' नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। उसके बाद से उन्होंने मुड़कर नहीं देखा। बाल साहित्य में अब तक उनके 4 उपन्यास, 26 कहानी संग्रह, 20 लेख संबंधी पुस्तकें, 6 नवसाक्षरों के लिए पुस्तकें तथा 9 संपादित संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार के भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार, प्रथम हरिकृष्ण देवसरे पुरस्कार, रतनलाल शर्मा स्मृति पुरस्कार तथा हिंदी संस्थान के सूर पुरस्कार सहित लगभग 3 दर्जन राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों से पुरस्कृत हो चुके हैं। उनका विशेष योगदान विज्ञान कथा लेखन में है। इस क्षेत्र में वे एक आइकन की तरह देखे जाते हैं। उन्हें विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग भारत सरकार का 'राष्ट्रीय विज्ञान संचार पुरस्कार' (2019) भी प्राप्त हो चुका है। उनका ब्लॉग 'साइंटिफिक वर्ल्ड’ (www.scientificworld.in) अंतरजाल के सर्वाधिक लोकप्रिय ब्लॉग्स में एक है। उन्होंने पद्मश्री डॉ० उषा यादव जी के निर्देशन में 'आधुनिक हिंदी बाल कहानियों का विवेचनात्मक अध्ययन' विषय पर आगरा विश्वविद्यालय से शोधकार्य किया है।
पहली विचारधारा लोक कथाओं और परीकथाओं को संस्कृति और विरासत का हिस्सा मानते हुए, उसे बाल साहित्य की मुख्य धारा में शामिल करने की पक्षपाती थी। इस विचारधारा का नेतृत्व 'नंदन' के हाथों में था। आधुनिकता के नाम पर इस प्रकार की कथाओं की आलोचना करने वाले उथले उत्साहियों के प्रति नंदन के संपादक जय प्रकाश भारती इन शब्दों में आक्रोश व्यक्त करते हैं- "अपने यहाँ जो है उसे स्वीकार नहीं करेंगे, न बच्चों को उसके बारे में जानकारी देना चाहेंगे। आयातित माल और आयातित ज्ञान ही हमें पसंद है। ...सम्राट अशोक हों या युधिष्ठिर हम इनका गुणगान करके क्या बच्चों को बिगाड़ेंगे। ...क्या अपनी धरती से कट जाना आधुनिकता है? आधुनिकता पुराने को पूरी तरह से त्याग देने में नहीं होती। मैं अपने अनुभव के आधार पर इस परिणाम पर पहुँचा हूँ कि बच्चे पौराणिक कथाओं में राजा-रानी की कहानियों में, ऐतिहासिक कथाओं में और लोक कथाओं में भरपूर रस लेते हैं और उन्हें पसंद करते हैं।"
दूसरी विचारधारा इसके ठीक विपरीत लोककथाओं, परीकथाओं और पुराणकथाओं की प्रासंगिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। विरोध का यह आंदोलन ‘पराग' के प्रकाशन के साथ आरंभ हुआ। हालाँकि इसके बीज आनंद कुमार के संपादन काल में 'कुमार' पत्रिका में देखे जा सकते हैं। जनवरी 1940 के सम्पादकीय में उन्होंने सांकेतिक रूप में इस प्रकार की रचनाओं का विरोध किया था। यह विचारधारा मुख्यतः दिल्ली प्रेस की पत्रिकाओं तथा अन्य बाल पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से स्वर पाती रही। ‘बालहंस’ ने यद्यपि परीकथा विशेषांक छापे पर उसका रूझान यथार्थ बाल कहानियों की ओर ज्यादा रहा। 'पराग' के सम्पादक आनंद कुमार जैन ने उस समय लिखा था- "जादूगरों और राक्षसों की कहानियाँ बच्चों के साहित्य में स्थान पाने योग्य नहीं रह गई हैं। कहीं जादू नहीं चलता। सामंत युग का कोई राक्षस अब दिखाई नहीं पड़ता। आज के विषम जीवन की प्रणालियों से बच्चों को भी किसी न किसी प्रकार हमें परिचित कराना ही होगा। विज्ञान के मूलभूत सिद्धांतों से परिचय कराने के लिए सिर्फ कोर्स की पुस्तकें ही काफी नहीं होतीं, बल्कि विदेशी बच्चों की तरह विज्ञान कथा और अन्य प्रकार के साहित्य में भी उनके मनोरंजन का एक साधन प्रस्तुत करना होगा। इसका प्रयत्न यदि आज का भारतीय लेखक नहीं करेगा तो कौन करेगा?"2
तीसरी विचार धारा इन दोनों के समन्वय पर बल देती है। इसका प्रवर्तक न तो कोई एक व्यक्ति है और न ही कोई पत्रिका या प्रतिष्ठान। इस वर्ग में जागरूक और दृष्टि सम्पन्न लेखक शामिल हैं। डॉ० श्री प्रसाद लिखते हैं- "आज का वर्तमान संक्रांति की अवस्था में है। आज हमारी अवस्था त्रिनेत्र की है। आगे की आँखें वर्तमान और भविष्य को देख रही हैं और पीछे का नेत्र अतीत पर दृष्टि रखे हु पूर्णतः आधुनिकतावादी हैं और न पूर्णतः प्राचीनतावादी हैं। हम समन्वयवादी हैं। समन्वय का जीवन अन्य देशों में भी रहा है, पर भारत में तो सदा ही समन्वय किया गया है। तात्पर्य यह है कि बालकों की रूचि के साहित्य के रूप में जो पारम्परिक साहित्य की धरोहर है, उसे भी पूरी तरह से त्याग देना उचित न होगा।"3
जाकिर अली ‘रजनीश’ के अर्विभाव काल में उपर्युक्त तीनों विचारधाराएँ कभी तीव्र और कभी मंद वेग से गतिशील थीं। साहित्य जगत में पदार्पण के साथ ही जाकिर ने अपनी विचार दृष्टि स्पष्ट कर दी। उन्होंने आधुनिक और यथार्थ परक कथाओं को ज्यादा उपयोगी माना। इसके पीछे सिर्फ युवा उत्साह ही नहीं था, बल्कि इसके पीछे एक स्थिर विचार दृष्टि थी। बाल कहानियों के मानक संकलन 21वीं की बाल कहानियों में जाकिर ने अपने दृष्टिकोण का स्पष्ट परिचय दिया। पारंपरिक बाल कथाओं के रूप में उन्होंने दो प्रकार की रचनाएँ मानीं-
1. लोक कथाओं और परीकथाओं के रूप में टीपी हुई कथाएँ
2. राजू सुधर गया टाइप फार्मूलाबद्ध रचनाएँ
वास्तव में किसी भी रचनाकार के लिए बाल कहानियाँ लिखने का सबसे सरल तरीका है लोक कथा लिख मारना। इन रचनाओं के प्रणेता ऐसे रचनाकार होते हैं जो या तो छपते रहने के रोग से ग्रस्त होते हैं या फिर मौलिक रचनाएँ न लिख पाना जिनकी मजबूरी होती है।
अतः ऐसी रचनाओं की गुणवत्ता निसंदेह संदिग्ध हो जाती है। जाकिर का विचार है- "इन रचनाओं में मौलिकता का सर्वथा अभाव होता है। यदि दो रचनाकारों की रचनाओं में लेखकों के नाम बदल दिए जाएँ, तो उसे सामान्यतः कोई पकड़ नहीं पाएगा। ...बाल साहित्य के बड़े-बड़े आलेखों में यह बात जोर देकर कही जाती है कि बाल साहित्य लेखन एक अत्यंत कठिन कार्य है। किंतु मैं नहीं समझता कि पुराणों पुरानी पत्रिकाओं या कल्याण के अंकों को सामने रखकर कहानी को टीप लेना कोई कठिन कार्य है।"4
जाकिर के इस कथन में प्रतिक्रिया का उग्र उत्साह भले ही हो पर सच्चाई यही है। इस तरह की कहानियों में न तो लेखक की मौलिक कल्पना दीख पड़ती है, न चरित्र चित्रण का कौशल भाषा-शैली की दृष्टि से भी यह कहानियाँ विशेष प्रभावित नहीं करतीं। कहीं-कहीं तो इनमें सामंती विचारधारा के बीज मिलते हैं, जो जनतंत्र की समृद्धि व भविष्य के सुनागरिक तैयार करने तथा समतावादी सामाज की पुनर्रचना की दृष्टि से घातक होता है। आज देश में जो राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक प्रश्न उभर रहे हैं उन्हें देखते हुए यह प्रश्न और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है कि प्रजातांत्रिक शासन पद्धति, समाजवादी समाज का सिद्धांत तथा राष्ट्र की एकता और अखंडता की रक्षा के लिए बच्चों हेतु कि तरह की कहानियाँ होनी चाहिए।”
जाकिर फार्मूलाबद्ध कथाओं को भी इसी श्रेणी में रखकर पुनर्विचार की आवश्यकता समझते हैं। इस प्रकार की कहानियाँ यद्यपि मौलिक होती हैं, पर उनका एक बँधा-बँधाया ढर्रा होता है। बाल कहानियों को दोयम दर्जे का सिद्ध करने में इस प्रकार की रचनाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है। जाकिर का मानना है- "इन्हें जबरदस्ती की लिखी हुई कहानियाँ भी कहा जा सकता है, जो अपने उपदेशात्मक शीर्षकों एवं कहानियों की शुरूआत से ही पता चल जाती हैं। इस प्रकार की कहानियाँ एक निश्चित ढर्रे पर चलती हैं। प्रारम्भ में पात्र जिद्दी बदतमीज या आवारा किस्म का होता है और बाद में चलकर सुधर जाता है। प्रायश्चित, सीख, गलती, चोरी, प्रण, उपदेश, भूल आदि से ये रचनाएँ आगे बढ़ ही नहीं पाती। बाल सुधार का ठेका लेने वाले ऐसे तमाम रचनाकार बाल मनोविज्ञान की पहली सीढी कि बच्चे उपदेश सुनना पसंद नहीं करते, की उपेक्षा करते हुए थोक की मात्रा में ऐसे सुधार कार्यक्रम चलाते रहते हैं। विषय की रोचकता एवं मौलिकता की तो खैर उम्मीद ही बेकार है, शैली का चमत्कार भी इनमें नजर नहीं आता।”6
कहीं आदर्श के नाम पर तो कहीं भविष्य के कर्णधारों को संस्कारित करने के नाम पर इस तरह की तमाम कहानियाँ धड़ल्ले से छपकर आ रही हैं। दुर्भाग्यवश एक आम पाठक के सामने बाल कहानियों की एक तस्वीर तय करने में यही कहानियाँ अपनी निर्धारक भूमिका निभाती हैं।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जाकिर ने पर्याप्त मात्रा में लोक कथाएँ और परीकथाएँ लिखी हैं। उनका पहला उपन्यास ‘सात सवाल’ जादुई और तिलिस्मी दुनिया की अनूठी कथा है। यह उपन्यास अरब के लोकप्रिय पात्र हातिमताई को आधार बनाकर रचा गया है। इनमें देव, दानव, जादूगर परीजाद, मसलन वो सब कुछ है, जिसका आधुनिकता के नाम पर विरोध किया जाता है। इसके अतिरिक्त 'सुनहरा पंख' और 'सितारों की भाषा' जैसे उनके घोषित लोक कथा संग्रह हैं तथा ‘सराय का भूत' एवं 'अग्गन-भग्गन' जैसी कृतियों में लोक कथाओं की छाया देखी जा सकती है।
वस्तुतः विरोध के बावजूद जाकिर द्वारा प्रभूत मात्रा में लोक कथाओं का प्रणयन इस बात का प्रमाण है कि लोक कथाएँ हमारी संस्कृति और विरासत का महत्वपूर्ण अंग हैं, इन्हें उपेक्षित नहीं किया जा सकता। किंतु इसे तदवत टीप देना भी उचित नहीं क्योंकि इनमें सामंती समाज की छाया स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। जन के हृदय की आवाज होने के बावजूद इनका समाहार एक प्रकार के ऐसे आदर्शवाद में होता है जो सामंतवाद की समृद्धि के अनुकूल होता है। अतः लेखक को इस ओर से अवश्य सचेत होना चाहिए और कथावस्तु को वर्तमान प्रजातांत्रिक और समाजवादी समाज के अनुकूल बना लेना चाहिए। आज के युग में राजा-रानी को मात्र इतिहास का विषय बना देना ही काफी नहीं रह गया है। उनके सही रूप को भी प्रस्तुत करना अनिवार्य है। किस तरह वे गरीबों का शोषण करते थे, विलासिता, ऐश्वर्य, स्वेच्छाचारिता, निरंकुशता आदि का कितना बोल-बाला था- इन तथ्यों को उजागर करना उनकी कथाओं को कहीं अधिक रोचक बना देगा।'
वास्तव में जाकिर की कथाएँ इसी तथ्य का परिचय कराने के लिखी गई हैं। उदाहरण स्वरूप 'सुनहरा पंख' में सम्मिलित कहानी ‘शेर बना राजा' या 'मुँहतोड़ जबाब' को लिया जा सकता है।
मुँहतोड़ जवाब में आसिमो की भेड़ें उसका दोस्त हड़प कर जाता है। हालाँकि गाँव वाले अक्सर कहते थे कि अमीर-गरीब के बीच कभी दोस्ती नहीं होती। पर आसिमो दोस्ती करता है और ठगा जाता है। बड़े ही सरल शब्दों में जाकिर वर्ग आधारित समाज का परिचय देते हैं और अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कर देते हैं। आसिमो अपनी फरियाद लेकर जमींदार के पास जाता है। हालाँकि जमींदारों के बारे में यह मशहूर था कि वे अमीरों की बातों की ही तरफदारी करते हैं। और सचमुच ऐसा होता भी है। जमींदार उसके सामने कुछ ऐसे सवाल रखता है जिसका उत्तर देना असंभव प्राय होता है। पर आसिमो की लड़की आयलीता उसका जवाब दे देती है। इस प्रसंग में जाकिर लिखते हैं- "जमींदार ने जब आसिमो का उत्तर सुना तो उसके हाथों के तोते उड़ गए। अब क्या हो? क्या वह अदना-सी लड़की के आगे हार मान ले और आसिमो को उसकी भेड़ें दिला दे। लेकिन नहीं, यह तो उसकी शान के खिलाफ है। पर जमींदार को हार माननी ही पड़ती है।
किंतु जाकिर के समग्र साहित्य में लोक कथात्मक कृतियाँ प्रायः दो ही चार हैं। बाल मनोविज्ञान और आधुनिक चेतना सम्पन्न यथार्थ रचनाओं की संख्या उनके सम्पूर्ण कृतित्व में कहीं अधिक है।
हिन्दी में विज्ञान कथाओं को लोकप्रिय बनाने और उसे आंदोलन का रूप देने में जाकिर को श्रेय दिया ही जाना चाहिए। डॉ० देवसरे का मत है- "आज विज्ञान की दुनिया में क्या संभव नहीं है और परीलोक की कौन सी ऐसी बात है, जो बच्चों को अब उपलब्ध नहीं कराई जा सकती है। अब बच्चे परीलोक से आगे निकलकर विज्ञानलोक की उन कल्पनाओं में रूचि लेने लगे हैं जो अनेक महत्वपूर्ण अविष्कारों का कारण बनी हैं या बनेंगी।"11
जाकिर की विज्ञान कथाओं में इसी प्रकार के प्रयोग किए गए हैं। 'मनचाहे सपने दिखानेवाली मशीन' कहानी हो, 'कहानी लेखन यंत्र' हो, 'कभी न खत्म होने वाला सेल' हो या समय से आगे ले जाने वाला ‘समय-यान' हो, जाकिर ने तथ्यों एवं परिकल्पनाओं का सहारा लेते हुए मनोरंजक कहानियाँ लिखी हैं, जो वर्तमान हाई-टेक युग में पलने वाले बच्चे के सहज आकर्षण का विषय बन जाती हैं।
इसी प्रकार जाकिर ने रहस्य-रोमांच और जासूसी से भरी साहसिक कहानियाँ भी लिखी हैं। बालकों के विकास की एक अवस्था ऐसी भी होती है, जिसे साहसिक अवस्था कहते हैं। साहसिक अवस्था में साहसिक वीरों की कथाएँ, शिकार की कहानियाँ यात्रा-संस्मरण और चमत्कार भरी कहानियों को सम्मिलित किया जा सकता है। कल्पना जगत से उतरकर संसार के धरातल पर पहुँचने की यही अवस्था होती है। तब बच्चों को कल्पना लोक में विचरण करने में कोई रूचि नहीं होती। वह कठिनाइयों को झेलने और साहसिक कार्यों को करने में विशेष रूचि लेता है।
इसी बाल मनोविज्ञान के अनुरूप जाकिर ने 'सोने की घाटी', 'कुर्बानी का कर्ज', 'साहसिक कथाएँ' सहित अनेक कृतियों का सृजन किया है।
कुल मिलाकर जाकिर का सम्पूर्ण साहित्य पारम्परिक बाल कहानियों की जड़ता को तोड़कर एक नई भूमि विकसित करता है जो वर्तमान समय की बाल संवेदनाओं के अनुकूल होने के कारण वह ग्राह भी है और प्रशंस्य भी।
संदर्भ-सूत्र:
1. बाल साहित्य 21वीं सदी में, अभिरूचि प्रकाशन, दिल्ली, पृ०: 36
2. डॉ॰ हरिकृष्ण देवसरे: बाल साहित्य- मेरा चिन्तन, मेधा बुक्स, दिल्ली, पृ0: 18
3. डॉ० श्रीप्रसाद: बाल साहित्य की अवधारणा, उ०प्र० हिंदी संस्थान, लखनऊ, पृ० 163
4. 21वीं सदी की बाल कहानियाँ, नीरज इंटरप्राइजेज, लखनऊ, भूमिका
5. डॉ॰ हरिकृष्ण देवसरे: बाल साहित्य- मेरा चिंतन, पृ0: 45
6. 21वीं सदी की बाल कहानियाँ, भूमिका
7. डॉ॰ हरिकृष्ण देवसरे: बाल साहित्य- मेरा चिंतन, पृ०: 120
8. सुनहरा पंख, सस्ता साहित्य मंडल, दिल्ली, पृ०: 111
9. वही, पृ०: 112
10. वही, पृ0 117
11. बाल साहित्य-मेरा चिंतन, पृ0: 109
12. वही, पृ०: 113
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प्रोफेसर, हिंदी विभाग, जी0एफ0 (पी0जी0) कॉलेज, शाहजहाँपुर-242001(उ0प्र0)
hamdarshad@gmail.com Phone : 9807006288
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