उषा यादव के बाल उपन्यासों का रोचक संसार

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Usha yadav Ke Bal Upanyason Ka Rochak Sansar

उषा यादव के बाल उपन्यासों का रोचक संसार

डॉ. ज़ाकिर अली ‘रजनीश’

पद्मश्री उषा यादव एक ऐसा नाम है, जो हिन्दी बालसाहित्य में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। जितनी वे काव्य में निष्णात हैं, उतना ही गद्य में भी उन्हें महारत हासिल है। चाहे कविता हो, या कहानी, नाटक हो, अथवा उपन्यास या फिर समालोचना, उन्होंने हर विधा में लगातार, बेशुमार और शानदार कार्य किया है।
Usha yadav Ke Bal Upanyas
रसगुल्ला’, ‘डायरी’, ‘तस्वीरें’ और ‘दीप से दीप जले’ जैसी यादगार कहानियां रचने वाली उषा यादव ने ‘गुस्सा हैं हम जाओ जी’, ‘उफ बस्ता कितना भारी है’, तथा ‘सो जाओ अब, रात हो गई’ जैसी मार्मिक कविताएं भी रची हैं। इसके साथ ही उन्होंने बाल उपन्यासों के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय कार्य किया है। कविता और कहानी की तरह उषा यादव के उपन्यासों की दुनिया भी अत्यंत समृद्ध है।

उषा यादव के उपन्यासों में जो चीज सबसे ज्यादा आकर्षित करती है वह है बालमनोविज्ञान पर उनकी पकड़ और उसके अनुरूप घटनाओं को गूंथने की उनकी अनूठी कला। कभी वे बच्चों की जिद, उनकी उद्दण्डता को अपना विषय बनाती हैं, तो कभी उनके भीतर छिपे सदगुणों को आधार। कभी वे उनकी जिज्ञासु प्रवृत्ति को कथानक के केन्द्र में रखती हैं, तो कभी उनके भीतर छिपे अन्वेषण के गुणों पर अपनी कलम चलाने लगती हैं। कभी शार्टकट के द्वारा आसानी से सफलता पाने की अभिलाषा उनके कथ्य का केंद्रीय बिन्दु होता है, तो कभी अभावों में पलता और चुनौतियों से जूझता बचपन। इन सबके साथ सामयिक मुद्दे और फैंटेसी के प्रति रचनाकार की सहज ललक तो है ही। और जब इन्हें जीवंत चित्रण के चित्ताकर्षक रंगों का साथ मिल जाता है, तो कथानक का एक ऐसा अनूठा वितान तैयार होता है, जिसके सम्मोहन से निकल पाना पाठक के लिए सम्भव नहीं रह जाता।

90 के दशक से अपनी बाल उपन्यास यात्रा शुरू करने वाली उषा यादव के अब तक 15 बाल उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। ये बाल उपन्यास न सिर्फ बाल साहित्य में चर्चा का विषय रहे हैं, वरन अनेकानेक महत्वपूर्ण पुरस्कारों से भी समादृत हुए हैं। और प्रसन्नता का विषय ये है कि ये सभी उपन्यास हाल ही में ‘उषा यादव के बालउपन्यास’ (समग्र) के रूप में हमारे सामने आए हैं। नमन प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित ये समग्र अपने प्रकाशन के साथ ही बेहद चर्चा में हैं और पाठकों के साथ ही साथ लेखकों को भी अपनी ओर आकर्षित कर रहा है।

समग्र में संकलित सभी उपन्यास वर्ष 1990 से 2021 के बीच प्रकाशित हुए हैं। यह समग्र तीन खण्डों में विभक्त है और कुल 1282 पृष्ठों में इनका रोचक संसार फैला हुआ है। वर्ष 2023 में प्रकाशित इस समग्र का सम्पादन उषा यादव की सुपुत्री और एक समर्थ रचनाकार कामना सिंह ने किया है। उन्होंने इन उपन्यासों से सृजन के समय के अपने पाठकीय अनुभवों के साथ-साथ उपन्यासों के कथ्य और उनकी प्रभावोत्पादकता को लेकर एक लम्बी भूमिका भी लिखी है, जो निश्चय ही समग्र की महत्ता को रेखांकित करती है और पाठकों को इनके भीतर उतरने के लिए प्रेरित करती है।

उषा यादव के बाल उपन्यासों की विषय-वस्तु अत्यंत व्यापक है। इनमें जीवन के विभिन्न रंगों को भिन्न-भिन्न शैली में कुशलता के साथ संजोया गया है। सुविधा की दृष्टि से इन उपन्यासों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता हैः बाल जीवन पर केंद्रित उपन्यास, समस्यामूलक उपन्यास और फैंटेसीपरक उपन्यास।

1. बाल जीवन पर केंद्रित उपन्यासः

उषा यादव एक जमीन से जुड़ी रचनाकार हैं। उनकी चिंताओं में बच्चों के सवाल, उनकी जिज्ञासाएं, समस्याएं और दर्द शिद्दत से नजर आते हैं। यही कारण है कि उनके 15 बाल उपन्यासों में से 9 ऐसी कृतियां हैं, जो बाल जीवन पर केंद्रित हैं। ये उपन्यास बच्चों की मानसिक हलचलों के साथ उनके समक्ष आने वाली चुनौतियों को पूरी ईमानदारी और गहराई से चित्रित करते हैं और पाठकों को इन मुद्दों पर सोचने के लिए विवश करते हैं। बाल विमर्श की अलग जगाने वाले इन उपन्यासों के नाम हैंः ‘पारस पत्थर’, ‘लाखों में एक’, ‘नन्हां दधीचि’, ‘हीरे का मोल’, ‘सबक’, ‘सोने की खान’, ‘एक और सिंदबाद’, ‘उजली धूप’ तथा ‘मां और मैं’।

पारस पत्थर’ उषा यादव का पहला बाल उपन्यास है। इसका मुख्य पात्र रवि है। वह उद्दण्ड है, हठी है, बद्तमीज है और साथ ही क्रोध की प्रतिमूर्ति भी। इस बालक के माता-पिता की कुछ समय पहले एक दुर्घटना में मृत्यु हो चुकी है और वह अपने दादा-दादी के साथ रहता है। ये दोनों प्राणी उसे हर सम्भव तरीके से समझाने, बहलाने और सभ्य इंसान बनाने की कोशिश करते हैं, पर रवि इसके बावजूद न सिर्फ उनके साथ अभद्रता से पेश आता है, बल्कि वक्त-बेवक्त नौकर पर हाथ भी छोड़ देता है।

ऐसे उद्दण्ड बालक के जीवन में एक दिन उसके पिता के अध्यापक देवकांत आते हैं और उसके बाद चमत्कारिक रूप से रवि का व्यवहार बदल जाता है। इस असम्भव से लगने वाले बदलाव का कारक बनता है देवकांत जी का दोस्ताना व्यवहार और हालात को समझकर उसके अनुरूप स्वयं को ढ़ाल लेने का उनकी कला। जीवन की यह व्यवहारिक समझ रवि के जीवन का कायाकल्प कर देती है, जिससे हर समय खिन्न रहने वाला रवि ही नहीं उसके बुजुर्ग दादा-दादी भी निहाल हो उठते हैं।

बच्चे हमेशा नई-नई चीजों की ओर आकर्षित होते हैं और उन्हें पाने के लिए जिद करने लगते हैं। जब उन्हें वह मनचाही वस्तु मिल जाती है, तो वे आनन्द के सागर में खो जाते हैं। लेकिन बहुत सारे बच्चे कुछ ही समय के बाद उससे बोर होने लगते हैं और फिर किसी नई चीज के लिए मचल उठते हैं। ऐसे ही एक बच्चे की कहानी है ‘सबक’। कथानक के स्तर पर एक कहानी जैसे फार्मेट में सिमट सकने वाला यह उपन्यास बड़े सलीके से विस्तार पाता है और आशु नामक चरित्र के जरिए बेहद रोचकता के साथ अपने अंजाम तक पहुंचता है। लेखिका ने इस उपन्यास में चिर-परिचित घटनाओं को इस प्रकार से संयोजित किया है, कि वे पाठक को अपने सम्मोहन से बांध सी लेती हैं और पाठक कब आशु के साथ-साथ अंजाम तक पहुंच जाता है, उसे पता भी नहीं चलता।

इस कड़ी में एक महत्वपूर्ण कृति है ‘मां और मैं’। यह एक ऐसे बच्चे की कहानी है, जिसकी दुनिया अत्यंत दरिद्र है। जिंदगी जीने के तमाम इखराजात तो छोड़िए, सुबह शाम की दो जून रोटी के लिए भी जिसकी मां को अथक श्रम करना पड़ता है। लेकिन ऐसी विपन्न परिस्थितियों में पला-बढ़ा बच्चा भी अपनी मां की सतत प्रेरणा से जीवन में एक बड़े लक्ष्य को हासिल करने का जुनून पाल लेता है। ऐसे में उसके सामने क्या-क्या चुनौतियां पेश आती हैं, इसकी जीवंत दास्तान है ‘मां और मैं’।

मां और मैं’ सिर्फ एक बच्चे ही नहीं, एक ऐसी मां की भी दास्तान है, जिसके पास न अपनी छत है, न कोई मददगार और न ही कोई ऐसा हुनर, जिससे उसकी आजीविका चल सके। इसके बावजूद वह अथक श्रम करके अपने बच्चे को न सिर्फ पालती है, बल्कि पग-पग पर आने वाली चुनौतियों से जूझने का मार्ग प्रशस्त करती है। और अंततः वह बेटे की जिंदगी में रौशन सवेरा आने का कारक बनती है। यह मां और बेटे की एक ऐसी गाथा है, जिसमें अभाव है, बेबसी है, पीड़ा है, लेकिन साथ ही भविष्य को बेहतर बनाने और उसके लिए अपनी काया को गला देने की दिल को छू लेने वाली दास्तान भी है। ऐसे कथानक कभी-कभी रचे जाते हैं। और जब भी सामने आते हैं, पाठक को भीतर तक भिगो जाते हैं।

हम ये बात भलीभांति जानते हैं कि बहुत कम बच्चे ऐसे होते हैं, जो अभावों के कंटकों से बिना विचलित हुए निकल पाते हैं। बहुतेरे तो ऐसे होते हैं, जो इन कंटकों से बचने के लिए अपनी दबंगई का सहारा लेने लगते हैं। उन्हें पता ही नहीं चलता कि कब वे ऐसे दलदल में फंसते चले जाते हैं, जो उनके जीवन को कालकोठरी तक पहुंचा सकता है। पैसों की अंधी चमक की एक ऐसी ही अनसुनी कथा है ‘एक और सिंदबाद’! ‘एक और सिंदबाद’ मध्यमवर्गीय परिवार की लालसाओं के बीच पिसते बचपन की भी कहानी है, जो हमें कदम-कदम पर हतप्रभ भी करती है।

ये बात किसी से छिपी नहीं है कि ज्यादातर भारतीय परिवार न सिर्फ रूढ़िवादी सोच से भरे होते हैं, बल्कि लड़कियों को दोयम दर्जे का नागरिक भी मानते हैं। यही कारण है कि जब भी उनके समक्ष कोई आर्थिक चुनौती आती है, तो वे सबसे पहले लड़कियों के खर्चों में कटौती करते हैं और उन्हें शिक्षा तक से वंचित कर देते हैं। किन्तु आजकल की ये लड़कियां जानती हैं कि वे किसी से कम नहीं हैं। और जब वे ठान लेती हैं तो असम्भव को भी सम्भव कर दिखाती हैं। और ऐसे में न सिर्फ उनके परिवारीजन वरन दुनिया जहान के लोग भी उन्हें ‘लाखों में एक’ कहने को मजबूर हो जाते हैं। ‘लाखों में एक’ उपन्यास एक ऐसी ही प्रेरक दास्तान है, जो एक बेहद मामूली लड़की के ‘लाड़ली’ बनने के सफर को रोचकता से बयां करती है और पाठकों के चेहरे पर आश्चर्यमिश्रित मुस्कान बिखेर देती है।

ये कोई कहने की बात नहीं कि साधारण से साधारण बच्चों के भीतर भी कोई न कोई असाधारणता छिपी रहती है। पर अक्सर उनके अभिभावक उसे पहचान नहीं पाते और उन्हें अपनी अपेक्षाओं की भट्टी में झोंक देते हैं। लेकिन कभी-कभी उनके जीवन में कोई ऐसी घटना घट जाती है, जिससे उनका पूरा का पूरा जीवन बदल जाता है और ‘कांच‘ समझा जाने वाला बच्चा ‘हीरे’ की तरह दमक उठता है। ‘हीरे का मोल’ उपन्यास एक ऐसी ही रोचक कहानी है, जो पाठकों को सहज रूप से अपनी ओर आकर्षित करती है।

कभी-कभी बच्चे ‘शॉर्टकट’ के चक्कर में पड़कर ऐसे कदम उठा लेते हैं, जिससे उनके जीवन में भूचाल सा आ जाता है। और जब यह भूचाल थमता है, तो उनके चारों ओर फैली तबाही पछतावे का कारक बनती है। ‘सोने की खान’ एक ऐसी ही हैरतअंगेज कहानी है, जो पाठकों के मस्तिष्क पर न सिर्फ गहरा प्रभाव छोड़ती है, बल्कि उसे सोचने के लिए भी विवश करती है।

बाल जीवन केंद्रित उपन्यासों में अंतिम दो कृतियां हैं ‘नन्हां दधीचि’ और ‘उजली धूप’। इसमें से नन्हां दधीचि एक ऐसे बच्चे की कहानी है, जो अपनी सुख-सुविधाओं से ज्यादा दूसरों की मदद के बारे में सोचता है। इसके लिए न सिर्फ वह अपनी सुविधाओं का त्याग कर देता है, वरन दूसरों के होठों पर मुस्कान लाने के लिए अपना सर्वस्व तक निछावर कर देता है। जबकि ‘उजली धूप’ दो जुड़वा बहनों की कथा है। इनमें से एक बहन सिर्फ अपने बारे में सोचती है और अपनी कामयाबी के रास्ते में आने वाली अपनी बहन का भी मजाक उड़ाने से नहीं चूकती है। जबकि दूसरी बहन अपने उद्देश्यों को लेकर बेहद सहज रहती है। इसके साथ ही साथ वह अपने परिवारिक और सामाजिक दायित्वों का भी निवर्हन करती है और अंत्तोगत्वा अपने सद्गुणों के बल पर हर किसी की आंखों का तारा बन जाती है।

2. समस्यामूलक उपन्यासः

उषा यादव ऐसी रचनाकार हैं, जो बच्चों के सर्वांगीण विकास के साथ ही सामाजिक समस्याओं और विद्रूपताओं पर भी नजर रखती हैं और उन्हें बेहद सलीके से अपनी रचनाओं में पिरो देती हैं। यही कारण है कि उन्होंने न सिर्फ बाल जीवन के विविध पहलुओं बल्कि सामाजिक समस्याओं को भी अपने उपन्यासों का विषय बनाया है और उनके जरिए पाठकों के मध्य सामाजिक चेतना का अलख जगाया है। उनके ऐसे ही समस्यामूलक उपन्यास हैं ‘सोना की आंखें’, ‘फिर से हंसो धरती मां’ और ‘नाचें फिर जंगल में मोर’।

इनमें से पहला उपन्यास ‘सोना की आंखें’ इंसानी लालच और भ्रष्टाचार जैसे गम्भीर विषय पर केंद्रित है, जिसमें राजकीय उद्यान में पले हिरनों की दुर्दशा को केंद्र में रखा गया है। हिरनों के लिए उगायी जाने वाली घास, उनके पीने के लिए उपलब्ध कराये जाने वाले पानी और उनके इलाज के लिए आने वाली दवाओं पर इंसानों की लालची दृष्टि पड़ने के कारण उनकी संख्या आश्चर्यजनक रूप से कम होने लगती है। इसके विरोध में उद्यान के चैकीदार का लड़का आवाज उठाता है और दो अन्य बच्चों के साथ मिलकर कैसे हिरनों के जीवन को बचाता है, यह एक रोचक घटनाक्रम के रूप में पाठकों के समक्ष आता है।

इस श्रेणी का दूसरा उपन्यास ‘फिर से हंसो धरती मां’ हमारे चारों ओर फैले हुए हर तरह के प्रदूषण को केंद्र में रखकर लिखा गया है। यह उपन्यास हमें बताता है कि यदि हमने बेतहाशा बढ़ते हुए प्रदूषण को रोकने के लिए आज ही कदम नहीं उठाया, तो आने वाले समय में हमारा जीवन बेहद दूभर हो जाएगा और तब पछताने पर भी हमारे हाथ कुछ नहीं आएगा।

नाचें फिर जंगल में मोर’ इस श्रेणी का तीसरा उपन्यास है, जो तेजी से लुप्त हो रहे हमारे राष्ट्रीय पक्षी मोर पर केंद्रित है। लेखिका ने मोरों तथा अन्य पक्षियों के लुप्त होने की समस्या को इस उपन्यास में प्रमुखता से उठाया है। इसके बावजूद यह उपन्यास पठनीयता के पैमाने पर पूरी तरह से खरा उतरता है और अपनी आश्चर्यजनक प्रभावोत्पादकता के कारण पाठकों के मन को झकझोर देता है।

3. फैंटेसीपरक उपन्यासः

उषा यादव के बाल उपन्यासों में जहां एक ओर बाल जीवन की विभिन्न झाकियां देखने को मिलती हैं, वहीं दूसरी ओर उनकी रचनाओं में फैंटेसी का आश्चर्यलोक भी अपने विराट स्वरूप में नजर आता हैं। ‘किले का रहस्य’, ‘सातवां जन्म’ और ‘बोलते खण्डहर’ उनके ऐसे ही बाल उपन्यास हैं। वे इन रचनाओं में कल्पना का ऐसा मायालोक रचती हुई नजर आती हैं, जिसके सम्मोहन से बच पाना पाठक के लिए सम्भव नहीं रह पाता। इन उपन्यासों में परी कथाओं वाली कल्पनाशीलता को आज के कटु यथार्थ के साथ अत्यंत कुशलता से पिरो दिया गया है। इस वजह से जहां एक ओर ये आनंदित करते हैं, वहीं हमें सोचने के लिए भी विवश करते हैं। और यही इनकी सार्थकता भी है।

उषा यादव के बाल उपन्यासों के कथानक को जब हम गहराई से देखते हैं, तो उसमें हमारे समाज के कटु यथार्थ का प्रामाणिक अंकन दिखाई पड़ता है। पर इसके साथ ही उस विकृत समाज को संवारने और उसे एक आदर्श स्वरूप प्रदान करने की उनकी ललक भी हमें जगह-जगह दृष्टिगोचर होती है। लेकिन इसके साथ ही साथ बाल मनोभावनाओं का सूक्ष्म अंकन और उनकी मासूम चाहतों का कुशल चित्रण भी उनके उपन्यासों की एक प्रमुख विशेषता है। इसका एक छोटा सा उदाहरण ‘मां और मैं’ उपन्यास के मुख्य पात्र आशुतोष में देखा जा सकता है। आशुतोष एक गरीब विधवा मां का इकलौता बेटा है, जो उसे किसी तरह मेहनत-मजदूरी करके पढ़ा रही है। आशुतोष भी अपनी मां की स्थिति को समझता है। इसलिए वह अपनी इच्छाओं का दमन कर चुका है। लेकिन जब एक बार स्वतंत्रता दिवस पर उसके स्कूल में लड्डू के स्थान पर आइसक्रीम मिलती है, तो उसे चखने के बाद वह अपनी मासूम हसरतों पर नियंत्रण नहीं रख पाता और उसके मन में भी अभिलाषाएं कुलबुला उठती हैं-

‘‘एक आइसक्रीम ने मेरे मन में एक और आइसक्रीम खाने का लोभ जगा दिया था। अपनी गरीबी को लेकर मेरे भीतर गहरा मलाल जागा। यह आइसक्रीम तो मेरी कक्षा के अनेक बच्चे रोज ही छुट्टी के बाद खाते हैं। विद्यालय के फाटक के बाहर आइसक्रीम के कई ठेले जो खड़े रहते हैं। उन्हें नित्य ही तो इस तरह गोलगप्पे खाते, मीठी चुस्की उड़ाते और आइसक्रीम को गपागप चट करते देखता हूं मैं। कभी मन में कोई भाव नहीं जागा। पर आज पहली बार आइसक्रीम का स्वाद चखने पर ऐसा महसूस हो रहा था कि इस अनूठे सुख को, चाहे जैसे भी हो, मुझे दुबारा लूटना ही है।’’ (पृष्ठ-351, खण्ड-3)

चाहे वह आइसक्रीम के लिए बच्चे का मचलना हो, या फिर खिलौनों को पाने की जिद करना, इसके लिए न बच्चे को डांटा जा सकता है और न ही न अपनी गरीबी का रोना रोकर उसे मन मारने का उपदेश दिया जा सकता है। ऐसे नाजुक अवसरों को एक मां की समझदारी ही हैंडल कर सकती है। और वह समझदारी इन रचनाओं में सर्वत्र देखी जा सकती है-

‘‘उधर मां बोलती जा रही थी- ‘और आसमान का चंदा मामा? आकाश के चमकीले तारे? इधर-उधर दौड़ने वाले बादलों के छौने? ये सारे के सारे तेरे दोस्त ही तो हैं। पार्क में आने वाले अमीर बच्चों के ऊंचे-बहुमंजिले फ्लैट्स में तो इन्हें देखने का कोई जरिया ही नहीं है। ले-देकर बचती हैं, दो-एक बालकनी, जिन्हें भी वे लोग सामान रखने के लोभ में ऊपर से और सामने से घेर लेते हैं।’’ (पृष्ठ-235, खण्ड-3)

पर अमूमन हमारे समाज में बच्चों को न तो इतना प्यार मिलता है और न ही ऐसी समझदार माएं। इसके उलट ज्यादातर घरों में वक्त-बेवक्त बच्चों को सिर्फ डांट नसीब होती है और उनकी कमियों को अत्यंत बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जाता है। अगर संयोग से वह बच्चा ‘लड़की’ हुआ, तो फिर उसकी स्थिति और दयनीय हो जाती है। उसे हर बात पर लड़की होने का एहसास कराया जाता है और उसके जीवन का चरम लक्ष्य ससुराल जाना ही बताया जाता है। लेकिन जब कभी किसी संवेदनशील बच्ची को कहीं थोड़ा सा भी प्यार और मार्गदर्शन मिल जाता है, तो उसके जीवन में बड़ा बदलाव आ जाता है। इस बात को ‘लाखों में एक’ उपन्यास में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है-

‘‘इति को महसूस हुआ जैसे यह छोटा-सा प्रोत्साहन उसके लिए हीरो-मोतियों से भी ज्यादा कीमती है। उसने मन ही मन संकल्प किया कि वह भी जरूर कुछ बनकर दिखायेगी। उसके घर में तो कोई ऐसी अच्छी बातें नहीं बताता। बड़ी दीदी से मां और दादी जरूर कहती हैं कि घर का काम-काज सीखो, तुम्हें ससुराल जाना है। पर पढ़-लिखकर कुछ बनने की बात किसी लड़की से नहीं कही जाती। ...आज तक वह यही समझती थी कि लड़कियां बड़ी होकर ससुराल जाती हैं और लड़के बड़े होकर ऊंचा अफसर बनते हैं।’’ (पृष्ठ-117, खण्ड-1)

स्नेह की दो बूंदें किसी उपेक्षित लड़की के जीवन ही नहीं, उद्दण्ड और जिद्दी लड़के की सोच को भी बदल सकती हैं, इसका सटीक उदाहरण ‘पारस पत्थर’ उपन्यास है। उपन्यास का नायक एक बद्तमीज लड़का है, जो अपने दादा-दादी के साथ रहता है। न तो उसका मन पढ़ने-लिखने में लगता है और न ही वह घर वालों का सम्मान करता है। लेकिन एक दिन जब उसके जीवन में उसके स्वर्गवासी पिता के अध्यापक आते हैं, तो एक ही मुलाकात में उसकी विचारधारा में आमूलचूल परिवर्तन हो जाता है-

‘‘रवि की आंखें फिर सजल हो उठीं। इन देवी-देवता सरीखे दादी-दादा की कीमत उसने आज तक क्यों नहीं पहचानी? कितना ध्यान रखते हैं ये लोग उसका! उसकी छोटी से छोटी जरूरत को भी तुरंत पूरा करते हैं और वह इन्हीं लोगों को बात-बेबात ताने दिया करता है। दो दिन पहले पेन की बात पर उसने कहा था कि भिखारी समझकर भीख देने की जरूरत नहीं है। छिः, क्या सोचा होगा दादी ने अपने मन में? बेचारी एकदम उदास हो गई थीं। अब वह हमेशा ध्यान रखेगा कि अपने इतने अच्छे दादा-दादी को कभी दुखी न करे।’’ (पृष्ठ-55, खण्ड-1)

उषा यादव इस बात से भलीभांति परिचित हैं कि व्यक्ति के जीवन में परिवर्तन तभी आता है, जब उसके साथ कोई कोई बड़ी घटना घटित होती है। इस सिद्धांत को उन्होंने अपने उपन्यासों में बेहद कामयाबी के साथ अपनाया है। और इसी की शानदार परिणति ‘नाचें फिर जंगल में मोर’ में देखी जा सकती है। उपन्यास का नायक पावस मोर संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए एक नाटक लिखता है। वह उसके मंचन के समय कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में उन्हीं लोगों को बुलाता है, जो सीधे-सीधे मोरों की हत्या से जुड़े हुए हैं-

‘‘होटल मालिक गुस्से से कांपने लगा, ‘‘तुझे यह जरा-सा खून दिख रहा है? मेरी आंखों के आगे सितारे नाच रहे हैं, तुझे चोट लगी होती, तब पता चलता।’’

‘‘खुद चोट खाकर सचमुच पता चल जाता है, साबजी?’’ मोर ने अपनी आंखें टिमकाईं, ‘‘तब तो आपको भी चूल्हे पर चढ़कर पतीले में पकने वाले, छुरे से काटे गए मोरों का दर्द महसूस हो रहा होगा?’’ (पृष्ठ-201, खण्ड-2)

मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि सिर्फ कथानक और प्राभावोत्पादकता की दृष्टि से ही नहीं, बाल साहित्य समीक्षा के जितने भी पैमाने हैं, ये उपन्यास उन सभी पर पूरी तरह से खरे उतरते हैं। उपन्यासों में आए चरित्रों की स्पष्ट छाप, घटनाओं का जीवंत चित्रण, भाषा की रवानगी और संवादों की सजीव प्रस्तुतियों के मध्य स्वाभाविक रूप से पिरोये गये जीवन दर्शन रूपी मोती इन कृतियों को वह ऊंचाई प्रदान करते हैं, जहां पहुंच कर एक पाठक को सार्थकता का एहसास होता है। हालांकि बालसाहित्य की ज्यादातर रचनाएं इस दृष्टि से निराश करती हैं, पर उषा यादव के यह उपन्यास इस नजरिए से लाजवाब हैं और पाठकों को हिन्दी बाल साहित्य के उस श्रेष्ठ स्वरूप से परिचित कराते हैं, जिसे हम सहर्ष विश्व साहित्य के समकक्ष रख सकते हैं।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि ‘उषा यादव के बालउपन्यास’ (समग्र) एक ऐसा अनमोल खजाना है, जिसे पाकर कोई भी बच्चा गदगद हुए बिना नहीं रह सकता। ये उपन्यास जहां एक ओर पाठकों को आनंद की अनुभूति कराते हैं, वहीं उन्हें जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा भी देते हैं। इस समग्र के सभी उपन्यास पूर्व में विभिन्न प्रकाशकों के द्वारा पृथक-पृथक प्रकाशित हो चुके हैं। किन्तु इनमें से ज्यादातर की उपलब्धता असुविधाजनक रही है। ऐसे में इनका समग्र के रूप में सामने आना बालसाहित्य जगत के लिए एक आह्लादकरक सूचना है। इसके लिए लेखिका पद्मश्री उषा यादव ही नहीं इसके प्रकाशक भी बधाई के हकदार हैं।

पुस्तक- उषा यादव के बालउपन्यास (समग्र-तीन खण्ड)
लेखक- उषा यादव
सम्पादक- कामना सिंह
प्रकाशक- नमन प्रकाशन, 4231/1, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002 मोबाइल- 8595352540
प्रकाशन वर्ष- 2023
कुल पृष्ठ- 1282
कुल मूल्य- 3250

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. कामना सिंह3/09/2024 8:28 am

    बहुत प्रभावोत्पादक समीक्षा। हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ।

    जवाब देंहटाएं
  2. उषा यादव के कथा संसार से परिचय कराने के लिए शुक्रिया, सार्थक समीक्षा

    जवाब देंहटाएं
आपके अल्‍फ़ाज़ देंगे हर क़दम पर हौसला।
ज़र्रानवाज़ी के लिए शुक्रिया! जी शुक्रिया।।

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उषा यादव के बाल उपन्यासों का रोचक संसार
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