भले ही धीरे-धीरे बच्चों की पत्रिकाएं दम तोड़ रही हों, भले ही तमाम अखबारों ने बालसाहित्य को अलविदा कह दिया हो, भले ही बुद्धू बक्से ने किताब...
भले ही धीरे-धीरे बच्चों की पत्रिकाएं दम तोड़ रही हों, भले ही तमाम अखबारों ने बालसाहित्य को अलविदा कह दिया हो, भले ही बुद्धू बक्से ने किताबों को एक तरह से विस्थापित ही कर दिया हो, भले ही आज के बच्चे अन्यान्य कारणों से साहित्य से दूर होते जा रहे हों और भले ही लोगों को लगता हो कि हिन्दी में बाल साहित्य की बेहद कमी है, पर बावजूद इसके हिन्दी बाल साहित्य विपुल मात्रा में लिखा जा रहा है। और वह न सिर्फ खूब लिखा जा रहा है, बल्कि बेहद आकर्षक साज-सज्जा के साथ प्रकाशित भी हो रहा है।
एक समय था जब बाल साहित्य का मतलब उपदेशात्मक कविताओं अथवा लोककथाओं, परीकथाओं तथा जादू-टोने की कहानियों से लिया जाता था, लेकिन अब यह सब बीते जमाने की बातें हो गयी हैं। आज के बाल साहित्य के केन्द्र में आज का बच्चा है। वह बच्चा, जिसके सामने एक ओर तो सपनों का असीम संसार है, तो दूसरी ओर चुनौतियों का बड़ा सा पहाड़ भी मौजूद है। यही कारण है कि आज का बाल साहित्य बच्चों की बात करता है। वह न सिर्फ उसका मनोरंजन करता है, बल्कि उसका ज्ञानवर्द्धन भी करता है और उसे सामाजिक विद्रूपताओं से जूझने की शक्ति भी देता है।
एक समय था कि जब बाल साहित्य के नाम पर सिर्फ कविता, कहानी, नाटक और उपन्यासों का ही चलन था, पर आज चित्र-प्रधान कहानियां, चित्र कथाएं, जीवनी, विज्ञान साहित्य एवं समीक्षात्मक साहित्य की दिशा में भी उल्लेखनीय कार्य हो रहा है। बाल साहित्य की यह विपुल सम्पदा जहां बेशुमार निजी प्रकाशन संस्थाओं के द्वारा सामने आ रही है, वहीं सरकारी प्रकाशन संस्थान भी इसमें पीछे नहीं हैं। विशेषकर प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय तथा नेशनल बुक ट्रस्ट इस क्षेत्र के दो ऐसे नाम हैं, जिन्होंने इस दिशा में बेहद सराहनीय कार्य किया है।
बालसाहित्य की इस सम्पदा को बढ़ाने में हिन्दी वेबसाइट्स भी महती भूमिका निभा रही हैं। अगर हम कविता की लोकप्रिय वेबसाइट ‘कविताकोश’ और गद्य विधाओं की संचयिका के रूप में चर्चित ‘गद्यकोश’ की ही बात करें, तो यहां पर भी बाल साहित्य भरपूर मात्रा में देखा जा सकता है। इस दिशा में ‘अभिव्यक्ति’, ‘अनुभूति’ तथा ‘रचनाकार’ जैसी ऑनलाइन पत्रिकाएं भी सराहनीय कार्य कर रही हैं। वहीं महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय द्वारा संचालित हिन्दी साहित्य का वृहद ऑनलाइन संग्रह ‘हिन्दी समय’ में भी बाल साहित्य का एक अच्छा संचयन देखने को मिलता है। इसके अलावा विभिन्न बाल साहित्यकारों द्वारा संचालित ब्लॉग भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि बाल साहित्य में सब कुछ बेहतर ही बेहतर है। हमें न चाहते हुए भी यह स्वीकारना पड़ता है कि पिछले कुछ एक वर्षों से बाल साहित्य का बाजार सिकुड़ रहा है। भले ही बाजार उद्योग में छाई मल्टीनेशनल कंपनियों के जादुई प्रभाव वाले विज्ञापनों से प्रभावित होकर भारतीय अभिभावक प्रतिवर्ष 200 करोड़ रू0 आइसक्रीम पर और 1000 करोड़ रू0 खिलौनों पर खर्च कर देते हों, पर बच्चों के साहित्य के नाम पर 20 रू0 की पत्रिका खरीदना उन्हें पैसों की ‘बर्बादी’ लगने लगता है। यही कारण ही पिछले कुछ एक सालों में बाल पत्रिकाओं की प्रसार संख्या में काफी कमी आई है। बाजार में ‘नंदन’, ‘चंपक’, ‘नन्हे सम्राट’, ‘सुमन सौरभ’ के अलावा अन्य नाम देखने को भी नहीं मिलते। हालांकि आज भी ‘बाल भारती’, ‘चकमक’, ‘बालवाणी’ एवं ‘बालवाटिका’ जैसी उत्कृष्ट पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं, लेकिन इन्हें खोज पाना भी किसी चुनौती से कम नहीं होता है।
इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में ज्यादातर अभिभावक इस मानसिकता से ग्रस्त हो गये हैं कि यदि बच्चे अपनी पढ़ाई के अलावा अन्य किसी सामग्री पर अपना समय लगाएंगे, तो वे नम्बरों की दौड़ में पीछे रह जाएंगे। जबकि मनोवैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया है कि यह सोच नितांत गलत है। क्योंकि बाल साहित्य बच्चों के मानसिक विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है। यह न सिर्फ उनका मनोरंजन करता है, वरन उनके तनाव को कम करने में भी मददगार साबित होता है। इसलिए अभिभावकों को चाहिए कि वे बच्चों को अच्छी मानसिक खुराक प्रदान करने के लिए उन्हें कम से कम एक अच्छी बाल पत्रिका भी उपलब्ध कराएं।
यह सच है कि आज मनोरंजन के नाम पर बच्चों के सामने मोबाइल, कम्प्यूटर, इंटरनेट, टीवी, वीडियो गेम जैसे अनेकानेक साधन मौजूद हैं। लेकिन मनोरंजन के इन माध्यमों में जिस गति से हिंसा और ‘एडल्ट कंटेन्ट’ का प्रवेश हुआ है, वह अनेक मानसिक विकारों का कारक भी बन रहा है। इसके परिणाम स्वरूप बच्चे समय से पहले बड़े हो रहे हैं। साथ ही वे चिड़चिड़े, जिद्दी, क्रोधी और हिंसक भी बन रहे हैं। इसी के साथ ही साथ वे तनाव के शिकार हो रहे हैं, अवसाद की गिरफ्त में जा रहे हैं और आत्महत्या की ओर भी उन्मुख हो रहे हैं।
ये संकेत बेहद खतरनाक हैं। इन्हें अभिभावकों को समझना होगा और बच्चों को मनोरंजन के स्वस्थ साधनों से जोड़ना होगा। और निश्चय ही स्वस्थ बाल साहित्य इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।(हिन्दुस्तान टाइम्स के विशेष परिशिष्ट, हिन्दुस्तान रविवासरीय, लखनऊ, दिनांक 07 दिसम्बर, 2014 में प्रकाशित)
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Aapne kya baat kahi. Mera bhi Apna ek bachpan hi tha jab champak au anya balpatrikaye parha karata tha lekin ab to dekh raha hu ki in patrikao ka koi sthaan nahi rah gaya hai sivaay in electronic gudget ke ke..
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