हिन्दी विज्ञान कथा के इतिहास एवं उसकी प्रवृत्तियों पर दृष्टि डालता एक आलोचनात्मक अध्ययन।
लखनऊ में आयोजित 'क्षेत्रीय भाषाओं में विज्ञान कथा लेखन' राष्ट्रीय विज्ञान कथा लेखन कार्यशाला के अवसर पर ('जनसंदेश टाइम्स' में प्रकाशित विशेष रविवारीय फीचर
(इसी के साथ परिशिष्ट में विज्ञान कथा के सम्बंध में विद्वानों के विचार भी प्रकाशित किये गये हैं। उन्हें पढ़ने के लिए कृपया यहां पर क्लिक करें।)
पता नहीं भारतीय उपमहाद्वीप की जलवायु का यह कैसा प्रभाव है कि यहाँ के जनमानस में कभी ज्ञान-विज्ञान के प्रति सकारात्मक माहौल बन ही नहीं पाया? इसके विपरीत समाज में लोकविश्वास के नाम पर अंधविश्वास न सिर्फ पीढ़ी दर पीढ़ी प्रगाढ़ होते रहे हैं, वरन उन्होंने ज्ञान एवं अन्वेषण की प्राचीन परम्परा को विनष्ट करने का कार्य भी किया है। यह किसी से छिपा नहीं है कि हमारे देश ने सुश्रुत, चरक, आर्यभट एवं भास्कराचार्य जैसे महान वैज्ञानिक दुनिया को दिये हैं, जिन्होंने अपने ज्ञान-विज्ञान के द्वारा सारी दुनिया का नेतृत्व किया है। किन्तु हैरानी की बात यह है कि आर्यभट तक आते-आते चिंतन की वह वैज्ञानिक धारा क्षीण पड़ने लगती है। यही कारण है कि जब आर्यभट अपने अध्ययन के आधार पर लोक मान्यता के विपरीत जाकर यह कहने का साहस जुटाते हैं कि धरती अपने अक्ष पर घूमती रहती है, जिसके कारण हमें खगोल घूमता हुआ नजर आता है, तो ब्रह्मगुप्त जैसा वैज्ञानिक भी उनकी सख्त आलोचना करता हुआ पाया जाता है।
यूँ तो कहने को हमारे देश में घाघ और भड्डरी जैसे जनकवि भी हुए हैं, जिन्होंने अपने अध्ययन एवं पर्यवेक्षण के आधार पर खेती एवं मौसम से सम्बंधित तर्कपूर्ण ज्ञान को कहावतों के रूप में सहेजा है, जिसका फायदा किसान सहज रूप में उठाते रहे हैं। लेकिन इसके बावजूद हमारे समाज में अतार्किक एवं अवैज्ञानिक धारणाओं का इतना ज्यादा बोलबाला है कि एक ओर जहाँ आम आदमी उनके वशीभूत होकर अपना अनर्थ करवाता रहता है, वहीं समर्पित साहित्यकार भी अनजाने में ‘मंत्र’ (प्रेमचंद) जैसी कहानियों और ‘एक बूँद’ (अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’) जैसी कविताओं के द्वारा परोक्ष रूप में उसका प्रचार/प्रसार करते नजर आते हैं। भले ही आज के समय में यह एक प्रामाणिक जानकारी है कि न तो किसी मंत्र के द्वारा किसी जहरीले साँप का विष उतारा जा सकता है और न ही मोती बनने की प्रक्रिया का स्वाति नक्षत्र की पहली बूँद से कोई सम्बंध होता है, बावजूद इसके ये और ऐसी तमाम रचनाएँ बच्चों को पढ़ाई जा रही हैं, बिना इस बात की चिन्ता किए कि इसके दुष्प्रभाव कितने घातक हो सकते हैं।
हालाँकि साहित्यकार का दायित्व यह भी होता है कि वह अपनी रचनाओं के द्वारा ‘सत्य’ को सामने लाए और समाज में फैले ढ़ोंग और पाखण्ड का विनाश करे। किन्तु दुर्भाग्यवश यहाँ पर प्रारम्भ से ही स्थितियाँ कुछ ऐसी रही हैं कि साहित्यकार भी अक्सर अतार्किक और अंधविश्वास सम्बंधी धारणाओं के विखण्डन के स्थान पर उसे पुष्पित-पल्लवित करते हुए नजर आते हैं। यही कारण है कि सहित्यिक ग्रन्थों में हीरा चाटकर मरने जैसे झूठे विश्वास और ज्योतिषियों द्वारा प्रामाणिक भविष्यवाणी करने जैसे भ्रामक प्रसंग खूब देखने को मिलते हैं।
समाज में व्याप्त इन अवैज्ञानिक एवं अंधविश्वासों के विरूद्ध जागरूक करने का एक सशक्त माध्यम विज्ञान कथाएँ भी हैं। विज्ञान कथाओं के लेखन की शुरूआत यूँ तो पश्चिम में हुई, लेकिन अन्य साहित्यिक प्रवृत्तियों की ही भाँति आज यह भारत में खूब प्रचलित है और लगभग समस्त भारतीय भाषाओं में बड़े पैमाने पर लिखी जा रही है।
विज्ञान कथा के मानदण्ड:
विज्ञान कथा के लिए अंग्रेजी साहित्य में मुख्य रूप से दो शब्द प्रचलित हैं। ‘साइंस फिक्शन’ (science fiction) और ‘साइंस फैंटेसी’ (science fantasy)। फिक्शन एक लैटिन शब्द है, जिसका अर्थ होता है आविष्कार करना। जबकि ‘फैंटेसी’ यूनानी शब्द है, जिसका अर्थ कल्पना करने से लगाया जाता है। यही कारण है कि विज्ञान कथा के रूप में अंग्रेजी साहित्य में मुख्य रूप से दो तरह की विज्ञान कथाएँ देखने को मिलती हैं। साइंस फिक्शन के अन्तर्गत वे रचनाएँ आती हैं, जो विज्ञान के मान्य नियमों से बंधी होती हैं और उनके आसपास रची जाती हैं। जबकि साइंस फैंटेसी में ऐसी कोई सीमा नहीं होती। उसमें रचनाकार विज्ञान के नियमों से इतर भी कल्पना की उड़ान भरते पाए जाते हैं। हिन्दी में इन दोनों प्रकार की रचनाओं के लिए आमतौर से ‘विज्ञान कथा’ का ही प्रयोग किया जाता है। यद्यपि कुछ लोग बंग्ला साहित्य के प्रभाव के कारण इसे ‘विज्ञान गल्प’ अथवा विज्ञान की प्रधानता के कारण ‘वैज्ञानिक कहानी’ (Vaigyanik kahani) भी कहते पाए जाते हैं, पर यह आमतौर से ‘विज्ञान कथा’ (vigyan katha) के रूप में ही जानी जाती है।
यदि विज्ञान कथा की परिभाषा की बात की जाए, तो संक्षेप में कहा जा सकता है कि जो कथा विज्ञान को केन्द्र में रखकर बुनी जाए, वह विज्ञान कथा कहलाती है। यदि इस परिभाषा को थोड़ा और विस्तार दिया जाए, तो हम कह सकते हैं कि जो कथा वैज्ञानिक सिद्धाँतों, प्रकियाओं के फलस्वरूप उपजी हो, जिस रचना में विज्ञान संभाव्य कहानी को केन्द्र में रखा गया हो अथवा जो कथा विज्ञान को केन्द्र में रखकर कल्पना की बेलौस उड़ान भरती हो, वह विज्ञान कथा कहलाने की अधिकारी है। लेकिन इस उड़ान के लिए भी यह जरूरी है कि उसमें विज्ञान के ज्ञात नियमों का ध्यान रखा जाए और यदि लेखक वर्तमान ज्ञात नियमों से इतर भी कोई परिकल्पना प्रस्तुत कर रहा हो, तो उसके पास उसका पर्याप्त वैज्ञानिक आधार होना चाहिए।
किन्तु दुर्भाग्य का विषय यह है कि हिन्दी में अभी तक विज्ञान कथाओं को लेकर बहुत ज्यादा भ्रम है। विज्ञान कथा लेखकों की एक बड़ी संख्या अभी भी ऐसी है, जो विज्ञान के उपकरणों, वैज्ञानिक यानों अथवा दूसरे ग्रह से आए प्राणियों को लेकर रची गयी कहानियों को ही विज्ञान कथा समझते हैं। इसके साथ ही साथ हिन्दी में कुछ ऐसे भी रचनाकार हैं जो ‘कोयले की कहानी’, ‘बिजली की कहानी’ जैसे जानकारीपरक लेखों को ही विज्ञान कथा कहने लगते हैं। जाहिर सी बात है कि ऐसा अज्ञानतावश ही होता है। इसके लिए जहाँ नवोदित रचनाकर अध्ययन से दूर रहने के दोषी हैं, वहीं विज्ञान कथाओं से सम्बंधित आलोचनात्मक साहित्य का उपस्थित न होना भी इसकी एक प्रमुख वजह है।
विज्ञान कथा की परम्परा:
यूँ तो कुछ लोग विज्ञान कथा की शुरूआत सन 1488 से मानते हैं, जब विश्व प्रसिद्ध चित्रकार लियोनार्दो द विन्सी ने ‘फ्लाइंग मशीन’ (flying machine) की कल्पना की थी। लेकिन हकीकत में वह सिर्फ एक मशीन की कल्पना भर थी, जबकि विज्ञान कथा के लिए ‘कथा’ तत्व की भी आवश्यकता हुआ करती है। इस नजरिए से पहली विज्ञान कथा लिखने का श्रेय अंग्रेजी के महान कवि पी0बी0 शैली की पत्नी मेरी शैली को जाता है। उन्होंने 21 वर्ष की अवस्था में ‘फ्रेंकेंस्टीन’ (frankenstein) नामक उपन्यास लिखा, जो 1818 में प्रकाशित हुआ। इसे ही विश्व की पहली विज्ञान कथा का दर्जा प्राप्त है।
मेरी शैली (mery shaily) के बाद अगर किसी ने विज्ञान कथा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया, तो वे थे फ्रेन्च लेखक जूल्स वर्न (jules verne)। उनका पहला उपन्यास ‘फाइव वीक्स इन ए बैलून’ (five weeks in a balloon) 1863 में प्रकाशित हुआ। उसके बाद उन्होंने ‘ए जर्नी टू द सेन्टर ऑफ अर्थ’ (a journey to the center of the earth), ‘फ्रॉम द अर्थ टू द मून’ (from the earth to the moon), ‘एराउंड द मून’ (around the moon), ‘एराउंड द वर्ल्ड इन 80 डेज’ (around the world in eighty days ), आदि 5 दर्जन से अधिक वैज्ञानिक उपन्यासों की रचना की, जिनकी साहित्यिक जगत में धूम रही।
जूल्स वर्न ने जहाँ अपने वैज्ञानिक उपन्यासों के द्वारा साहित्यिक जगत में हलचल मचाई, वहीं एच.जी. वेल्स (H G Wells) ने अपने वैज्ञानिक उपन्यासों के द्वारा विज्ञान कथा को एक साहित्यिक विधा के रूप में स्पष्ट पहचान दिलाई। उनका सबसे पहला उपन्यास ‘द टाइम मशीन’ (the time machine) 1895 में प्रकाशित हुआ। उन्होंने उसके अतिरिक्त ‘द इनविजिबल मैन’ (the invisible man), ‘द वार ऑफ द वर्ल्डस’ (the war of the worlds) और ‘द फर्स्ट मैन इन द मून’ (the first man in the moon) आदि चर्चित उपन्यास लिखे, जो सारे विश्व में सराहे गये। जूल्स वर्न और एच.जी. वेल्स की रचनाओं ने न सिर्फ लोकप्रियता के नए आयाम स्थापित किये, वरन सम्पूर्ण विश्व में विज्ञान कथाओं की अलख भी जगाई। जाहिर सी बात है कि इसका असर हिन्दुस्तानी लेखकों पर भी पड़ना ही था।
हिन्दी में पहली विज्ञान कथा लिखने वालों में अम्बिका दत्त व्यास का नाम आता है, जिन्होंने जूल्स वर्न के लोकप्रिय उपन्यास ‘ए जर्नी टू द सेन्टर ऑफ अर्थ’ से प्रेरित होकर ‘आश्चर्य वृत्तांत’ (aascharya vrittant) नामक उपन्यास लिखा। यह उपन्यास ‘पीयूष प्रवाह’ (piyush pravah) नामक पत्रिका में 1884-88 के मध्य प्रकाशित हुआ। इसके काफी समय बाद ‘सरस्वती’ के जून 1900 में प्रकाशित भाग-1, संख्या-6 में केशव प्रसाद सिंह की विज्ञान कथा ‘चंद्रलोक की यात्रा’ प्रकाशित हुई। लेकिन इस पर भी जूल्स वर्न के उपन्यास ‘फ्रॉम द अर्थ टू द मून’ की छाया स्पष्ट रूप से दखी जा सकती है। इसलिए इन दोनों रचनाओं को हिन्दी की पहली मौलिक विज्ञान कथा का दर्जा नहीं दिया जा सकता। ऐसे में इस पद की हकदार बनती है सत्यदेव परिव्राजक की कहानी ‘आश्चर्यजनक घण्टी’, जोकि सन 1908 में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुई थी। यह कहानी ध्वनि अनुनाद पर आधारित है और विज्ञान कथा के समस्त मानदण्डों पर खरी उतरती है।
सत्यदेव परिव्राजक के बाद विज्ञान कथा के क्षेत्र में छिटपुट प्रयास हुए, जिनमें 1915 में प्रकाशित प्रेम वल्लभ जोशी की कहानी ‘छाया पुरूष’ तथा अनादिधन बंद्योपाध्याय की रचना ‘मंगल यात्रा’ के नाम शामिल हैं। लेकिन इस दिशा में पहली बार अगर किसी ने गम्भीर कार्य किया, तो वह नाम है दुर्गा प्रसाद खत्री। ‘चंद्रकाँता’ के लिए जगविख्यात देवकी नंदन खत्री की सुपुत्र दुर्गा प्रसाद खत्री ने न सिर्फ अपने पिता के ‘भूतनाथ’ एवं ‘रोहतास मठ’ उपन्यासों को संपूरित किया, वरन उन्होंने ‘सुवर्ण रेखा’, ‘स्वर्गपुरी’, ‘सागर सम्राट’ और ‘साकेत’ जैसे वैज्ञानिक उपन्यास भी लिखे।
हिन्दी विज्ञान कथाओं के क्षेत्र में राहुल सांकृत्यायन द्वारा रचित ‘बाइसवीं सदी’ का भी महत्वूपर्ण स्थान है, जिसमें उन्होंने आने वाले भविष्य की वैज्ञानिक कल्पना की है। राहुल सांकृत्यायन के बाद इस क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने वालों में डॉ0 ब्रहमोहन गुप्त (दीवार कब गिरेगी), यमुना दत्त वैष्णव ‘अशोक’ (अस्थिपंजर, शैलगाथा, श्रेष्ठ वैज्ञानिक कहानियाँ, पुरस्कृत विज्ञान कथा साहित्य आदि), डॉ0 सम्पूर्णानंद (पृथ्वी के सप्तर्षि मण्डल), डॉ0 नवल बिहारी मिश्र (अधूरा आविष्कार एवं सत्य और मिथ्या) आदि के नाम प्रमुख हैं। यमुना दत्त वैष्णव अशोक ने जहाँ अपनी मौलिक विज्ञान कथाओं के द्वारा विज्ञान कथा साहित्य के भण्डार को भरा, वहीं नवल बिहारी मिश्र ने अंग्रेजी सहित्य की विज्ञान कथाओं का हिन्दी अनुवाद करके उसे समृद्ध बनाया।
इसके बाद हिन्दी में विज्ञान कथाकारों की एक लम्बी परम्परा दिखाई पड़ती है, जिनमें डॉ0 ओमप्रकाश शर्मा (महामानव की मंगल यात्रा, जीवन और मानव, गाँधी युग पुराण एवं युगमानव), आचार्य चतुरसेन शास्त्री (खग्रास), सत्य प्रभाकर (पराजय), रमेश वर्मा (सिंदूरी ग्रह की यात्रा, अंतरिक्ष स्पर्श, अंतरिक्ष के कीड़े), रमेश दत्त शर्मा (प्रयोगशाली प्राण, हरा मानव, हंसोड़ जीन), कैलाश शाह (मृत्युंजयी, असफल विश्वामित्र, मशीनों का मसीहा), माया प्रसाद त्रिपाठी (आकाश की जोड़ी एवं साढ़े सात फुट की तीन औरतें), राजेश्वर गंगवार (शीशियों में बंद दिमाग, साढ़े सैंतीस वर्ष), प्रेमानंद चंदोला (खामोश आहट, चीखती टप-टप) के नाम मुख्य रूप से लिये जा सकते हैं।
हिन्दी विज्ञान कथाएँ यूँ तो समय समय पर ‘सरस्वती’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ और ‘धर्मयुग’ जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं, लेकिन अगर किसी पत्रिका ने इनके प्रकाशन को सबसे ज्यादा प्रोत्साहन दिया है, तो उसमें ‘विज्ञान’ (इलाहाबाद) एवं ‘विज्ञान प्रगति’ का प्रमुख योगदान रहा है। इसके अतिरिक्त गत 09 वर्षों से निरंतर प्रकाशित हो रही ‘विज्ञान कथा’ (त्रै0) पत्रिका भी विज्ञान कथा की मशाल को लगातार जलाए रखे हुए है। इन तमाम प्रयासों के कारण वर्तमान में हिन्दी विज्ञान कथाकारों की एक बड़ी जमात सक्रिय नजर आती है। इन रचनाकारों में शुकदेव प्रसाद (हिमीभूत और अन्य विज्ञान कथाएँ, भारतीय विज्ञान कथाएँ), डॉ0 अरविंद मिश्र (एक और क्रौंच वध), देवेन्द्र मेवाड़ी (भविष्य, कोख), राजीव रंजन उपाध्याय (आधुनिक ययाति, सूर्य ग्रहण), ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ (गिनीपिग, विज्ञान कथाएँ), हरीश गोयल (तीसरी आँख, आपरेशन पुनर्जन्म), जीशान हैदर जैदी (प्रोफेसर मंकी, ताबूत), मनीष मोहन गोरे (325 साल का आदमी), विष्णु प्रसाद चतुर्वेदी (अंतरिक्ष के लुटेरे), कल्पना कुलश्रेष्ठ (उस सदी की बात), अमित कुमार (प्रतिद्वन्द्वी), इरफान ह्यूमन आदि के नाम मुख्य रूप से लिये जा सकते हैं।
विज्ञान कथाओं की सीमाएँ:
प्राचीन भारतीय काल में जहाँ आर्यभट एवं भास्कराचार्य जैसे वैज्ञानिकों ने अपनी स्थापनाओं एवं ज्ञान को अभिव्यक्त करने के लिए लोकभाषा की उपेक्षा करके संस्कृत का इस्तेमाल किया था, वहीं आज के वैज्ञानिक भी शोध सम्बंधी कार्य व्यवहार के लिए अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं। इसके अतिरिक्त वे अपनी बात को कहने के लिए तमाम प्रकार के चिन्हों और संकेतों का भी प्रयोग करते हैं। यही कारण है कि भारतीय समाज में विज्ञान प्रारम्भ से ही एक दुरूह विषय माना जाता रहा है। ऐसे में विज्ञान से जुड़ी बातों को लोक भाषा में आमजन तक पहुँचाने में बड़ी बाधाएँ आती है। इस बाधा से निपटने के दो प्रमुख रास्ते हो सकते हैं। पहला यह कि खोज कार्यों से जुड़े हुए वैज्ञानिक अपने शोधकार्यों को सरल भाषा में आम जन तक ले जाएँ, जिससे जनमानस उनसे भलीभाँति परिचित हो सके। दूसरा यह कि विज्ञान की पृष्ठभूमि वाले लेखक आगे आएँ और इस कार्य को निभाने की जिम्मेदारी संभालें। लेकिन इसमें भी खतरा यह रहता है कि विज्ञान के कठिन सूत्रों को सरल करने के चक्कर में वह गलत तरीके से व्याख्यायित न हो जाएँ। यही कारण है कि विज्ञान लेखन एक कठिन एवं जिम्मेदारी वाले कार्य के रूप में जाना जाता है।
चूँकि विज्ञान कथा में भी विज्ञान तत्व की अनिवार्यता होती है, इसलिए चाहते हुए भी कला वर्ग से जुड़े रचनाकार इस क्षेत्र में हाथ-पैर मारने से कतराते हैं। दूसरी बात यह है कि विज्ञान कथा लिखने के लिए ‘विज्ञान’ के साथ-साथ ‘कथा’ तत्व की भी आवश्यकता पड़ती है; इसलिए जो विज्ञान लेखन में रूचि रखने वाले लोग हैं, वे कथा में कमजोर पड़ जाने के कारण पीछे रह जाते हैं। ऐसे रचनाकारों द्वारा प्रणीत रचनाएँ आमतौर से रोचकता के लिहाज से बेहद कमजोर रह जाती हैं, जिससे उन्हें आलोचना का सामना करना पड़ता है।
इन हालातों में ज्यादा उम्मीद उन्हीं रचनाकारों से बंधती है, जो ‘कथा’ प्रणयन में माहिर होते हैं और विज्ञान की पृष्ठभूमि से जुड़े होते हैं। चूँकि विज्ञान में असीम ब्रह्माण की संभावनाएँ निहित होती हैं, इसलिए आमतौर से कला वर्ग की पृष्ठभूमि वाले रचनाकार अक्सर इसकी ओर आकर्षित तो होते हैं, लेकिन व्यापक अध्ययन के अभाव में या तो अपनी रचनाओं में कोई गम्भीर वैज्ञानिक त्रुटि वर्णित कर जाते हैं या फिर जानबूझकर विज्ञान को अपने मनचाहे स्वरूप में तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने लगते हैं। इसकी वजह से उन्हें आगे चलकर आलोचना का सामना करना पड़ता है और नतीजतन वे उससे तौबा कर लेने में ही अपनी भलाई समझते हैं।
विज्ञान कथा के पिछले सौ सालों के इतिहास पर नजर डालने पर यह स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है कि इससे जुड़े हुए लेखक मूल रूप से विज्ञान की पृष्ठभूमि से जुड़े रहे हैं। लेकिन आमतौर पर ऐसे रचनाकार साहित्य से उतना जुड़ाव नहीं रखने के कारण न तो साहित्य की बुनियादी प्रवृत्तियों को समझ पाते हैं और न ही उसकी जिम्मेदारियों को। यही कारण है कि अधिसंख्य रचनाकार अपनी रचनाओं को एक रहस्य और रोमांच कथा से आगे ले जाने में समर्थ नहीं हो पाते।
इन सबके साथ ही साथ एक कटु सत्य यह भी है कि हिन्दी में विज्ञान कथा आज तक अपनी एक सर्वसम्मत परिभाषा निर्धारित नहीं कर सकी है। एक ओर जहाँ विज्ञान कथाकारों का एक धड़ा विज्ञान कथा को भविष्य की कहानी के रूप में प्रचारित करता है और अपनी रचनाओं को वैज्ञानिकों के लिए प्रेरक के रूप में स्थापित करने हेतु प्रयत्नशील दिखता है, वहीं दूसरा समूह इसकी खिल्ली उड़ाता हुआ नजर आता है और रचनाओं में आवश्यक रूप से वैज्ञानिक सिद्धाँतों की पड़ताल के बहाने लेखकों की खिल्ली उड़ाता पाया जाता है। इसका दुष्प्रभाव यह होता है कि नवोदित रचनाकार इसे लेकर भ्रम का शिकार हो जाते हैं और अपने लिखे हर गलत-सही को ब्रह्मा की लकीर मानने लगते हैं।
जाहिर सी बात है कि विज्ञान कथा ने भले ही अपने 100 साल का सफर तय कर लिया हो, उसके सामने चुनौतियाँ अब भी वैसी ही हैं, जैसी 100 साल पहले थीं। यदि विज्ञान कथाकार सचमुच में विज्ञान कथा को साहित्य जगत में सम्मानपूर्ण स्थान दिलाना चाहते हैं, तो उन्हें उपरोक्त परस्थितियों पर न सिर्फ गम्भीरतापूर्वक विचार करना होगा, वरन अपने भेदभाव भूलकर इनसे पार पाने का रास्ता भी खोजना होगा। अन्यथा यह सवाल ज्यों का त्यों बना रहेगा कि विज्ञान कथाएँ भविष्य की कथाएँ हैं या फिर हिन्दी में विज्ञान कथाओं का भविष्य कैसा है?
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विज्ञान कथाओं पर कुछ अन्य महत्वपूर्ण आलेख
क्या है विज्ञान कथा? -डॉ. अरविंद मिश्र (What is Science Fiction?)
समकालीन बाल विज्ञान कथाएं : एक अवलोकन -डॉ. जाकिर अली रजनीश
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विज्ञान कथाएं : क्या सोचते हैं विज्ञान कथाकार ? (प्रमुख विज्ञान कथाकारों के विचार)
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गजब कल्पना चाहिये विज्ञान कथाओं के लिये, हिन्दी में वे दिन आयेंगे।
हटाएंशानदार प्रस्तुति .जाने माने विज्ञान कथाकारों के वक्तव्य और चिंतन परक विचार पढ़े .विज्ञान कथा के प्रति शेष कथाकारों का उपेक्षा भाव ईर्षा और डाह प्रेरित ज्यादा लगता है कोई साहित्येतर साहित्यकार हो कैसे सकता है ?
हटाएंबड़ी मेहनत से लिखी गई है यह समालोचना .ऐसा नहीं है हम आगे नहीं बढ़ें हैं विज्ञान कथा से जुडी त्रेमासिक पत्रिका का स्वतंत्र रूप ज़ारी रहना अद्भुत है .यहाँ तो सारिकाएँ भी मर गईं अभिसारिकाएं भी .कितने 'धर्म युग' कालकवलित हुए कितने 'हिन्दुस्तान' .'विज्ञान ,','वैज्ञानिक ',विज्ञान प्रगति जीवित हैं .जीवन चलने का नाम .आपने विज्ञान कथा के तत्वों की सटीक विवेचना की है .कहानी कला के सभी तत्व विज्ञान कथा में भी होने ही चाहिए -कथोकथन /संवाद ,वातावरण (परिवेश ),विवरण और ब्योरा ,रोचकता और उद्देश्य सभी कुछ यहाँ भी ज़रूरी है और सबसे आगे निकलके विज्ञान कथा का अनगढ़ शीर्षक जो किसी ब्लेक होल का गुरुत्व रचे. .
---१०० सालों में भी अभी भी वहीं के वहीं हैं एक दम सही है---
हटाएं---क्योंकि----
--... विग्यान कथा जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं है....कथा व साहित्य स्वयं एक विग्यान है ...विग्यान के बिना जीवन का एक पल भी नहीं चलता... अतः प्रत्येक कथा विग्यान कथा ही होती है .... बाकी तो सारा अलग दिखने का ढकोसला है....तकनीकी खोजों को तोडमरोडकर...अतिरन्जित कल्पना में पिरोकर पिष्टपेषण ही है....
Ryt
हटाएंसही कहा डॉ, श्याम जी ने ''विज्ञान के बिना जीवन का एक पल भी नहीं चलता... अतः प्रत्येक कथा विज्ञान कथा ही होती है ''
हटाएंरोचक ज्ञानबर्धक लेख
जाकिर भाई, बधाई हो, बहुत ही सुंदर, संग्रहणीय आलेख है. मैं इसके समर्थन में बहुत कुछ लिखता, लेकिन गांव के लिए निकल रहा हूं...लेख को पढ़कर जो संतोष हुआ, उससे बढ़कर आज का दिन सार्थक हुआ.
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