दलित इतिहास का पुनर्लेखन कई सवाल खड़े करता है।

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यह बड़े दु:ख का विषय है कि हिन्दुत्वादी शक्तियाँ दलित समाज के चरित्रों को लेकर उनके इतिहास का पुनर्लेखन कर रहीं हैं, ताकि वे उन्हें अपने ...

यह बड़े दु:ख का विषय है कि हिन्दुत्वादी शक्तियाँ दलित समाज के चरित्रों को लेकर उनके इतिहास का पुनर्लेखन कर रहीं हैं, ताकि वे उन्हें अपने साथ जोड़ सकें और अपने चिन्हित दुश्मनों के खिलाफ उनका इस्तेमाल कर सकें। लेकिन उनका यह उपक्रम कई सवाल भी खड़े करता है कि क्या वे उन चरित्रों के महिमामण्डन के बहाने यह सवाल भी पूछने का अधिकार देंगी कि एक्लव्य, शबरी और शम्बूक जैसे चरित्रों के साथ जो अन्याय किया गया है, क्या वे उसका प्रायश्चित करने के लिए भी तैयार हैं। अगर नहीं, तो फिर उनका यह प्रयास एक छलावा है, और इसके लिए समाज को जागरूक करने की ज़रूरत है।

बांए से: नलिन रंजन सिंह, शिवमूर्ति, रूपरेखा वर्मा, बद्री नारायण

उपरोक्ति बातें शहर की जानी-मानी सामाजिक कार्यकर्ता रूपरेखा वर्मा ने मोतीमहल लॉन में आयोजित बारहवें पुस्तइक मेले के दौरान कहीं। वे राजकमल प्रकाशन द्वारा आयोजित ‘उत्तर भारत में दलित संस्कृति : पहचान और राजनीति’ विषयक परिचर्चा में अध्यक्ष के रूप में बोल रही थीं। उन्होंने इस अवसर पर विमोचित बद्री नारायण की दलित चेतना सम्बंधी पुस्तकों ‘दलित वीरांगनाएं एवं मुक्ति की चाह’ तथा ‘हिन्दुत्व का मोहिनी मंत्र’ का उल्लेख करते हुए कहा कि उन्होंने दलित समाज का जितना सूक्ष्म अध्ययन इन पुस्तकों में प्रस्तुत किया है, उसी तरह का अध्ययन स्त्रियों के बारे में भी करने की जरूरत है, जिससे उनको भी जागरूक किया जा सके और उनके हालात मे सुधार हो सके।

इससे पूर्व जाने-माने सामाजिक इतिहासकार बद्री नारायण ने अपनी विमोचित पुस्तकों के बारे में बताते हुए कहा कि साम्प्रदायिक शक्तियों ने जिस तरह से दलितों की स्मृतियों में बसी कथाओं को पुनर्लेखन करते हुए उन्हें हिन्दुत्ववादी ताकतों से जोड़ा है, यह उपक्रम एक या दो वर्ष की देन नहीं है। इसके पीछे 2 दशकों का श्रम है, जिसे समझने की जरूरत है। क्योंकि बिना उसे समझे न तो उस चक्रव्यूह को तोड़ा जा सकता है और न ही उसके दुष्परिणामों से समाज को बचाया जा सकता है।
बांए से: जाकिर अली रजनीश, नलिन रंजन सिंह, शिवमूर्ति, रूपरेखा वर्मा
जनवादी लेखक संघ की प्रदेश इकाई के सचिव डा. नलिन रंजन सिंह ने दलितों के मोहिनीकरण की प्रक्रिया को रेखांकित करते हुए कहा कि ये एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है, जिसमें दलितों को मुस्लिमों के खिलाफ साथ लेने के लिए मध्यकाल का सहारा लिया जाता है। क्योंकि इस काल में शिवाजी और राणा प्रताप जैसे नायक रहे हैं, जिनके साथ दलितों का जुडाव रहा है। उन्होंने बद्री नारायण की पुस्तकों का उल्लेख करते हुए कहा इन पुस्तकों में दलित राजनीति के ज्वार का सटीक मूल्यांकन प्रस्तुत किया गया है, जो अत्यंत प्रशंसनीय है।

प्रख्यात कथाकार शिवमूर्ति ने उच्च जातियों के द्वरा दलितों के शोषण के लिए रची गयी शबरी, केवट जैसी कथाओं की मीमांसा करते हुए कहा कि चूंकि सीता राजघराने की महिला थीं, इसलिए वे बेर आदि तोड़ने के लिए धूप में कैसे जातीं। इसलिए उस अवसर पर शबरी का उपयोग किया गया और उसके साथ उसके झूठे बेर खाने का रूपक गढ़ लिया गया। इसी प्रकार जब केवट के द्वारा नाव उतराई लेने का प्रश्न आया, तो उसे बताया गया कि अंतिम समय में जब तुम्हें भव-सागर पार करना होगा, तब तुम्हें इन्हीं प्रभु की शरण लेनी होगी। इससे वह भयभीत हो गया और उसने नाव उतराई लेने से मना कर दिया। उन्होंने कहा कि यह प्रवृत्ति हमारे समाज में आज भी कायम है। आज भी जहां वोट की आवश्यकता होती है, वहां उनको इस तरह के प्रतीकों के द्वारा अपने साथ का बता लिया जाता है, लेकिन उसके बाद उनका लगातार शोषण किया जाता है।

लोकार्पण एवं परिचर्चा के इस कार्यक्रम का संचालन डॉ. जाकिर अली रजनीश ने किया। उन्होंने राजकमल प्रकाशन के प्रतिनिधि‍ के रूप में आमंत्रित वक्ताओं और श्रोताओं के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया। इस अवसर पर शहर के अनेक गणमान्य साहित्यकार एवं विद्वान उपस्थित रहे।
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दलित इतिहास का पुनर्लेखन कई सवाल खड़े करता है।
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